अखिलेश मयंक के चर्चित उपन्यास की समीक्षा
आलोक वर्मा
‘लखनऊ डोमेनियर्स’ अखिलेश मयंक का पहला उपन्यास है। यह उपन्यास शिक्षित और शिक्षा हासिल कर रहे नौजवानों को लेकर रचा गया है, जिनके सामने रोजगार एक अहम मुद्दा है। इसके अधिकांश पात्र लखनऊ यूनिवर्सिटी और लखनऊ आईआईएम के विद्यार्थी हैं। ये हास्टल में रहकर पढ़ाई कर रहे हैं और अपने भविष्य के सपने बुन रहे हैं। लेकिन भविष्य को लेकर चिंताएं उनके मन में भी है। आगे क्या होगा, जीवन कैसे गुजरेगा आदि आदि, उपन्यास का ज्यादातर भाग इन्हीं नौजवानों के इर्द.गिर्द घूमता है। उपन्यास के कई रंग हैं। भले ही लेखक ने इसे लखनऊ पर केंद्रित रखा हो लेकिन ये पूरे देश के युवाओं के सपनों की कहानी है, बदलते शहर और बदलते समाज के युवाओं की कहानी। इन युवाओं के सपने बड़े हैं जो अपने दम पर दुनिया में एक खास मुकाम हासिल करना चाहते हैं। लेकिन ये इक्कीसवीं सदी के युवा हैं। ये मध्य वर्ग और उच्च मध्य वर्ग के युवक युवतियां हैं। ये ग्लोबलाइजेशन के चकाचौंध में खोई हुई पीढ़ी है। हाई प्रोफाइल टेक्नोलाजी से लैस। इनको सब कुछ मुट्ठी में नजर आता है। अब जब सपने बड़े होंगे तो उनको हासिल करने मे खतरे भी बड़े होंगे और नाकामी मिलने पर निराशा और अवसाद भी खतरनाक मोड़ पर ले जाएगी। इनसे जुड़ी सारी खूबियां और खामियां उपन्यास में खूबसूरती से दर्शायी गई हैं। लेखक ने इनकी कहानी को
इन शब्दों में पिरोया है. .. ‘इस उपन्यास की कहानी आज के नए लखनऊ के कुछ युवाओं की कहानी है। यहां पढ़़ाई कर रहे ऐसे युवाओं की कहानी जो अपने दम पर कुछ करना चाहते हैं। सोसाइटी में एक पहचान बनाना चाहते हैं। इन युवाओं में आदर्शवाद और व्यावहारिकता दोनों हैं, पर समाज में पहचान बनाना क्या इतना आसान है… बहुत दिक्कतें आती हैं। जनरेशन डी के ये युवा उसका सामना करते हुए अपना रास्ता खुद बनाते हैं।’
उपन्यास का लक्ष्य पाठक से कुछ कहना होता है, उनसे संवाद स्थापित करना होता है। इसे हम इस तरह से समझ सकते हैं कि जिस तरह से दुनिया को देखने का नजरिया अलग.अलग हो सकता है, उसी तरह से उपन्यास की रचना का कारण और ढंग भी अलग.अलग हो सकता है। लेकिन जो भी उपन्यास रचा जाए, उसके भीतर का रचा हुआ संसार कैसा है, वह कितना व्यापक और संकीर्ण है, कितना विविधतापूर्ण और एकांगी है, साथ ही बाहरी संसार से उसका संबंध कैसा है, यही वह कसौटी या तत्व है, जिसके आधार पर उपन्यास के महत्व को पहचाना जा सकता है।
मैंने पहले ही लिखा है कि लेखक ने उस तबके के युवाओं को ध्यान में रखकर कहानी बुनी है जो हाई सोसायटी का हिस्सा हैं या उसमें शामिल होना चाहते हैं। इसका कारण ग्लोबलाइजेशन का असर हो सकता है। पिछले तीस सालों में जो वैश्विक बदलाव आया है, वह उपन्यास की रचना में दीखता है। यह जरूर है कि उसके नतीजे आम आदमी के लिेए बहुत बेहतर नहीं रहे। अधिकांश लोगों तक उसका फायदा नहीं पहुंचा। नई आर्थिक नीतियों के कारण जहां सरकारी नौकरियां लगातार कम होती गई हैं, वहीं सरकारों का जोर हर चीज के निजीकरण की तरफ रहा है। केंद्र और राज्य सरकारें दोनों जनता के प्र्रति अपनी जिम्मेदारियों से लगातार पीछा छुड़ाने की कोशिश में लगी हुई हैं और काफी हद तक सफल भी हैं। डा.मनमोहन सिंह द्वारा शुरू की गई नई आर्थिक नीतियों ने जो ‘चमत्कार’ दिखाया था, वह चकाचौंध अब लगभग समाप्ति पर है। उसका नजीजा यह रहा कि पिछले सालों में रोजगार, सरकारी और प्राइवेट दोनों तरह की नौकिरयां में कमी आई है। इससे साफ है कि उद्योग भी बंद हुए हैं। देश में बेरोजगारी की दर इस समय सबसे ज्यादा है। मनमोहन सिंह की नीतियों को भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार ने और तेजी से आगे बढ़ाया तो उसका एक असर और दिखा है कि बड़े बड़े उद्योगपति बैंकों से कर्ज लेकर विदेश भाग गए। लेखक ने लिखा है कि जब वह उच्च शिक्षा के लिए लखनऊ आए तो 1995 में उन्होंने उपन्यास लिखना शुरू किया। यह वही समय है जब डा. मनमोहन सिंह देश के वित्त मंत्री बने थे और नेहरूकालीन नीतियों को उलट पलट कर एक चकाचौंध वाली आर्थिक नीति प्रस्तुत की थी।
जिसके चलते उद्योग जगत की फसल लहलहाने लगी थी। अचानक हर उद्योगपति अपने धंधे का विस्तार करने में जुट गया। लेकिन जिसका नतीजा 2008-09 में सामने आने लगा और मंदी की चपेट में आए उद्योगों से लाखों लोगों की नौकरियां और रोजगार चला गया। निश्चित रूप से लेखक भी उस चकाचौंध से प्रभावित हुआ होगा और उपन्यास का तानाबाना उसी दौर में बुना गया होगा। उपन्यास में लेखक ने लखनऊ को बहुत गहराई से आब्जर्ब किया है और पिछले सालों में हुए बदलावों को शिद्दत से महसूस किया है और उसे सामने रखा है। उसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में रखकर प्रस्तुत किया है।
प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय ने अपने एक लेख ‘उपन्यास और यथार्थः एक टिप्पणी’ में लिखा है. ‘उपन्यास यथार्थ के बोध, उसकी व्याख्या और अभिव्यक्ति की एक ऐसी पद्धति है जो दूसरे साहित्य रूपों और कला रूपों से अलग होती है। इसलिए उसे कुछ लोग विशिष्ट औपन्यासिक पद्धति कहते हैं। यह औपन्यासिक पद्धति इतिहास की समकालीन वास्तविकताओं से साक्षात्कार की जैसी क्षमता रखती है, वैसी क्षमता अन्य साहित्य रूपों में कम ही मिलती है।….’
अखिलेश मयंक ने उपन्यास में लीक से हटकर अलग फार्मेट का उपयोग किया है। रूप के साथ कहानी कहने का अंदाज भी अलग है। उदाहरण के रूप में उपन्यास शुरू होने से पहले ही इसमें नाटकों की तरह प्रमुख पात्रों का परिचय दिया गया है। इससे पाठक को कहानी समझने में सहूलियत होती है। इसकी दूसरी वजह युवा वर्ग को आकर्षित करना भी हो सकता है। दूसरा. सभी अध्याय के शीर्षक यूनिक और रोचक हैं जैसे, बाहुबली उर्फ फ्यूजन दादा पूरे.पूरे एमसी हैं। एंजेलिना जैसे ओठ, कैंपबेल जैसे गाल, क्या सांवले रंग वाले लोग सुंदर नहीं होते. आदि आदि। उपन्यास के तकरीबन सभी शीर्षक इसी तरह के कुछ अलग से चुटीले रूप में हैं। ये शीर्षक पाठकों का ध्यान अपनी तरफ खींचते हैं या यूं कहें कि शीर्षक पढ़ते ही पाठक में आगे कहानी पढ़ने की उत्सुकता बलवती हो जाती है कि आगे उसे कोई रोमांचक कहानी पढ़ने को मिलेगी। सभी शीर्षक कोई न कोई मैसेज देते हैं। जैसे पहले अध्याय का शीर्षक है. बाहुबली उर्फ फ्यूजन दादा पूरे पूरे एमसी हैं। शीर्षक के नीचे सब हेडिंग में जगह, समय और स्थान की जानकारी दी गई है। यह अध्याय उपन्यास के प्रमुख पात्र बाहुबली दादा पर है। उनका वास्तविक नाम प्रभाष है, पर इस नाम से कोई नहीं जानता। स्टूडेंट्स लीडर रहते हुए भी अप टू डेट हैं। अर्थात हर विधा की जानकारी है। लेखक ने उनके परिचय पर एक अध्याय लिखा है और पूरे 13 पेज में उनकी विशेषताएं लिखी हैं. लड़के कहते हैं दादा पूरे एमसी हैं मैन
आफ कंट्रडिक्शंस। इसकी वजह यह है कि वह एवेंजर बाइक से चलते हैं, एप्पल फोन इस्तेमाल करते हैं, हर समय गूगल मैप इस्तेमाल करते हैं पर इसके साथ ही दिशाशूल और शुभ अशुभ मुहूर्त भी मानते हैं। … इंडियन क्लासिक म्यूजिक की उन्हें गहरी समझ है, पर इसके साथ ही वेस्टर्न म्यूजिक की भी खास जानकारी रखते हैं।
समाज भले ही बहुत तरक्की कर गया हो लेकिन विचारों में दकियानूसी और पिछड़ापन अब भी मौजूद है। उपन्यास में कुछ इन्हीं कुरीतियों और सड़ी गली परम्पराओं का वर्णन किया गया है और युवा वर्ग जिस तरह उनका प्रतिरोध कर रहा है और बदलाव का माध्यम बन रहा है उसे बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया गया है। सांवले और गोरे का भेद अभी भी समाज में कोढ़ की खाज की तरह मौजूद है। सांवलापन कई बार सारी योग्यताओं पर भारी पड़ जाता है। क्या सांवले रंग वाले लोग सुंदर नहीं होते आईआईएम लखनऊ, हास्टल, रागिनी.शीरीन का रूम। उपन्यास का महत्वपूर्ण अध्याय लेखक ने दो लड़कियों, आईआईएम की छात्राओं के वार्तालाप के माध्यम से समाज की दो बुराइयों पर चर्चा की है। समाज अभी भी लड़कियों के रंग को लेकर दकियानूसी ही है। लेखक ने इस पिछड़ेपन पर मेलकम लिटिल की एक कविता के माध्यम से व्यंग्य किया है. उपन्यास की एक पात्र शीरीन सुनाती है.
व्हेन आई बार्न, आई ब्लैक।
व्हेन आई ग्रो अप, आई ब्लैक।
व्हेन आई गो इन लन, आई ब्लैक।
व्हेन आई स्कारेड, आई ब्लैक।
व्हेन आई सिक, आई ब्लैक।
व्हेन आई डाई, आई स्टिल ब्लैक।
… एंड यू व्हाइट फेलो,
व्हेन यू बार्न, यू पिंक,
व्हेन यू ग्रो अप, यू व्हाइट.
व्हेन यू गो इन सन, यू रेड।
व्हेन यू कोल्ड, यू ब्लू।
व्हेन यू स्कारेड, यू येलो।
व्हेन यू सिक, यू ग्रीन।
एंड व्हेन यू डाई, यू ग्रे।
… एंड यू कालिंग मी कलर्ड,
राहुल लखनऊ यूनिवर्सिटी में ला की पढ़ाई कर रहा है। रागिनी राहुल को प्यार करती है, उससे शादी करना चाहती है परंतु राहुल रागिनी से इसलिए शादी नहीं करना चाहता क्योंकि वह सांवली है। रागिनी कई बार इशारों इशारों में प्यार करने का संकेत राहुल को दे चुकी है परंतु उसके सांवलेपन के चलते राहुल ने ठुकरा दिया। सांवलेपन को लेकर राहुल की सोच किस स्तर तक पिछड़ी हुई है कि यास्मीन खम्बाटा के माडल होने पर राहुल आश्चर्य जताता है कि वह कैसे माडल हो सकती है क्योंकि वह तो सांवली है। तब रागिनी उसे सुनाती है, क्यों, सांवले लोग माडलिंग नहीं करते, तुम देखते नहीं कि सांवली लड़कियां कई सारे ब्यूटी कांटेस्ट में क्राउन जीतती हैं। … कई तो मिस वर्ल्ड के टाप थ्री में भी पहुंची हैं। दुनिया की टाप माडल नोओमी कैंपबेल तो बहुत ही सांवली है लेकिन उसने टैलेंट की वजह से सुपर माडल का खिताब हासिल किया।… सांवली लड़कियों को लेकर तुम्हारा ये माइंड सेट बहुत गलत है। यह बहुत दुखद भी है। तुम्हें शायद पता नहीं कि सांवली लड़कियों को मा़डलिंग की दुनिया में बहुत अच्छा माना जाता है। उन्हें डस्की ब्यूटी कहा जाता है। … रागिनी आगे बोली, दरअसल तुम्हारे दिमाग
पर गोरे रंग का भूत बुरी तरह चढ़ गया है। इसलिए तुम्हें लगता है कि सारी खूबी गोरी लड़कियों में ही होती है। सांवली लड़कियां भी कुछ कर सकती हैं, इसे मानने के लिए तैयार ही नहीं हो। तुमने मुझे भी मेरे सांवले रंग के कारण, एक नहीं कई बार इग्नोर किया है। लेखक दिखाता है कि इतनी खरीखोटी सुनने के बाद राहुल की सोच सांवलेपन को लेकर बदल जाती है।
उपन्यासकार ने जिस दूसरी सामाजिक कुरीति पर प्रहार किया है वह पारसी धर्म को लेकर है। पारसी समुदाय में धार्मिक परंपरा है कि जब समुदाय का कोई व्यक्ति मर जाता है तो उसके शव को जलाते या दफनाते नहीं हैंए उसे टावर आफ साइलेंस में गिद्धों के खाने के लिए छोड़ देते हैं। समाज में इस परम्परा के बदलाव को लेकर आवाज उठती रही है लेकिन ज्यादातर लोग परम्परा को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। सीरीन बताती है कि प्रिंसिपल मैम सीरीन दरांशा इस प्रथा की विरोधी थीं। वह इस सड़ी गली प्रथा को बदलने की पक्षघर थीं। उन्होंने जब डेड बाडीज को जलाने या दफनाने की बात की तो पारसी समाज ने बड़ा विरोध किया। दूसरी बार इस कुप्रथा के विरोध में सीरीन उतरती है। जब उसके दादाजी की मृत्यु हो जाती है तो उनके शव को टावर आफ साइलेंस ले जाने की तैयारी होती है तो वह विरोध करती है। बड़ा बवाल मचता है। घर से लेकर समाज तक इसके विरोध में उतर आता है। लेकिन अंततः उसके पिता तैयार हो जाते हैं और दादाजी का शव दफना दिया जाता है। इस प्रक्रिया में उसके मंगेतर का परिवार भी शामिल नहीं होता है। इस कुप्रथा का दूसरी मुठभेड़ तब होती है जब सीरीन के मंगेतर की बहन की सड़क हादसे में मौत हो जाती है। वहां भी इस बात को लेकर बवाल होता है। सीरीन का मंगेतर अड़ जाता है कि बहन का शव टावर आफ साइलेंस में नहीं डाला जाएगा बल्कि उसे दफनाया जाएगा।
लेखक ने पारसी समाज से संबंधित एक और सामाजिक पिछड़ेपन की प्रथा पर रोशनी डाली है। सीरीन बताती है कि अगर कोई पारसी युवक गैर पारसी लड़की से शादी कर ले तो उसके बच्चे को तो मान्यता मिलती है लेकिन अगर कोई पारसी लड़की गैर पारसी लड़के से शादी कर ले तो उसे धर्म से बाहर कर दिया जाता है। इसी सिलसिले में वह सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को उद्धृत करती है जिसमें पारसी लड़की गुलरुख के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट ने यह व्यवस्था दी है कि किसी भी पारसी लड़की, जिसने धर्म के बाहर के लड़के से शादी की हो, को फायर टैंपल में प्रवेश से दूसरे धार्मिक रीति.रिवाजों में शामिल होने से रोका नहीं जा सकता।
उपन्यास के ये दोनों कथानक इस बात की तसदीक करते हैं कि अखिलेश ने उपन्यास लिखने में काफी शोध किया है। वह सामाजिक कुरीतियों पर न सिर्फ प्रहार करते हैं बल्कि उसके खात्मे के लिए एक पहल या आंदोलन की तरफ भी इशारा करते हैं।
उपन्यास की कहानी भले ही लखनऊ के युवाओं से शुरू हुई हो, लेकिन इसको सिर्फ लखनऊ का इतिहास और भूगोल में ही समेटा नहीं गया है। जब लेखक सीरीन की चर्चा, कहानी कर रहा होता है तो वह आपको मुंबई की सैर कराता है और वहां के समाज और संस्कृति से परिचित कराता है। इसी तरह पात्रों के माध्यम से बनारस की चर्चा करता है और फिर वह सीरीनए उसकी भाभी और रागिनी के माध्यम से बनारस ले जाता है और फिर बनारस की विशेषताओं पर चर्चा करता है। गाइड बनारस शहर की छोटी छोटी विशेषताओं को विस्तार से बताता है। चाहे वह काशी विश्वनाथ मंदिर हो, चौक हो, चौक से जुड़े धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विचार को लेकर प्रचलित किवदंतियां, गंगा आरती हो या कचौड़ी गली या फिर पप्पू टी स्टाल। वह इतनी खूबसूरती से इन दृश्यों को कहानी में पिरोता है कि पाठक की नजरो में बनारस घूमने लगता है और शहर के सौंदर्य का आनंद ले रहा होता है। इसी तरह अंगदान के प्रति जागरूकता का मुद्दा भी लेखक ने उठाया है।
उपन्यास की कुछ और विशेषताएं भी हैं जैसे छोटे.छोटे ब्योरे हैं जो उपन्यास को रोचक बनाते हैं। युवा मुसीबत में एक दूसरे की सहायता में आगे रहते हैं। भाषा युवा वर्ग को ध्यान में रखकर रची गई है। आज का युवा वर्ग अंग्रेजी मिश्रित हिंदी जिसे हिंग्लिश भी कहते हैं धड़ल्ले से बोलता है और उपन्यास में यह भाषा चार चांद लगाने का काम करती है।
समाज में धोखेबाजों का एक वर्ग है जिसे परजीवी कहा जा सकता है। यह वर्ग अपनी हवा हवाई बातों से भोले भाले लोगों को फांसता है और उनको शिकार बनाकर ऐशो आराम की जिंदगी जीता है। लखनऊ डोमेनियर में इसी तरह के एक चालबाज पात्र एसपी सिंह का वर्णन किया गया है। वह वकालत कर चुके हैं लेकिन प्रैक्टिस नहीं करते। हवा हवाई योजनाएं बनाने में उस्ताद हैं। जो भी उनकी बात सुने झांसे में आ जाए। मंत्री, विधायक से लेकर ब्यूरोक्रेट्स तक परिचय है। एसपी जैसे लोग समाज में हर जगह आपको मिल जाएंगे। एसपी अपनी बातों में लखनऊ यूनिवर्सिटी के एलएलबी लास्ट ईयर के छात्र राहुल को फांसते हैं। एसपी राहुल को बताते हैं कि वह एक मैगजीन निकालने जा रहे हैं। राहुल मेहनती हैं इसलिए वे मैगजीन का सीईओ रहेंगे और सारा काम वही देखेंगे। राहुल जिंदगी में तरक्की करना चाहता हैं, वह एसपी की बातों में आ जाता है और जी जान से काम में एसपी के साथ लग जाता है। विधानसभा चुनाव नजदीक है और एसपी बार.बार चुनाव के पहले मैगजीन निकालने की बात कहता है। इसके लिए वह मैगजीन लांचिंग को लेकर तमाम झूठी बातें राहुल को बताता रहता है कि जल्द ही मैगजीन बाजार में होगी। लेकिन उसका उद्देश्य मैगजीन निकालना होता ही नहीं है और अंततः एक दिन पता चलता है कि एसपी राहुल को
बगैर बताए बोरिया बिस्तर समेट कर लखनऊ से फरार हो जाता है। और फिर गौतम दादा उसे बताते हैं कि वह मशरूम मीडिया का शिकार हो गया है। यह कहानी एक बात और बताती है कि अपने देश में चुनाव आते ही अचानक नए नए अखबारों, चैनलों और मैगजीनों की बाढ़ आ जाती है और चुनाव खत्म होते ही वे परिदृश्य से गायब हो जाते हैं। समाज में कुछ लोगों ने इसे धंधा बना लिया है और इसका शिकार अधिकांशतः बेरोजगार युवा होता है।
अखिलेश मयंक सकारात्मक सोच के व्यक्ति हैं। यह बात उनके लेखन में भी बार .बार सामने आई है। पेशे से पत्रकार रहे हैं तो ब्योरों का यथोचित उपयोग किया है। चाहे वह रागिनी और राहुल का मामला होए व्हाट्सएप .गर्ल उर्फ नैना सिंह का किरदार या फिर डिजिटल बिजनेस या डोमेनियर्स क्लब का। बार.बार उपेक्षित राहुल द्वारा बार बार उपेक्षा किए जाने के बावजूद रागिनी उसके संकट के समय में साथ खड़ी होती है और अंततः उनकी सगाई हो जाती है। इसी तरह डिजिटल बिजनेस का एक ढांचा ही पाठकों के सामने रख देते हैं और उन्होंने युवा वर्ग को यह मैसेज देने की कोशिश की है कि नौकरी के लिए किसी के सामने हाथ फैलाने न जाओ खुद का बिजनेस करो। शायद देश की निजाम से बहुत प्रभावित है और उसे लगता है कि डोमेन बिजनेस से युवा वर्ग के एक बड़े तबके की रोजगार की समस्या हल हो जाएगी। खासतौर पर युवा वर्ग को यह उपन्यास अवश्य पढ़ना चाहिए।
उपन्यास को प्रकाशक के यहां से तो खरीदा ही जा सकता है साथ ही इसे डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डाट अमेजन डाट काम से भी खरीदा जा सकता है।
उपन्यास. लखनऊ डोमेनियर्स
लेखक. अखिलेश मयंक
मूल्य. 199 रुपये
प्रकाशक. प्रथम पब्लिशर एंड इन्फारमेटिक्स प्रा. लि.
प्लाट नं. 7ए जय नगर, सेक्टर 11, इंदिरा नगर, लखनऊ. 226016