डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
राज्य गठन के 25 साल पूरे होने जा रहे हैं, लेकिन अब भी उत्तराखंड को लोकायुक्त की नियुक्ति का इंतजार है. हैरानी की बात ये है कि राज्य में राजनीतिक दल भ्रष्टाचार विरोध के बल पर सत्तासीन हुए, लेकिन 2013 के बाद किसी सरकार ने इस मुद्दे को अंजाम तक नहीं पहुंचाया. खास बात ये है कि अब रजत जयंती वर्ष से ठीक पहले लोकायुक्त पर सरकार ने एक बार फिर से कदम बढ़ाने के संकेत दिए हैं. राज्य गठन के बाद साल 2002 में उत्तराखंड में लोकायुक्त की स्थापना हुई. पहले लोकायुक्त बने. 2008 में ने पदभार संभाला. 2013 तक सेवाएं दीं. तब से अब तक यह पद खाली है. हालांकि, इस अवधि में लोकायुक्त कार्यालय चलता रहा. इस पर करोड़ों रुपये खर्च किए गए. लोकायुक्त को सशक्त बनाने के प्रयास कई बार हुए, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण हर बार यह मामला अटक गया. साल 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री की सरकार ने मजबूत लोकायुक्त विधेयक विधानसभा में पारित किया. जिसके तहत मुख्यमंत्री से लेकर मंत्री और अफसर तक को दायरे में लाने का प्रावधान था. इसे राष्ट्रपति की मंजूरी भी मिल गई थी. लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद 2014 में सरकार ने कमजोर लोकायुक्त विधेयक पारित किया. जिसमें मुख्यमंत्री को दायरे से बाहर रखा गया. यह विधेयक भी लागू नहीं हो सका. इसके बाद 2017 में सरकार ने नया लोकायुक्त विधेयक लाने की कोशिश की, लेकिन यह आज तक विधानसभा में लंबित है. दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने 2017 में चुनाव के दौरान 100 दिन में लोकायुक्त नियुक्त करने का वादा किया था. आज आठ साल बीतने के बाद भी यह वादा अधूरा है. सरकार का तर्क है कि उसकी कार्यप्रणाली ‘भ्रष्टाचार मुक्त’ है, इसलिए लोकायुक्त की जरूरत नहीं है. भ्रष्टाचार उत्तराखंड की राजनीति का स्थायी मुद्दा रहा है. 2002 से अब तक हर चुनाव में यह मुद्दा उठता रहा, लेकिन सत्ता में आने के बाद कांग्रेस हो या भाजपा, किसी ने भी प्रभावी लोकायुक्त गठन नहीं किया. मजेदार बात यह है कि चुनाव से ठीक पहले विपक्षी दल चुनावी भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाकर सत्ताधारी दल को घेरने की कोशिश करता है. कभी छप्पन घोटाले तो कभी 100 से ज्यादा घोटाले की बात कह कर जनता के सामने सत्ताधारी दल पर जमकर प्रहार किए जाते हैं. इसी बल पर कई बार राजनीतिक दलों ने सत्ता भी हासिल की. मामला लोकायुक्त कार्यालय में कर्मचारियों की तनख्वाह और कार्यालय के दूसरे खर्चों से जुड़ा है. 2013 के बाद से लोकायुक्त की नियुक्ति ही नहीं की गई है. बिना लोकायुक्त की नियुक्ति के यह कार्यालय बिना काम सफेद हाथी बनकर रह गया है. सूचना के अधिकार से मिली जानकारी के अनुसार सरकार इस कार्यालय पर बिना काम के ही करोडों रुपए बहा रही है. आरटीआई एक्टिविस्ट और एडवोकेट ने कहा लोकायुक्त कार्यालय में खर्च हो रही बड़ी रकम की सुध लेने वाला कोई नहीं है. उत्तराखंड में भ्रष्टाचार हमेशा एक बड़ा मुद्दा रहा है. साल 2002 के पहले चुनाव से लेकर 2022 तक के चुनाव में भ्रष्टाचार को राजनीतिक दलों की तरफ से मुद्दा बनाया जाता रहा है. हैरानी इस बात की है कि सरकार आने पर ना तो कांग्रेस और ना ही भाजपा मजबूत लोकायुक्त का गठन कर पाई है. इस मामले पर पूर्व मुख्यमंत्री कहते हैं कि उन्होंने अपनी सरकार के दौरान लोकायुक्त पारित होने के बाद राजभवन तक पहुंचाया, लेकिन जनप्रतिनिधियों के दबाव में राज्यपाल ने इस पर मुहर नहीं लगाई. उधर जनता ने भी ऐसी ही पार्टी को सत्ता देकर इस पर कुछ भी कहने का हक खो दिया है. उत्तराखंड उच्च न्यायालय में आज उत्तराखंड में लोकायुक्त की नियुक्ति न होने से संबंधित एक याचिका पर सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान, राज्य सरकार की ओर से मुख्य सचिव ने न्यायालय के पूर्व आदेश के अनुपालन में एक हलफनामा प्रस्तुत किया। हलफनामे में कहा गया है कि सरकार ने लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए एक सर्च कमेटी का गठन किया है और पिछले महीने 22 फरवरी को इस कमेटी की एक बैठक भी हुई थी।मुख्य सचिव ने अदालत को आश्वासन दिया कि राज्य सरकार लोकायुक्त अधिनियम के प्रावधानों का पूरी तरह पालन कर रही है। हालाँकि, मुख्य और न्यायमूर्ति की खंडपीठ ने सरकार को चार हफ़्ते बाद होने वाली अगली सुनवाई में स्थिति की जानकारी देने का निर्देश दिया।गौरतलब है कि गौलापार, हल्द्वानी निवासी ने एक जनहित याचिका दायर की थी, जिसमें उन्होंने तर्क दिया था कि लोकायुक्त की अनुपस्थिति के बावजूद, राज्य सरकार लोकायुक्त कार्यालय चलाने के लिए सालाना 2 से 3 करोड़ रुपये खर्च करती रही है, जबकि लंबे समय से लोकायुक्त नहीं है।जनहित याचिका में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया कि जहां कर्नाटक और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने वाले सक्रिय लोकायुक्त हैं, वहीं उत्तराखंड में भ्रष्टाचार के छोटे-मोटे मामले भी उच्च न्यायालय पहुंच जाते हैं, क्योंकि वहां लंबे समय से लोकायुक्त नहीं है।याचिका में यह भी चिंता जताई गई है कि सभी राज्य जाँच एजेंसियाँ सरकारी नियंत्रण में काम करती हैं, जिससे किसी भी स्वतंत्र संस्था को बिना सरकारी अनुमति के राजपत्रित अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले दर्ज करने का अधिकार नहीं है। सतर्कता विभाग, जिसे एक स्वतंत्र जाँच संस्था के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, पुलिस मुख्यालय और मुख्यमंत्री कार्यालय के अधीन भी काम करता है, जिससे निष्पक्षता पर और भी सवाल उठते हैं।गौरतलब है कि इस संबंध में उच्च न्यायालय के कड़े निर्देश के बावजूद, सरकार ने न तो लोकायुक्त की नियुक्ति की है और न ही न्यायालय के आदेश का पूरी तरह पालन किया है। इस मामले की अगली सुनवाई चार हफ्ते बाद तय की गई है।यह भी उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में लोकायुक्त की स्थापना 2002 में एनडी तिवारी के नेतृत्व वाली राज्य की पहली निर्वाचित सरकार के कार्यकाल में हुई थी। तब से, केवल दो लोकायुक्त ही पद पर आसीन हुए हैं। वे हैं हालाँकि, 2013 के बाद से उत्तराखंड में किसी लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हुई है। एक सशक्त लोकायुक्त की स्थापना के प्रयासों के बावजूद, यह प्रक्रिया विभिन्न बहानों के तहत 12 वर्षों से अधिक समय से रुकी हुई है। भ्रष्ट सरकार, अधिकारियों और नेताओं पर लगाम लगाने के लिए पहली बार 1969 में लोकसभा में लोकपाल बिल पेश किया गया था. जिसे 1971 से लेकर 2008 तक कई संशोधन के बाद इसे देश के लिए लोकपाल और राज्यों के लिए लोकायुक्त के रूप में लागू किया गया, लेकिन उत्तराखंड में लोकायुक्त का गठन न हो इसको लेकर सरकारों ने खूब मेहनत की. सरकारों की नाकामियों का ही नतीजा है कि राज्य गठन के 25 सालों बाद भी प्रदेश में लोकायुक्त का गठन नहीं हो पाया है. देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने और भ्रष्टाचार को लगाम लगाने के लिए न्यायपालिका और चुनाव आयोग के बाद लोकपाल को तीसरी ऐसी स्वतंत्र संस्था के रूप में स्थापित किया गया था, जिसमें सरकार का कोई दखल ना हो और इसका कामकाज पूरी तरह से स्वतंत्र होकर सरकार, भ्रष्ट नेताओं और कर्मचारियों पर नजर रखा जा सके, लेकिन सरकारों को इस तरह की व्यवस्था बिल्कुल भी रास नहीं आई. उत्तराखंड में सरकारें बिना काम के भी करोड़ों खर्च कर देती हैं. यह बात सुनने में जरूर अजीब लग रही होगी, लेकिन लोकायुक्त कार्यालय के मामले में ये बात बिल्कुल सच है. खुद सरकारी दस्तावेज और आंकड़े भी इस तस्दीक कर रहे हैं. आपको जानकर हैरानी होगी कि जिस राज्य में सालों से लोकायुक्त ही नहीं वहां एक साल में 2 करोड़ से ज्यादा का खर्चा लोकायुक्त कार्यालय पर हो रहा है राज्य सरकार ने अभी तक लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं की है, जबकि संस्थान के नाम पर दो से तीन करोड़ रुपये सालाना खर्च हो रहे हैं। उत्तराखंड में कोई भी ऐसी स्वत्रंत जांच एजेंसी नहीं है जिसे यह अधिकार हो कि वह बिना शासन की पूर्वानुमति और दबाव के किसी भी राजपत्रित अधिकारी के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुकदमा पंजिकृत कर सके। स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच के नाम पर प्रचारित किया जाने वाला विजिलेंस विभाग भी राज्य पुलिस का ही हिस्सा है जिसका सम्पूर्ण नियंत्रण पुलिस मुख्यालय, सतर्कता विभाग या मुख्यमंत्री कार्यालय के पास है। राजनीतिक रूप से भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा होने के बावजूद भी लोकायुक्त पर जनता का बेवकूफ राजनीतिक दल बनाते रहे। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*












