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मडुवे को अब औषधीय खाद्य के रूप में अपनाने लगे हैं लोग, विदेशों में जबरदस्त मांग

05/09/19
in उत्तराखंड, हेल्थ
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जयदेव चौहान, डॉ हरीश चंद्र अन्डोला
मिल्ट्स घास परिवार, पोएसी के मामूली अनाज हैं। इन्हीं में कोदा या फिंगर मिलेट या रागी शामिल है। वे छोटे सीडेड, वार्षिक अनाज घास है, जिनमें से कई उष्णकटिबंधीय और शुष्क के लिए अनुकूल हैं। यह दक्षिण अफ्रीका, अरब एवं भारतीय उपमहाद्वीप मै फैले हैं। जलवायु और कम उपजाऊ मिट्टी में जीवित रहने की उनकी क्षमता ही उनकी विशेषता है। रागी या फिंगर मिलेट का वैज्ञानिक नाम एलुसिने कोरैकाना एल है। इसे भारत के कई क्षेत्रों में रागी या कोराकान के नाम से जाना जाता है। श्रीलंका और अफ्रीका में अलग.अलग नामों से और पारंपरिक रूप से पूर्वी और मध्य अफ्रीका और भारत में एक महत्वपूर्ण प्रधान भोजन है।
जब हम अपने आहार में व्यापक रूप से पॉलिश किए गए सफेद चावल का सेवन करते हैं, यह भी पाया गया है कि आहार ग्लाइसेमिक लोड कार्बोहाइड्रेट की गुणवत्ता और मात्रा दोनों का एक उपाय है और परिष्कृत चावल जैसे सफेद चावल का अधिक सेवन बीच में 2 मधुमेह और चयापचय सिंड्रोम के जोखिम जुड़े हैं। शहरी दक्षिण एशियाई भारतीय फिंगर मिलेट, भारत की सबसे पुरानी फसलों में से एक है, जिसे प्राचीन भारतीय संस्कृति साहित्य में कृत्तकोंडाका कहा जाता है, जिसका अर्थ है नृत्य अनाज, राजिका या मार्काटक के रूप में भी संबोधित किया गया था। राष्ट्रीय पोषण निगरानी ब्यूरो एनएनएमबी, 2006 की रिपोर्ट संकेत दिया कि राज्यों में सामान्य रूप से मिलेट की खपत अधिक थी। गुजरात मक्का, मोती बाजरा, महाराष्ट्र, शर्बत, कर्नाटक, फिंगर मिलेट, भारत में फिंगर मिलेटस प्रायः पीले, सफेद और लाल किस्मों में विभाजित हैं। साथ ही कहीं. कहीं भूरे या बैंगनी रंग के भी उपलब्ध हैं। हालाँकि केवल लाल रंग वाली किस्म की ही आमतौर पर दुनिया भर में खेती की जाती है। भारत में आम तौर पर ज्यादातर फिंगर मिलेट का उपयोग किया जाता है और पूरे भोजन का उपयोग किया जाता है। परंतु उत्तराखंड में अब इसकी खेती सिमित जगह ही की जा रही है। इसका उपयोग भारत में पारंपरिक खाद्य पदार्थों की तैयारी के लिए, जैसे कि रोटी अखमीरी सपाट ब्रेड, काज़ी आदि में किया जाता है। फिंगर मिलेट के गोले या पिंडा और कांजी पतली दलिया, इन पारंपरिक खाद्य पदार्थों के अलावा, फिंगर मिलेट को संसाधित भी किया जाता है। फिंगर मिलेट से पापड़ भी उत्पादित होते हैं, साथ ही साथ नूडल्स, सूप, आदि।
इसके साथ ही फिंगर मिलेट कई औषधीय गुणों से भरपूर है जैसे एंटीऑक्सिडेंट गुण एवं रोगाणुरोधी गुण। जर्नल ऑफ़ फ़ूड साइंस के एक अध्ययन उपलब्ध हैं और बताते है की इसके नियमित सेवन से अनेक रोगों से बचा जा सकता है। इसके आलावा यह हृदय रोगों के निदान में भी बहुत लाभकारी है। इसमें मौजूद केमिकल एंटीहाइपोचोलेस्त्रोलेमिक चयापचयों वेंकटेश्वरन और विजयालक्ष्मी के अधयन प्रयास से छपे जर्नल ऑफ़ फ़ूड साइंस एंड टेक्नोलॉजी में अंकित है। यह मधुमेह जैसे असाध्य रोगों का भी तोड़ रखने में सक्षम है। इसमें एक कंपाउंड ए.ग्लूकोसिडेस इनहिबिटर होता है, जो ग्ल्यसिमिक इंडेक्स को कम रखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पोस्टप्रांडियल हाइपरग्लाइसेमिया और शोबाना के नैदानिक प्रबंधन में भूमिका और अन्य। इसमें एक तत्त्व ए.ग्लूकोसिडेज़ और अग्नाशयी को एमाइलेज निरोधात्मक स्थापित करता है। फिंगर मिलेट में फ़िनोलिक्स निकालने के गुण भी कई वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में संकेत दिया कि फिंगर मिलेट फेनोलिक्स एल्डोज रिडक्टेस और सांप के जहर फॉस्फोलिपेस पीएलए 2 के अवरोधक हैं। प्रोटीन ग्लाइकेशन डायबिटीज की जटिलताओं में से एक है और प्रोटीन ग्लाइकेशन इनहिबिटर्स इनथिसिस कॉम्प्लीकेशन की मददगार हैं। फिंगर मिलेट प्रोटीन ग्लाइकेशन निरोधात्मक गुणों का प्रदर्शन करने के लिए पाए गए। लोग अपनी आदत अनुसार जल, जंगल, जमीन के संरक्षण में फिर से दिखाई देंगे। वरना प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से ही विकास की इबारत लिखी जाएगी। जैसे कि अधिकांश शहरवासी सोचते हैं। ऐसा पहाड़ के लोगों का कहना है।
उत्तराखण्ड राज्य में इन दिनों पलायन को लेकर हो हल्ला हो रहा है। सरकार के माथे पर लगातार सवाल खड़े किये जा रहे हैं कि पलायन कब रुकेगा वगैरह। पलायन एक स्वाभाविक समस्या है। जवाब है कि पलायन को रोकने के लिये पहाड़ों में लोगों को रोकना पड़ेगा। स्पष्ट है कि पहाड़ में एक तरफ रोजगार के साधन उपलब्ध करवाने पड़ेंगे और दूसरी तरफ शिक्षा स्वास्थ को लेकर विशेष कार्य करने होंगे। यह सब होगा। मगर एक काम निर्वतमान की सरकार करके गई। भले इसके राजनीतिक उत्तर ढूँढे जा रहे हों। पर जनाब पहाड़ में पहाड़ी उत्पादों को ही बाजार में उतारना होगा। कृषि कार्य से जुड़े जानकारों का मानना है कि पहाड़ में लोग रुक गए तो एक तरफ पहाड़ों की हरियाली बची रहेगी। उतराखण्ड के मंडुवे की माँग विदेशों में भी है। अब मण्डुवा लोगों की आजीविका का साधन बनने जा रहा है।
मंडुवे की रोटी लोगों के घरों में फिर से जगह बनाने लगी है। इसका इस्तेमाल दवा के रूप में भी किया जाता है। उदाहरण के तौर पर दूधमुहें बच्चों को जब जुकाम आदि की समस्या होती है तो मंडुवे के आटे को गर्म पानी में डालकर उसका भाप लेने से आराम मिलता है। कभी मंडुवे के आटे से स्थानीय स्तर पर सीड़े, डिंडके जैसे पारम्परिक नामों से कई प्रकार के व्यंजन तैयार होते थे जो ना तो तेलिय होती और ना ही स्पाईसी होती है। लोग इसे अतिपौष्टिक मानते थे। इन्हें हल्की आँच के सहारे दो बर्तनों में रखकर भाप से पकाया जाता है। इसमें चीनी गुड़ और मंडुवे के आटे के अलावा और अन्य किसी चीज का प्रयोग नहीं किया जाता था। अब उम्मीद यह की जा रही है कि ये व्यंजन जल्द ही प्रचलन में आएँगे। स्थानीय लोग और वैज्ञानिक संस्थाएँ मंडुवे के आटे और मंडुवे के दाने को लेकर विभिन्न प्रयोग कर रहे हैं।
देहरादून स्थित कटियार एकमात्र बेकरी है जहाँ मंडुवे के आटे से बनी डबल रोटी आपको मिल जाएगी। कटियार बेकरीवालों का कहना है कि मंडुवे के आटे से बनी डबल रोटी की माँग तेजी से बढ़ रही है और वे माँग के अनुरूप पूर्ति नहीं कर पा रहे हैं। इसके अलावा कृषि विज्ञान केन्द्र रानीचौरी ने मंडुवे के आटे से बर्फी बनाने का सफल प्रयोग किया है। केन्द्र से प्रशिक्षण लेकर शिक्षित बेरोजगार संदीप सकलानी और कुलदीप रावत ने मंडुवे की बर्फी को पिछली दीपावली के दौरान बाजार में उतारा है। औषधीय गुणों से भरपूर इस जैविक बर्फी की कीमत 400 रुपए प्रति किलो है। जिसकी ऑनलाइन डिलीवरी हो रही है। मंडुवे का वैज्ञानिक नाम इल्यूसीन कोराकाना है। वैज्ञानिक और पकवान बनाने के शौकीन लोगों ने मंडुवे के औषधीय गुण ढूँढ निकाले हैं। इसकी पौष्टिकता को देखते हुए कुछ वर्षों से रोटी के अलावा बिस्कुट और माल्ट यानि मंडुवे की चाय के रूप में भी इसका उपयोग हो रहा है। पारम्परिक अनाजों को बढ़ावा देकर किसानों की आर्थिक स्थिति को सुधारना है। इसी को ध्यान में रखते हुए मंडुआए झंगोरा आदि मोटे अनाजों के कई उत्पाद तैयार किये जा रहे हैं। मंडुआ की बर्फी इसी का एक हिस्सा है। जैसे.जैसे खाद्य पदार्थों में कीटनाशक पदार्थों का प्रयोग बढ़ता जा रहा है वैसे.वैसे लोगों का शरीर बीमारियों का घर बन गया है। मेडिकल रिपोर्ट्स के अनुसार सर्वाधिक बीमारी लोगों को खान.पान में मौजूद रासायनिक पदार्थों की मौजूदगी के कारण हो रही है। इस खतरे से बचने के लिये लोग फिर एक बार वर्षों पूर्व भुला दिये गए पारम्परिक मोटे अनाजों की तरफ लौटना शुरू कर दिया है। उत्तराखण्ड में तो मंडुवे के आटे से रोटी के अलावा बर्फी और बिस्कुट भी बनना शुरू हो गया है। साफ है कि उत्तराखण्ड में धीरे.धीरे मण्डुवा जैसे मोटे अनाज की माँग बढ़ती जा रही है और यह यहाँ के किसानों की आमदानी का भी जरिया बनता जा रहा है।
उत्तराखण्ड में मोटे अनाजों की 12 प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिसे आम बोल.चाल की भाषा में बारहनाजा कहते हैं। इनमें शामिल मण्डुवा कभी बच्चों के अन्नप्रास में प्रयोग में लाया जाने वाला मुख्य आहार था। समय बदला, देश के सभी क्षेत्रों में खेती के पैटर्न में बदलाव हुए और मोटे अनाज की जगह नए अनाजों ने ले लिया। उत्तराखण्ड की वादियों में रचे.बसे किसान भी पारम्परिक अनाजों को त्यागकर गेहूँ का उत्पादन करने लगे। इस तरह गेहूँ के उत्पादन में इजाफा हुआ और मण्डुवा की जगह गेहूँ की रोटी ने ले ली। समय के साथ गेहूँ के उत्पादन में तेजी आई लेकिन उत्पादन में कीटनाशकों के बढ़ते प्रयोग के कारण इसके सेवन से लोग विभिन्न प्रकार की बिमारियों की चपेट में आने लगे। इन्हीं सब कारणों से यहाँ के लोग मण्डुवा सहित अन्य मोटे अनाजों की तरफ फिर से मुड़ गए। इस तरह उत्तराखण्ड में धीरे.धीरे मोटे अनाजों की मंडी में तब्दील होने लगा। राज्य में मंडुआ का बाजार काफी तेजी से विकसित हुआ है।
टिहरी गढ़वाल के में दो युवकों ने मण्डुवा की बर्फी बनाने का काम शुरू किया है। अब बाजार में उनकी बनाई बर्फी की खूब माँग है। स्थिति अब ऐसी है कि मण्डुवा से बने उत्पाद जैसे ही बाजार का रुख करते हैं तुरन्त ही बिक जाते हैं क्योंकि माँग की तुलना में उत्पादन कम है। मण्डुवे पर मिला 300 रुपए का बोनस पौड़ी जिले के कृषि विभाग के अनुसार वर्ष 2016.17 में बेहतर मण्डुवा उगाने पर थलीसैंण ब्लॉक के सुनार गाँव की दर्शनी देवी को बोनस के रूप में 364 रुपए, इसी गाँव की अषाड़ी देवी को भी 364 रुपए, खिर्सू ब्लॉक के बुडेसू गाँव के रविंद्र सिंह को 280 रुपए, द्वारीखाल ब्लॉक के जवाड गाँव की पुष्पा देवी को 560 रुपए तथा यमकेश्वर ब्लॉक के पटना मल्ला गाँव की अनिता देवी को 112 रुपए मण्डुवा उगाने के एवज में बोनस दिया गया है। बागेश्वर जिले के लोहारखेत में 10 हेक्टेयर में मंडुआ का उत्पादन होगा। इसके अलावा 10 हेक्टेयर में कुछ क्लस्टर भी डेवेलप किये गए हैं और जिनमें मंडुआ की खेती कराई जा रही है। । बताया जा रहा है कि 10 हेक्टेयर में लगभग 160 क्विंटल मंडुवे का उत्पादन होगा। कपकोट ब्लॉक के 20 गाँवों के ग्रामीण मण्डुवा और मार्छा का उत्पादन सदियों से कर रहे हैं। इसे अब दोगुना करने का लक्ष्य सरकार द्वारा तैयार किया गया है। लोहारखेत के आउटलेट में ढाई लाख लागत की नैनो पैकेजिंग यूनिट की स्थापना भी की जाएगी। केन्द्र सरकार की मदद से इसे विकसित किया जा रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पलायन तो रुकेगा हीए साथ ही स्थानीय स्तर पर लोगों को रोजगार भी मिलेगा।

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