राजीव लोचन साह
आज़ादी से पूर्व के हमारे नेता ऐसे visionary और बहुआयामी होते थे कि आज के क्षुद्र दृष्टि/बुद्धि के धनी राजनेताओं से उनकी तुलना करना इतिहास के साथ मजाक करने जैसा है। गोविन्द बल्लभ पंत को ही लें। वे वकील या राजनीतिज्ञ ही नहीं थे। नैनीताल में में उनकी सक्रिय उपस्थिति श्री राम संस्कृत पाठशाला या तल्लीताल की रामलीला तक में देखी जा सकती थी।
पंत जी ने लगभग सौ साल पहले, 1922 में लोगों को साहूकारों के पंजे में फंसने से बचाने के लिए एक joint stock company के रूप में नैनीताल बैंक की स्थापना की। तब कितने लोग बैंकिंग के बारे इस तरह सोचा करते होंगे ? लाला लाजपतराय ने अलबत्ता पंजाब नेशनल बैंक को स्थापित करते हुए ऐसा ही सपना देखा होगा।
नैनीताल बैंक धीरे-धीरे प्रगति करता हुआ कुमाऊँ के लगभग सभी प्रमुख नगरों में पहुँच गया। मगर सत्तर के दशक के शुरू में कुछ ऐसी दुर्घटनायें हुईं कि बैंक के सामने अस्तित्व का संकट आ गया। तब रिज़र्व बैंक ने बैंक ऑफ बड़ौदा को जिम्मेदारी दी कि नैनीताल बैंक के शेयर खरीद कर इसे बचाये। इस तरह 1973 में नैनीताल बैंक बैंक ऑफ बड़ौदा के नियंत्रण में आया।
बैंक ऑफ बड़ौदा के नियंत्रण में आने के बाद एक ओर तो नैनीताल बैंक ने अच्छी तरक्की की (आज उत्तरी भारत में इसकी 137 शाखाएँ हैं), दूसरी ओर यह बैंक ऑफ बड़ौदा का उपनिवेश भी बन गया। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो बैंक ऑफ बड़ौदा से प्रतिनियुक्ति पर आने वाले अधिकारी इसके साथ ईस्ट इंडिया कम्पनी के कारिंदों जैसा व्यवहार करते रहे। लुक-छिपकर लूट का सिलसिला चलता रहा। इसमें कुछ घटनायें तो उजागर हुईं, जैसे अभी-अभी शाहजहांपुर ब्रांच का महा घोटाला अखबारों की सुर्खियाँ बना, मगर बाकी दबी-छिपी ही रहीं।
इस बीच बैंक ऑफ बड़ौदा द्वारा नैनीताल बैंक को हड़पने के कुचक्र भी रचे जाते रहे। सबसे बड़ी कोशिश 2006-07 में हुई, जब बैंक ऑफ बड़ौदा ने नैनीताल बैंक को लगभग निगल ही लिया था। मगर तब बैंक के shareholders के साथ नैनीताल की जनता भी उठ खड़ी हुई। तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी द्वारा हथियार डाल देने के बावजूद हरीश रावत भी लड़ाई में कूदे और रिज़र्व बैंक के उच्चाधिकारियों के साथ-साथ वित्त मंत्रालय के लोगों को समझाते रहे। निर्णायक लड़ाई तो सितम्बर 2007 की AGM में हुई। पता नहीं किसी कॉरपोरेट बैठक में ऐसी हिंसा कभी हुई या नहीं, मगर उस बार तो अच्छा-खासा खून भी बहा। उस वक़्त के बैंक के चेयरमैन द्वारा अपनी मदद के लिये भाड़े के गुण्डे बुलाये गये थे। उनके द्वारा AGM में तमंचे निकालने पर shareholders ने उन्हें इतना पीटा कि वे रक्तरंजित कपड़ों में ही शहर छोड़ कर भाग खड़े हुए। मज़ेदार बात कि इन गुण्डों की पिटाई करने में महिलाएँ सबसे आगे थीं।
उस घटना के बाद बैंक ऑफ बड़ौदा अपना मौका ताड़ते हुए चुपचाप बैठा रहा।
मगर अब फिर कुचक्र शुरू हो गए हैं। इस बार दुर्भाग्य यह है कि नैनीताल के सांसद भी इस षडयंत्र में शामिल हैं। सम्भवतः मोदी सरकार की नीति यही हो कि छोटी संस्थाओं को नष्ट करो। बड़े पैमाने पर लूट-खसोट के लिए बड़ी संस्थाएँ ज्यादा मुफीद होती हैं। उन्हीं से हजारों करोड़ रुपये लेकर विदेश भागा जा सकता है।
मेरे जैसे लोगों के लिये नैनीताल बैंक हमारी अस्मिता और आत्मसम्मान का प्रतीक है। उत्तराखंड से बाहर जब नैनीताल बैंक का बोर्ड दिखाई देता है तो छाती गर्व से फूल जाती है। इसी लिए 2006-07 की लड़ाई में हमने अपना सर्वस्व झोंक दिया था। अब एक और लड़ाई सामने हैं। पिछली बार की लड़ाई के योद्धा उत्तराखंड आंदोलनकारियों की तरह या तो निष्क्रिय हो गए हैं या फिर लालचों में फंस गये हैं। प्रदेश सरकार को कोई मतलब नहीं कि उसका सबसे बड़ा बैंक अपना अस्तित्व खो रहा है या उत्तराखंड के सबसे पुराने अखबार ‘शक्ति’ ने अभी-अभी अपने सौ साल पूरे कर पत्रकारिता में एक इतिहास रचा है।
तो एक और रण सामने है। उससे न तो हम बच सकते हैं और न नैनीताल बैंक। भले ही उत्तराखंड के ज्यादातर लोग राज्य आन्दोलन के शहीदों को भूल गए हों, मगर अभी भी बहुत से हैं, जो अपनी अस्मिता और आत्मसम्मान को लेकर संवेदनशील हैं।
तो तैयार रहिये एक और लड़ाई के लिए….