डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के एकमात्र पहाड़ी बैंड पांडवाज ने भू कानून पर गीत गाकर वाहवाही लूट ली. इतने बड़े मंच पर जहां प्रदेश के मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री के साथ 25 हजार दर्शक थे वहां भू कानून को लेकर गाना गाकर पांडवाज ने उत्तराखंड के लोगों की सशक्त भू कानून की मांग को देश भर में पहुंचा दिया.
लोकगायक जीत सिंह नेगी का जन्म 2 फरवरी 1925 में ग्राम -अयाल, पट्टी पैडुलस्यूं, पौडी गढवाल हुआ उन्होंने
उत्तराखंड की पर्वतीय लोकसंस्कृति को बहुत ही मार्मिक सजीव व प्रभावशाली रूप में गीत रचनाओं व गद्य-गीत
नाटिकाओं के माध्यम से समय-समय पर विभिन्न मंचो पर उतारा जिसे उस दौर में गढवाली, कुमाउनी और जौनसारी
संस्कृति और पर्ववतीय बोली भाषा की आवाम ने इस महान संस्कृति विद्वान पुरोद्धा को हृदय से सराहा ।श्री जीत
सिंह नेगी जी उत्तराखंड ऐंसे प्रथम लोकगायक हुए जिन्हें 1949 में यंग इंडिया ग्रामोफ़ोन कंपनी द्वारा बतौर
लोकगायक मुंबई में आमंत्रित किया गया था और यहां उनके गीतों की रिकॉर्डिंग हुई । उन्होंने अपने गीतों का
सर्वप्रथम प्रदर्शन पौड़ी के एक मंच में 1942 से प्रारम्भ किया। वेे उत्तराखण्ड के पहले ऐसे गीतकार, गायक व
संगीतकार हुए जिन्होंने ब्रिटिश काल में सबसे पहले अपने गीतों को रिकॉर्ड कर उसे जन जन तक
पहुंचाया।लोकगायक जीत सिंह नेगी की प्रारंभिक शिक्षा पौड़ी, वर्मा व में हुई । अपने मुम्बई प्रवास के दौरान
उन्होंने भारी भूल , मलेथा की कूल , जीतू बगड़वाल , रामी बौराण , राजू पोस्टमेन आदि कई कालजयी प्रचलित
गीत नाटिकाओं की रचना की और बाद में मुंबई से लेकर देहरादून, चंडीगढ़ में भी इन नाटकों का मंचन किया ।मुंबई
प्रवास के दौरान ही उन्होने 1955 में तू होली बीरा ऊंची निसी डांड्यों मां घसियार्यूं का भेस मा, खुद म तेरी सडक्यूं
पर मी, रुणु छौ परदेश मा , और घास काटी की प्यारी छैला हो इन दो कलजयी गीतों को भी मुंबई मे एच एम वी
कंपनी द्वारा रिकार्ड किया गया था। स्वर कोकिला रेखा धस्माणा उनियाल जी द्वारा गया गीत “दर्जी दिदा मीकै
अंगडी सिलै दे” यह कालजयी रचना भी जीत सिंह नेगी जी की थी, जिसे उन्होने 1960 के दरमियान रचा था। ऋषि
कैसेट कम्पनी द्वारा इस गीत को “हिलांस” नामक ऑडियो कम्पनी के माध्यम से बाजार में उतारा गया था जिसके
संगीतकार वीरेंद्र नेगी हैं। श्रीमती रेखा धस्माना उनियाल के सुर में सजी यह कालजयी रचना आज भी मंचों पर खूब
गाई व सुनी जाती है।लोकगायक जीत सिंह नेगी के पिता सुल्तान सिंह नेगी जी आजाद हिंद फौज के सिपाही रहे।
पिता बचपन में नेगी जी को पढाई लिखाई के उदयेश्य से उनके साथ बर्मा ले गये इस कारण नेगी जी के बचपन के
कुछ वर्ष बर्मा मे गुजरे ।अपनी जन्मभूमि से हजारों कीमी दूर एकांतवास के दौरान वे मन की व्यथा को खुदेड रचनाओं
के द्वारा उकेरते रहे, अपनी जन्मभूमि की याद में जीवन के कैनवास पर रचनाऐं उकेरत उकेरते उन्हे कालांतर में
समय एक ओजस्वी, उदीपमान और ओजपूर्ण गीतकार, नाटककार और रचनाकार बना गया । इस कंपनी में उन्होंने
डिप्टी म्यूजिक डायरेक्टर के रूप में भी काम किया। उनके नाटक “भार भूले” का मंचन पहली बार 1952 में मुंबई में
ही हुआ। उनका ये नाटक काफी हिट भी हुआ जिसने न केवल गढ़वाली मुंबईकरों की मानसिकता को उभारा बल्कि
पूरे भारत में, गढ़वाली प्रवासियों ने अपने सांस्कृतिक कार्यक्रमों में नाटक के महत्व के बारे में जाना। उन्होंने गढ़वाली
भाषा में ऐसे कई गीत और नाटक देशवासियों के लिए लिखे और गाये जीत सिंह नेगी उत्तराखंड के पहले कलाकार तो
जो गढ़वाली गीत-संगीत को रिकॉर्डिंग स्टुडियो तक ले गए. 1949 में उनका पहला ग्रामोफोन रिकॉर्ड हुआ था. इस
तरह से कहें तो उत्तराखंड में गीत-संगीत की जो इंडस्ट्री है,उसकी बुनियाद जीत सिंह नेगी ने डाली. गीत-संगीत के
अलावा रंगकर्म से भी जीत सिंह नेगी जी का जुड़ाव रहा है. उनके गीत बहुत सीधे,सरल और मधुर थे, जो पहाड़ के
रूप सौन्दर्य से लेकर पहाड़ के जीवन के कष्ट और पहाड़ से बिछोह के गीत हैं. बहुत वैचारिक या कष्टों के कारकों की
जड़ तक वे नहीं जाते,लेकिन पहाड़ की पीड़ा उनमें दिखती है. उनके गीत बहुत सीधे,सरल और मधुर थे, जो पहाड़ के
रूप सौन्दर्य से लेकर पहाड़ के जीवन के कष्ट और पहाड़ से बिछोह के गीत हैं. बहुत वैचारिक या कष्टों के कारकों की
जड़ तक वे नहीं जाते,लेकिन पहाड़ की पीड़ा उनमें दिखती है.
जैसे उनका एक गीत है :
घास काटी की प्यारी छैला ए
रुमुक ह्वेगे घार ऐ जा दी
एक पहाड़ी स्त्री है,जो घास लेने जंगल में,किसी पहाड़ ढलान पर गयी हुई है. घर में पति है,जो उसे पुकार रहा है कि
साँझ ढल गयी,दूध पीने वाला बच्चा है, घर आ जा. उसकी चिंता है घास के लिए पता नहीं किस ढलान पर चली गयी
है,बाकी सब तो घर लौट आए हैं. तू ही नहीं आई,तुझ बिन घर सूना है. बरसात में घास का गट्ठर गीला होगा और
बोझ बढ़ गया होगा. तेरे मायके से मेहमान आए हैं, सब तुझे पुकार रहे हैं. एक बार हाँ बोल के मन को तसल्ली दे दे.
तेरे न आने से आँसू सावन-भादो की तरह से बरसते हैं,इनको आ कर पोंछ दे.देर साँझ तक घास ले कर न लौटी स्त्री
और उसके साथ अनहोनी होने की आशंका,यह आज भी पहाड़ की तस्वीर है. पर्वतीय ढलानों पर घास लेने गयी स्त्री
और पाँव फिसलने से या ऊपर से पत्थर आ जाने से जान गंवा बैठी स्त्री,आज भी पहाड़ी गांवों की हकीकत है. उस
पीड़ा को सीधे-साधे तरीके से बयान करता गीत है ये. गीत में आशंका है कि कुछ अनहोनी न हो गयी हो पर उम्मीद
भी है क्या पता घास लेने गयी,वह महिला किसी की पुकार पर तो हाँ बोल ही देगी.
उनका एक गीत है :
चल रे मन माथ जयोला
(चल रे मन ऊपर हो कर आते हैं)
यूं कुछ धार्मिक किस्म की बात गीत में है,पर पहाड़ का जो वर्णन है,वह बेहद खूबसूरत है. गीत का एक अंश है :
धार मा बैठिल्यो त्वेतें बुथ्यालो
डाँडो को ठंडों बथौऊं रे
आदमी पहाड़ चढ़ रहा है,खड़ी चढ़ाई है.पहाड़ चढ़ने वाला पसीने से तरबतर है. फिर किसी ऊंचाई पर वह धम्म से
नीचे बैठता है. और तभी ऊंचाई की ठंडी हवा जैसे सहलाती है,जैसे थपकी दे रही हो.
इसी गीत में एक अंतरा है :
काळी कुएड़ी बसग्याळी मैनों
लौंकदी बगत बौळ्यांद डांडों
तबी त मैत की बेटी खुदींदा
सैसूर्यों का गौंऊ रे
(काला कोहरा बरसाती महीनों में
जब बौराता हुआ सा पसरता है तो
ससुराली गांवों में मायके को बेटी तड़पती है)
अब देखिये बात तो कुछ धार्मिक टाइप से शुरू हुई थी,लेकिन पहाड़ के गाँव में मायके की याद में कलपती स्त्री तक
पहुँच गयी.पहाड़ का गीत,पहाड़ की स्त्री,उसके विरह और पीड़ा के बिना मुकम्मल होता ही नहीं है. यूं जीत सिंह
नेगी, हमारे पीढ़ी के लिए अप्राप्य थे. वे ग्रामोफोन और एल.पी.रिकॉर्ड के जमाने के गायक थे और अब तो कैसेट के
बाद सी.डी. भी आउटडेटेड होने को है. लेकिन नयी पीढ़ी से जीत सिंह नेगी की वाकफ़ियत कराई उत्तराखंड के
स्वनाम धन्य लोकगायक,गीतकार,संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने. नरेंद्र सिंह नेगी ने जीत सिंह नेगी के गीतों को “तू
होली बीरा” नाम के एलबम में पुनः प्रस्तुत कर दिया.ये गीत यूट्यूब पर मिल जाते हैं. जीत सिंह नेगी के मूल स्वर में
न सही,लेकिन गीत तो वे उपलब्ध हैं ही और उनके ही हैं.नरेंद्र सिंह नेगी जी ही बताते हैं कि एच.एम.वी. कंपनी ने
भी एक समय जीत सिंह नेगी और कुछ अन्य उत्तरखंडी कलाकारों का ग्रामोफोन रिकॉर्ड किया था. एच.एम.वी.
कंपनी कलाकारों को रॉयल्टी देती थी. लेकिन उस जमाने में उत्तरखंडी लोगों के पास ग्रामोफोन उतने थे नहीं तो वो
एल.पी. रिकॉर्ड बहुत बिके नहीं और इनको बहुत कुछ प्राप्त नहीं हो सका. कैसेट कंपनियों का जमाना आया तो वे
लोकप्रिय लोकगायकों से उनके गीतों का कॉपीराइट खरीद कर,उन्हें एकमुश्त रकम देने लगी,जो कि गीतों की
गुणवत्ता और लोकप्रियता के हिसाब से मामूली ही होती थी.
“तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा”,जीत सिंह नेगी जी का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है.
तू होली ऊंची डांड्यूं मा बीरा
घसियारी का भेस मा
खुद मा तेरी सड़क्यूं पर मी
रूणु छौं परदेस मा
(तू होगी ऊंचे शिखरों पर बीरा घसियारी के भेस में
याद में तेरी सड़कों पर रोता हूँ,मैं परदेस में)
लोक का जिक्र आया और वह कहने लगे, 'हम कहां जाना चाहते थे और कहां पहुंच गए। कहां खो गई वह अपण्यास
(अपनापन)। सोचा था अपने राज्य में अपनी परंपराएं समृद्ध होंगी। रीति-रिवाजों के प्रति लोगों का अनुराग बढ़ेगा।
लेकिन, यहां तो उल्टी गंगा बहने लगी। कला और कलाकार, दोनों ही आहत हैं। दुधबोली सिसक रही है, पर उसके
आंसू किसी को नजर नहीं आते हैं। सब अपने में मस्त हैं, न संस्कृति की चिंता है, न संस्कारों की ही। 'यह कहते-कहते
'सुर सम्राट' जीत सिंह नेगी अतीत की गहराइयों में खो गए।अब मेरी उत्कंठा बढ़ने लगी थी, पर कुछ बोला नहीं।
बल्कि, यूं कहें कि बोलने की हिम्मत ही नहीं हुई। खैर! नेगीजी ने ही खामोशी तोड़ी और कहने लगे, 'बड़ी पीड़ा होती
है, जब अपनों की करीबी भी बेगानेपन का अहसास कराती है। सबकी आंखों पर स्वार्थ का पर्दा पड़ा हुआ है। फिर वह
नेता हों या अफसर, किसी का उत्तराखंड से कोई लेना-देना नहीं। सोचा था अपने राज में अपनी भाषा-संस्कृति को
बढ़ावा मिलेगा। गढ़वाली-कुमाऊंनी को सम्मान मिलेगा। लेकिन, हुआ क्या। इस कालखंड में हम गढ़वाली-कुमाऊंनी
को दूसरी राजभाषा बनाने का साहस तक नहीं जुटा पाए।नेगीजी का एक-एक शब्द हथौड़े की तरह चोट कर रहा था।
लग रहा था, जैसे उत्तराखंड खुद अपनी पीड़ा बयां कर रहा है। कहने लगे, 'मैंने पैसा कमाने के बारे में कभी नहीं
सोचा। मेरा उद्देश्य हमेशा ही लोक संस्कृति की समृद्धि रहा। लेकिन, आज संस्कृति को मनोरंजन का साधन मात्र मान
लिया गया है। क्या ऐसे बचेगी संस्कृति।' नेगीजी गीतों में बढ़ती उच्छृंखलता व हल्केपन से भी बेहद आहत रहते थे।
बोले, 'गीतों का अपनी जमीन से कटना संस्कृति के लिए बेहद नुकसानदायक है। इससे न गंभीर कलाकार पैदा होंगे, न
कला का ही संरक्षण होने वाला।' उनके मुताबिक कवि तो युगदृष्टा-युगसृष्टा होता है। वह इतिहास ही नहीं संजोता,
भविष्य का मार्गदर्शन भी करता है। बातों का सिलसिला चलता रहा। मजा भी आ रहा था। इच्छा हो रही थी कि
नेगीजी कहते रहें और मैं सुनता रहूं। लेकिन, समय की पाबंदियां हैं। सो, मैंने भी जाने की इजाजत मांगी। धीरे-धीरे
बाहर तक छोड़ने के लिए आए और विदा लेते वक्त यह कहना भी नहीं भूले कि अब तुम ही कुछ कर सकते हो, अपनी
संस्कृति के लिए। अपनी बोली-भाषा के लिए।1940 के दशक के अंतिम वर्षों में व्यावसायिक संगीत की दुनिया में
पदार्पण करने वाले गायक की पीड़ा,कमोबेश आज भी पहाड़ की सतत पीड़ा है. रोजगार के लिए पहाड़ छोडने का
एक अनवरत सिलसिला है,जो थमता नहीं है पौड़ी जिले की पैडलस्यूं पट्टी के अयाल गाँव में जन्मे जीत सिंह नेगी
प्रख्यात रंगकर्मी जीत सिंह नेगी को श्रद्धांजलि . लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून
विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।