डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड अपनी संस्कृति, परंपराओं और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए जाना जाता है। बावजूद इसके तमाम ऐसी ऐतिहासिक धरोहरें हैं जो सामने नहीं आ पाई हैं। ऐसी धरोहरों को आज संरक्षण की दरकार है। हाल यह है कि संरक्षण के लिए राज्य और केंद्र सरकार की सूची में शुमार होने के बाद भी तमाम धरोहरों के प्रसार और संरक्षण की दिशा में कुछ खास काम नहीं हो पाया है।कत्यूरी, चंद, गोरखा, अंग्रेज शासकों ने यहां कई साल राज किया। हिदू ग्रंथों में केदारखंड और मानस खंड के रूप में कुमाऊं और गढ़वाल के पौराणिक इतिहास के बारे में स्पष्ट उल्लेख है। कुमाऊं पौराणिक इतिहास को अलग.अलग स्वरूपों में समेटे हुए हैं।
पुराने पांडवकालीन व ऐतिहासिक मंदिर, शिलालेख, इंडो यूरोपियन शैली में बने भवनों के अलावा तमाम ऐसी धरोहरें हैं जो संरक्षण के अभाव में दम तोड़ रही है। कुछ मुख्य धरोहरों के अलावा तमाम अन्य ऐसी गुमनाम धरोहर हैं जो यहां के इतिहास को समझने के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। कुमाऊं के चार जिलों में अनेक पुरानी ऐतिहासिक धरोहरें आज भी पुरातत्व विभाग की संरक्षण सूची में शामिल नहीं हो पाई है। इसमें अल्मोड़ा जिले में मुक्तेश्वर महादेव मंदिर कनरा, पवनेश्वर मंदिर पुभाऊं, प्राचीन शिलालेख कसारदेवी, बोडसी देवालय बाड़ेछीना, ल्वेटा रॉक पेंटिग, बद्रीनाथ मंदिर छत्तगुल्ला, मणिकेश्वर मंदिर बिता, चूड़ाकर्म महादेव मंदिर मासी। बागेश्वर जिले के ऐड़ी देवालय, टोटा देवालय, शिव मंदिर मोहली, धौभिणा बिरखम आदि। चंपावत जिले में शिव मंदिर मजपीपल, सूर्य मंदिर मण संरक्षण की सूची में शामिल हैं। जबकि पिथौरागढ़ के विष्णु मंदिर कोटली को पिछले साल ही भारत सरकार को स्थानांतरित किया गया है। पुरातत्व विभाग के संरक्षण वाले अल्मोड़ा जिले में स्थित कटारमल सूर्य मंदिर के शिखर का हिस्सा टूटा है। जबकि जागेश्वर मंदिर की ईटे गल चुकी हैं। यहां विभाग ही मरम्मत एवं सुधार संबंधी कार्य कराता है, लेकिन हकीकत यह है कि इनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है।
पौराणिक धरोहरों को संरक्षित रखने का जिम्मा संभाले पुरातत्व विभाग अधिकारियों की कमी से जूझ रहा है। हालत यह है कि कुमाऊं के चार पर्वतीय जिलों के लिए यहां पुरातत्व अधिकारी समेत अन्य का मकों की तैनाती नहीं हो पाई है। जिसे यहां की धरोहरों का जिम्मा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के भरोसे है। ऊधमसिंह नगर के काशीपुर स्थित गोविषाण किला भी दो सुरक्षा कर्मियों के जिम्मे है।
17वीं शताब्दी में पेशावर के पठानों ने समुद्रतल से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी में हिमालय की खड़ी पहाड़ी को काटकर दुनिया का सबसे खतरनाक रास्ता तैयार किया था। करीब 150 मीटर लंबा लकड़ी से तैयार यह सीढ़ीनुमा गड़तांग गली भारत.तिब्बत व्यापार का साक्षी रहा है। उत्तरकाशी जिले में जाड़ गंगा घाटी में स्थित सीढ़ीनुमा यह मार्ग दुनिया के सबसे खतरनाक रास्तों में शुमार है। 1962 से पूर्व भारत.तिब्बत के व्यापारी याकए घोड़ा.खच्चर एवं भेड़.बकरियों पर सामान लादकर इसी रास्ते से आते.जाते थे। 1962 में भारत.चीन युद्ध के दौरान गड़तांग गली सेना को अंतरराष्ट्रीय सीमा तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी। लेकिन पिछले 46 वर्षों से गड़तांग गली का उपयोग और रखरखाव न होने के कारण इसका अस्तित्व मिटता जा रहा है। भारत सरकार ने उत्तरकाशी के इनर लाइन क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था। तभी से नेलांग घाटी एवं जाडुंग गांव को खाली करवा कर वहां अर्धसैनिक बलों को तैनात किया गया था।
यहां के गांवों में रहने वाले लोगों को एक निश्चित प्रक्रिया पूरी करने के बाद साल में एक ही बार अपने देवी.देवताओं को पूजने की इजाजत दी जाती रही है। इसके बाद भारत के आम लोगों को भी नेलांग घाटी तक जाने की इजाजत गृह मंत्रालय भारत सरकार ने 2015 में दे दी थी, हालांकि विदेशियों पर प्रतिबंध बरकरार है। आज की तकनीक को चुनौती देती एतिहासिक धरोहर गड़तांग गली की सीढ़ियां आज दम तोड़ती नजर आ रही है। जाड़ गंगा के ऊपर पथरीली चट्टानों पर बनी ये सीढ़ियां एक नायाब इंजीनियरिंग का नमूना है, लेकिन शासन.प्रशासन और वन विभाग की अनदेखी के कारण आज ये सीढ़ियां जीर्णशीर्ण स्थिति में हैं। जबकि पर्यटन के दृष्टिकोण से यह बहुत ही महत्वपूर्ण है। वहीं गंगोत्री नेशनल पार्क की और गड़तांग गली की सीढ़ियों के विकास के लिए लाखों की धनराशि खर्च की गई, लेकिन उसका प्रयोग मात्र खानापूर्ति के लिए किया गया। अगर यही स्थिति रही तो जनपद की ये ऐतिहासिक धरोहर संरक्षण के आभाव में समाप्त हो जाएगी।