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नौले-धाराओं में लौटेगी अमृत धार!

10/10/25
in उत्तराखंड, देहरादून
Reading Time: 1min read
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https://uttarakhandsamachar.com/wp-content/uploads/2025/11/Video-60-sec-UKRajat-jayanti.mp4

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड में कुमाऊँ क्षेत्र के जनपद अल्मोड़ा के अन्तर्गत डोल क्षेंत्र में स्थित भगवान विष्णु का पौराणिक मन्दिर रहस्य, रोमांच,आस्था व भक्ति का साक्षी माना जाता है,घने देवदार के जंगलों के मध्य स्थित इस देव दरबार के दर्शनों के लिए दूर-दराज क्षेत्रों से लोग यहाँ दर्शन के लिए पधारते है भक्तजन इस मंदिर को श्री हरि विष्णु देव नागराज मन्दिर के नाम से भी पुकारते है यह भूमि भगवान विष्णु के साथ- साथ नागों की भी पूजनीय स्थली है उत्तराखण्ड में स्थित भगवान विष्णु के गिने-चुनें प्रसिद्ध मंदिरों में एक है आध्यात्मिक सांस्कृतिक व सुन्दरता की दृष्टि से यह भूभाग जितना पावन है उतना ही मनोरम भी यहाँ के हरे- भरे देवदार के वृक्ष सदियों के रहस्यमयी इतिहास को अपने आप में समेटे हुए है मंदिर की भांति ही वृक्षों के प्रति भी लोगों में गहरी आस्था है कहते है कि इन वृक्षों को नुकसान पहुंचाने का साहस कोई नही करता है यहाँ के जंगल की लकड़ी भी कोई अपनें घर नही ले जाता है कहा जाता है यदि यहाँ की लकड़ी कोई अपने घर ले जाता है तो वहाँ साँप व नागों का आवागमन होने लगता है यहीं कारण है यहाँ के वृक्ष भी पूजनीय है मंदिर परिसर में भगवान श्री हरि विष्णु के साथ- साथ शिवजी की भी पूजा होती है यहाँ स्थित शिवालय भी भक्तों के लिए परम आस्था का केन्द्र है उत्तराखंड के कुमाऊ मंडल में नौलों की एक संस्कृति रही है। हिमालय क्षेत्र में जितने भी पुराने नौले हैं, वहां कत्युरी राजाओं की छाया देखी जा सकती है। नौलों में हमारी संस्कृति भी दिखती है, जितने नौले हैं, वहां यक्ष देवता की मूर्ति हर नौले में रखी हुई दिख जाएगी। पुराने समय के लोग यह बताते हैं कि इस क्षेत्रा में यक्ष देवता को प्रणाम करने के बाद ही पानी लेने का विधान रहा है। नौलों में जूता पहनकर जाने की सख्त मनाही थी, इसलिए पानी लेने आने वाला शख्स जूतो को खोलकर, जल में रखे गए देवता की मूर्ति को प्रणाम करके ही पानी लेता था। इसका अर्थ है कि पुराने समय में स्वच्छता का विशेष ख्याल रखा गया था। जो शहर में पानी का पाइप लाइन आने के बाद लगभग खत्म ही हो गया। अब तो पानी के लिए लोगों ने बाहर निकलना भी बंद कर दिया है। इस तरह नौले उपेक्षित हो गए। इस तरह बहुत से नौले लुप्त हो गए। लेकिन हमने कभी नहीं सोचा कि इन नौलों को बचाने से हम पानी के संकट से बच सकते हैं। समाज को शुद्ध पानी निशुल्क मिल सकता है इतना ही नहीं आधुनिकता की आंधी में नौलों के साथ हमारे सांस्कृतिक जुड़ाव को भी पहाड़ के समाज ने भूला दिया। पहाड़ों में अब आखिरी पीढ़ी बची है, जो नौलों के महत्व और इतिहास को लेकर संवेदनशील है।हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारा परंपरागत ज्ञान तभी सुरक्षित रह सकता है, जब हम नौले के पास जाएंगे और उस आत्मीयता को महसूस करेंगे। देखने में आ रहा है कि नौलों के प्रति लोग काफी चिन्तित हैं। लेकिन नौलों के प्रति उनकी चिन्ता कम और परियोजना के प्रति उसमें आकर्षण अधिक नजर आता है। यदि ईमानदारी से काम किया जाए तो समाज की सहभागिता और प्रशासन के सहयोग से यह काम किया जासकताहै।अल्मोड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं कि उन्होंने मित्रों के साथ मिलकर नौलों की सफाई का काम प्रारंभ किया था। बहुत से नौलों में उन्होंने सफाई अभियान चलाया। उन्होंने रानी नौला, लक्ष्मीश्वर नौला, सिद्ध नौला, कपिना नौला में सफाई की। यह सब उन्होंने किसी प्रोजेक्ट के अन्तर्गत नहीं किया, बल्कि नदी बचाओ अभियान चलाते हुए किया। उन्हें लगा कि नदीं तभी बचेगी, जब नौले और धारे बचेंगे। उन्होंने नौले और धारों की सफाई के अभियान की शुरुआत इसलिए कि क्योंकि उन्होंने सोचा था कि इस तरह से नौलों धारों की सफाई के काम से समाज को जोड़कर वे दूसरे नौले की सफाई के लिए आगे बढ़ जाएंगे। जबकि तीन चार सप्ताह सफाई करने के बाद लोगों के फोन उनके पास आने लगे कि इस बार सफाई के लिए क्यों नहीं आए? लोग इस तरह के अभियान से जुड़ते नहीं बल्कि उनकी आदत निर्भर रहने की हो गई है। कोई बाहर से आए, और उनकी सारी फैलाई हुई गंदगी समेट कर अपने साथ ले जाए।
शिवजी के पुत्रा कार्तिकेय के नाम से छठे शताब्दी में एक साम्राज्य कत्युरी स्थापित हुआ। बताया जाता है कि हिमालय भू भाग में पहला सिक्का इन्होंने ही चलाया जो आज भी संग्रहालय में मिल जाएगा। इनकी सीमा अफगानिस्तान तक फैली थी। सन् छह में कुमाऊ में संकट आया। चीन की तरफ से हमला हुआ। कत्युरी राजाओं की राजधानी तिब्बत के पास ब्रह्मपुर थी। राजा शिव ने उस समय अपनी बहन सुनंदा को जो मेवाड़ के राजा के यहां ब्याही गई थी। उसे संदेश भेजा कि हमारा राज छिन्न भिन्न हो गया है। मदद कीजिए। मेवाड़ के राजा ब्रह्मपुर की रक्षा के लिए आए जिसमें रास्ते में कई राजे रजवाड़े जुड़ते चले गए। ब्रह्मपुर आजाद हुआ। फिर लंबे समय तक कोई विपदा इस क्षेत्रा पर नहीं आई। कार्तिकेय का साम्राज्य बहुत फैला। कत्युरी राजाओं का युद्ध मुगलों से हुआ। काठगोदाम के पास जो रानी बाग है, वहां जिया रानी मुगलों से लड़ती हुई मारी गई। लेकिन अपने जीवन में मुसलमानों को पहाड़ में नहीं आने दिया।
वैसे इतिहासकार अल्मोड़ा शहर को बसाने का श्रेय चंद राजाओं को देते हैं। सन 1563 में चंद राजा बालो कल्याणचंद ने अल्मोड़ा को अपनी राजधानी बनाया। उससे पहले यह शहर कत्युरी राजाओं की देखरेख में था और चंद राजाओं की राजधानी उस समय पिथौरागढ़ हुआ करती थी। अल्मोड़ा नाम के पिछे भी एक कहानी सुनने को मिलती है। अल्मोड़ा स्थित कटारमल के सूर्य मंदिर के बर्तनों की सफाई के लिए प्रति दिन खसियाखोला नाम की जगह खस समुदाय के लोग एक खास घास मंदिर में पहुंचाते थे। इस घास का नाम चिल्मोड़ा था। जिसे कुछ लोग अमला नाम से भी जानते हैं। इसी चिल्मोड़ा घास के नाम पर शहर का नाम अल्मोड़ा रख दिया गया। जानकार बताते हैं कि मुगलों ने चंद राजाओ से समझौता किया था। जिस समझौते के अन्तर्गत चंद राजाओं ने मुसलमानों को अपने यहां रहने की जगह देने का आश्वासन दिया और अल्मोड़ा शहर में राजपुरा उसी समझौते के अन्तर्गत बना।उस दौर में आम जन के बीच देवताओं का भय था कि वे नौलों में स्वच्छता नहीं रखेंगे तो देवता नाराज हो जाएंगे। अब वह डर समाज के अंदर से जाता रहा है और समाज का नैतिक मूल्य खत्म हो रहा है। अब युवा पीढ़ी को परिवार और समाज से नैतिक शिक्षा मिलती भी नहीं है। वैसे अनैतिकता के आग्रह के साथ विकास कर रहे समाज को परवाह हो ना हो, पर नौलों में उतरने पर ईश्वर की मूर्तियां अब भी वहां विराजमान है। वहां गोल विष्णु चक्र मिलेगा। कत्युरी राजा मानते थे कि जल ही विष्णु है। जो हमारा लालन-पालन करता है। अब भेड़चाल हो गई है। हरिद्वारा जाना है। गंगा में डूबकी लगानी है। अब भेड़ चाल में हमारे अंदर का आध्यात्मिक बोध खत्म हो गया है। भौतिक बोध बच गया कि हमें नहाना है। इसीलिए हम नदियों और नौलों को प्रदूषित कर रहे हैं। हमें इस बात की परवाह नहीं रही कि हमारे बाद भी लोग यहां आएंगे। हम अपने कल के लिए प्रकृति को संवारने में यकीन खो रहे हैं।अल्मोड़ा शहर में जिसे 360 नौलों का शहर कहा जाता है, जिसका जिक्र पंडित बद्रीदत्त पांडेय ने ‘कुमाऊ के इतिहास’ में किया है। दूसरी तरफ नैनीताल की कथित तौर पर खोज करने वाला बैरन जो 1840 में अल्मोड़ा आया। उसने लिखा कि अल्मोड़ा में उस समय लगभग 100 जल स्त्रोत थे। ‘पर्वतीय जल स्त्रोत’ नाम किताब के लेखक प्रफुल्ल चंद पंत ने 1988-93 के बीच नौलों और धारों पर एक गम्भीर अध्ययन किया और उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि बैरन सही था।जैसा कि हम जानते हैं कि 1864 में स्थापित अल्मोड़ा नगर पालिका भारत की सबसे पुरानी नगर पालिकाओं में से एक है। इसके नियम कानून की पुस्तिका में लिखा है कि चेचक के रोगियो अथवा किसी भी संक्रामक रोग से पीड़ित व्यक्ति के कपड़े को धोने के लिए अलग नौले की व्यवस्था थी। रजस्वला स्त्रिायों के स्नान के नौले अलग थे। पीने का पानी जहां से लिया जाए वहां कपड़े धोने और स्नान करने की मनाही थी। क्रिया कर्म के नौले अलग थे। यहां नियम का पालन ना करने वालों पर जुर्माने की व्यवस्था भी थी। मृत्यु के बाद 12 दिनों तक चलने वाले कर्म कांड के लिए क्रिया नौलों का इस्तेमाल किया जाता था। यहां उल्लेखनीय है कि जिन नौलों का इस्तेमाल क्रिया कर्म के लिए किया जाता था, उन्हीं नौलों का पानी कुमाऊ में पीने योग्य बचा हुआ है। दूसरे नौलों की हालत खराब हुई है। संभव है समाज में मौजूदा मृत्यु से भय ने क्रिया नौलों की रक्षा की होगी। सुनारी नौला, चौधरी नौला जैसे जाति आधारित नौले भी कुमाऊ में देखने को मिलते हैं।
कोसी पेयजल योजना सन 1952 में बनी। बावजूद इसके अल्मोड़ा में पानी के लिए नौलों की शरण में जाना मजबूरी थी। इस योजना का पानी भी अल्मोड़ा के लिए पर्याप्त नहीं था। सन 1882 में अल्मोड़ा की जनसंख्या 5000 थी। उस वक्त भयानक सूखा पड़ा था। सारे जल स्त्रोत सूख गए थे। बची थी सिर्फ कपीना धारा। उन दिनों कपीना धारा पर चाय का बगान हुआ करता था। उस धारा के पानी ने लगभग 135 साल पहले पूरे अल्मोड़ा शहर के जीवन की रक्षा की थी। पंडित बद्री दत्त जोशी जिन्होंने बदरिश्वर मंदिर बनाया, ने जिलाधिकारी को जल परियोजना के लिए एक पत्रा लिखा था, जिसमें इस घटना का उल्लेख मिलता है।बल्ढ़ौटी में पांच जलस्त्रोत थे। उस पानी को पहली बार पाइप के जरिए अल्मोड़ा शहर में लाया गया लेकिन उस पानी से अल्मोड़ा की जरूरत पूरी नहीं हुई। कचहरी के पास रम्फा नौला है। वहां जल परियोजना का पानी छोड़ा गया। 1928 में स्याही देवी जल परियोजना आई। स्याही देवी अल्मोड़ा के पास एक बड़ा पहाड़ है। इस पहाड़ को अल्मोड़ा के अभिभावक जैसा माना जाता है। कसार देवी और वानर देवी की पहाड़ी को मिला दें तो इस तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरने की वजह से अल्मोड़ा का मौसम ना अधिक गर्म हो पाता है और ना अधिक ठंडा। लेकिन अब अल्मोड़ा कंक्रीट के जंगल में तब्दील हो गया है।वर्ष 1952 कोसी पेयजल योजना बनी। हर गोविन्द पंत विधानसभा अध्यक्ष थे और गोविन्द वल्लभ पंत मुख्यमंत्राी थे। उस समय डिजल के पंप से पानी खींचकर अल्मोड़ा तक लाया गया। कोसी पेयजल योजना आने के बाद घरों में नल आ गया। घरों में सहजता से पानी उपलब्ध होने की वजह से शहर में नौलों की उपेक्षा हुई। कोसी परियोजना का पानी बंद होने के बाद जरूर लोगों को नौलों का ख्याल आता है। पूरा शहर उसके बाद नौलों धारों की तरफ भागता है।जब व्यक्ति श्मशान में जाता है, उसे थोड़ी देर के लिए वैराग्य महसूस होता है और जैसे ही वह घर लौटता है, उसका वैराग्य पीछे छूट जाता है। अल्मोड़ा में भी नौलों धारों की चिन्ता नगरवासियों को उसी समय तक रहती है, जब तक नल में पानी ना आ जाए। नल में पानी आते ही लोग नौलों का चिन्तन भूल जाते हैं। वैराग्य खत्म होजाताहै।वर्ष 1975 का कुमाऊ गढ़वाल जल संचय संग्रह वितरण अधिनियम है, जो कहता है कि आप किसी भी जल स्त्रोत के 100 मिटर के अंदर कोई झाड़ी, पौधा, पेड़ नहीं काटेंगे। यानि आप ऐसी कोई कार्यवायी नहीं करेगे जिससे उस स्त्रोत को नुक्सान पहुंचता हो। जबकि कुमाऊ क्षेत्रा में ऐसा कोई नौला तलाशना आसान नहीं होगा, जिसका अतिक्रमण नहीं हुआ हो। कई नौलों और धारों को रसूख वाले लोगों ने अपने व्यक्तिगत कब्जे में ले लिया है। एक स्थानीय होटल के कब्जे में ऐसे ही तीन धारे हैं। शहर में सीवर नहीं है और लोगों ने नौलों धारों के साथ अपना सेप्टिक बनाया है। आप सोच सकते हैं कि पूरा अल्मोड़ा पीने के पानी के मामले में किस तरह उस डाल को काटने पर तुला है, जिस पर पूरा शहर बैठा हुआ है।
1563-70 के बीच अल्मोड़ा शहर चंद राजाओं ने विकसित किया। वे सबसे पहले खगमर कोर्ट आए। कोर्ट का अर्थ किला है। यहां आने की खास वजह जल स्त्रोत ही था। यहां पर्याप्त जल स्त्रोत मौजूद था। अब वे नौले खत्म हो गए। 1568 में राजा बालो कल्याणचंद के निधन के बाद उनकी गद्दी पर राजा रुद्रचंद बैठे। राजा रुद्रचंद ने अपने लिए इस पहाड़ी पर मल्ला महल का निर्माण कराया। जो इन दिनों अल्मोड़ा के जिलाधिकारी कार्यालय है।
खगमरकोट और नैल का पोखर जो सिद्ध के नौले के पास है। वहां भी राजा रहे। यह जगह वर्तमान में पल्टन बाजार के पास है। शहर का विस्तार उस समय उत्तर की तरफ हो रहा था। इसी समय मल्ला महल का निर्माण हुआ। गौरतलब है कि मल्ला महल के पूर्वी और पश्चिमी दोनों छोरों पर पानी का पर्याप्त स्त्रोत मौजूद था। जबकि राजाओं के पास नौकर चाकर कारिन्दों की कोई कमी नहीं होती थी। उनका महल कहीं भी बनता तो पानी की कमी नहीं होने पाती। इसके बावजूद राजाओं ने महल/किला बनाते हुए पानी के स्त्रोत का विशेष ख्याल रखा। वैसे अल्मोड़ा के थपलिया में एक राज नौला भी है। इस नौले का नाम राज नौला इसीलिए पड़ा क्योंकि यहां से राजा का पानी जाता था। आज वहां का पानी पीने लायक नहीं बचा, वह प्रदूषित हो चुका है।अल्मोड़ा के प्राकृतिक जल स्त्रोत एक के बाद एक प्रदूषण के शिकार हो रहे हैं। उनका पानी पीने योग्य नहीं बचा। गिनती के नौले और धारे कुमाऊ में बचे हैं, जिनका पानी पीने योग्य है। वर्ष 1947 में देश जब आजाद हुआ, उस समय कुमाऊ क्षेत्रा में ड्रेनेज की जो व्यवस्था थी, सन 2016 में भी हम उस व्यवस्था से एक कदम भी आगे नहीं बढ़े हैं। इतने सालों में कुछ नहीं बदला। उलट ड्रेनेज के साथ जुड़े हुए गदेरे अतिक्रमण के शिकार हो गए हैं। घर बन गए वहां। गदेरों के आस-पास सबसे अधिक नौले मौजूद हैं। गदेरे खत्म किए गए और शहर का सारा गंदा पानी नौलों में जा मिला। सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों से कई बार शहर के जल स्त्रोतों के पानी का परीक्षण हुआ। उसके परिणाम चिन्ताजनक थे। लेकिन इन परिणामों के बाद भी शहर में अपने पीने के पानी को लेकर कोई बहस खड़ी नहीं हुई। जल स्त्रोतों के पुनर्जीवन को लेकर कोई चर्चा खड़ी नहीं हुई। यह समाज के लिए चिन्ता की बात होनी चाहिए थी क्योंकि जब हर तरफ अतिक्रमण करने वालों का कब्जा होगा, फिर अल्मोड़ा का गंदा पानी किस रास्ते बाहर जाएगा? अल्मोड़ा के घर-घर में सेप्टिक टैंक पहुंच गया लेकिन वहां इकट्ठा हो रहे मल मूत्रा के निपटारे के लिए शहर के पास कोई कार्ययोजना दिखती नहीं।
यह सवाल है कि नौलों को पुनर्जीवित करने के लिए क्या प्रयास किया जा सकता है? यदि वास्तव में इस विषय को लेकर कुमाऊ का समाज गम्भीर है तो इसके लिए सबसे पहले नौले के कैचमेन्ट एरिया को सुरक्षित करना होगा। ऐसा करने से नौले में पानी बढ़ेगा। लेकिन जिस अल्मोड़ा शहर को यहां के नागरिकों ने कंक्रीट का जंगल बनाया है, वहां के कैचमेन्ट के क्षेत्रा को सुरक्षित करने और आगे सुरक्षित रखने की बात वहां का समाज कैसे करेगा?
अब बात करते है जल स्त्रोत की। शहर में ड्रेनेज की व्यवस्था नहीं है, यह बात पूरा शहर जानता है। उसके बावजूद पूरे शहर सेप्टिक टैंकों से भरा हुआ है। इसे आम तौर पर लोगों ने आंगन में ही बनवाया है। उस टैंक में इकट्ठा हो रहे मल मूत्रा की कोई निकासी नहीं है। उसका पानी रिस कर मिट्टी के रास्ते भू जल में मिल रहा है। यह बात अल्मोड़ा के लोगों को भी समझनी होगी कि उस पानी से उनके नौलों-धारों में आ रहा पानी अछूता नहीं रह सकता है। प्रदूषित जल की बात परीक्षणों से भी साबित हो चुकी है।नौलों और धारों की उपेक्षा के कारण अल्मोड़ा जिस पानी की संकट से गुजर रहा है, यदि आने वाले समय में शहर इस समस्या से बाहर निकलना चाहता है तो इसका हल जनसहभागिता से ही निकल सकता है। जनसहभागिता से ही हालात में बदलाव आ सकता है। सरकारी परियोजनाएं एक हजार करोड़ की भी आ जाएं तो इस समस्या से कुमाऊ बाहर नहीं आ सकता। समाधान के लिए पानी के प्रति समाज में जागृति का आना जरूरी है। पानी का मोल जब तक कुमाऊ नहीं समझेगा और पानी की गुणवत्ता को लेकर वह जागरूक नहीं होगा, तब तक उसे इस बात की समझ नहीं होगी कि पानी से जुड़ी सभी बीमारियों के जड़ में प्रदूषित पानी है। और इससे बचाव के लिए परिवेश को साफ रखना होगा।पानी की सफाई के संकल्प से पहले पूरे अल्मोड़ा को मन की सफाई करनी होगी। मन का मैल साफ करना होगा। वहां मैल होगा तो असर नौलो और धारों की पानी में भी साफ दिखेगा। इस पूरी प्रक्रिया में सरकार की भूमिका नेतृत्व की नहीं बल्कि एक सहयोगी की होनी चाहिए। जहाँ तक धारों-नौलों के इतिहास की बात है, पनत्युरा सुरनकोट व गंगोलीहाट का नौला उत्तराखण्ड का सबसे प्राचीन नौला माना जाता है। आज जलवायु परिवर्तन व वनो का त्यधिक दोहन का दुष्प्रभाव पहाड़ों की जैव विविधता पर पड़ने सम्पूर्ण हिमालयी क्षेत्र में धारे, पंदेरे, मगरे और नौले सूख रहे हैं और इसके लिये केवल और केवल मानव हस्तक्षेप उत्तरदाई है । नौला मित्रो का संगठन नौला फाउंडेशन सुदूर रिमोट गांव के क्षेत्रीय लोगो का विकास एवं उनकी सहभागिता से  जल  सरंक्षण के साथ साथ जैव विधतता को भी को बढ़ावा देने का हर संभव प्रयास कर रहा हैं जिसके लिए फाउंडेशन क्षेत्र में विभिन्न सामाजिक समरसता एवं चिंतन संवाद के जरिये गगास घाटी के लोगो के जीवन पर जलवायु परिवर्तन से होने वाले प्रभाव पर एक व्यापक नीति पर कार्य कर रहा हैं जिसका परिणाम जल्द ही सामने आने लगेगा । नौला फाउंडेशन का एकमात्र उद्देश्य सामुदायिक सहभागिता से परम्परागत जल सरंक्षण पद्धति को वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाकर पारम्परिक जल स्रोत नौले – धारे को उनका सम्मान वापस दिलाना हैं उनकी पहचान वापस दिलाना हैं और गांव वालो शुद्ध मिनरल पेयजल मुहैया करना हैं । फाउंडेशन ने सामुदायिक सहभागिता से गगास घाटी के सुन्दर गांव थामण में एक पूरी तरह से सुख चुके नौले को पारम्परिक जल सरंक्षण पद्धति को अपनाकर पुनर्जीवित करने में सफलता पायी हैं और पानी भी शुद्ध हैं क्योकि मानवीय हस्तक्षेप नहीं के बराबर हैं और फाउंडेशन की असली चुनौती अल्मोड़ा शहर के पूरी तरह से प्रदूषित हो चुके भूजल व नौले धारों के पानी को शुद्ध करने के लिए तैयार होना पड़ेगा तभी असली परीक्षा होगी क्योकि प्रशासन तो इनके पानी को अशुद्ध करने में अभी तक असमर्थ हैं जिससे स्थानीय लोगो को गर्मियों में पानी की किल्लत से जुझना पड़ता हैं I पुरातत्व विभाग के अनुसार दक्षिण भारतीय शैली में निर्मित इस मंदिर की स्थापना नौवीं शताब्दी में कत्यूरी शासकों ने की थी। हालांकि मंदिर परिसर की प्रतिमाएं 9वीं – 13वीं शती ई. के मध्य की हैं। भारत सरकार के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने अब इस मंदिर को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया है। इससे पूर्व यह मंदिर पुरातत्व विभाग अल्मोड़ा के संरक्षण में था।इस मन्दिर की पूजा उच्च कुल के भट्ट ब्राह्मण करते थे। जिस कारण इस गाँव का नाम भट्टीगाँव पड़ा। किन्तु शेर के आतंक के कारण ब्राह्मणों ने ये गाँव छोड़ दिया। भट्ट ब्राह्मणो के कारण इस गाँव का नाम भट्टीगाँव पड़ गया।इस मन्दिर मे कुछ शिलालेख भी मिले थे। जिसे अभी पूर्ण रूप से कोई समझ नही पाया है किन्तु उस शिलालेख को अम्बादत्त पाण्डे जी (पाटिया, अल्मोड़ा) ने करीब 100  वर्ष पहले पढ़ने के बाद ये सुनिश्चित किया की यह मन्दिर लगभग कत्यूरी शासन काल मे बना था।इसके साथ पूर्व मे एक नौला (कुँआ) है जिसे दियारियानौला कहा जाता है, जो की अब नष्ट हो चुका है और इसके साथ दक्षिण मे कालसण का मन्दिर है।इस मंदिर परिसर मे पहले उत्तराखंड का  वाद्य यंत्र ढोल लाना भी वर्जित था। इसके साथ ही महिलाओं की छाया गर्भग्रह में न पड़ने देने के कारण महिलाओं का गर्भग्रह के सामने आना भी वर्जित था।एक रोचक बात यह है की आज से करीब 40-50 साल पहले अगर इस मन्दिर के परिसर के आस पास कुछ अपवित्रता होती थी तो इसके निकट पानी के स्रोत के आस पास नाग प्रकट हो जाते थे। कभी कभी वो नाग भट्टीगाँव के लोगो के पानी के गागरो मे उनके घरो तक पहुँच जाते थे। फिर लोग उन्हे वही वापस छोड़ जाते थे। यहाँ एक दूध के समान सफेद सर्प भी है।  जो सिर्फ भाग्यशाली लोगो को ही दिखता है। लेकिन आजकल समाज मे फैली बुराईयो के कारण और बढती हुई समाजिक गन्दगी के चलते यह शक्ति विलुप्त हो गयी है। मंदिर परिसर से लगभग 1किलोमीटर दूर निकटवर्ती ग्राम बनकोट से वर्ष 1989 में आठ ताम्र मानवाकृतियां प्राप्त होना भी इस क्षेत्र की एक महत्वपूर्ण खोज है। उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में सदियों से लोग पीने के पानी के लिए नौले का उपयोग करते आये हैं. नौले पहाड़ों में भूमिगत जल स्रोतों के संरक्षण की एक बहुत पुरानी परंपरा है, जिसे विशेष आकार और तकनीक से बनाया जाता था. पहाड़ी सभ्यता के लोग इन नौले में एकत्रित शुद्ध जल को पीने के पानी के रूप में उपयोग करते थे, जिस पर पूरे गांव की आबादी निर्भर रहती थी. उत्तराखंड में इन नौलों धारों का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्व है. यहां पर पहाड़ी इलाकों में कई नौले अत्यंत प्राचीन हैं.उत्तराखंड में विवाह और अन्य विशेष अवसरों पर नौलों धारों में जल पूजन की भी सांस्कृतिक परंपरा है, जो एक तरह से मानव जीवन में जल के महत्व को इंगित करता है. अब जरूरत है, इस पुराने परंपरा को जीवंत बनाए रखने के लिए इसका संरक्षण करने का. ऐसा करने से न सिर्फ पार्यावरण बचेगा. बल्कि पुरानी हिमलायी परंपरा भी जीवित रहेगी. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*

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Uttarakhand Samachar

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