ब्यूरो रिपोर्ट
देहरादून। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के शोध प्रभाग की ओर से आज, शुक्रवार, 17 नवंबर, 2023 पूर्वाह्न 11ः00 -1ः30 बजे तक संस्थान के सभागार में एक विशेष अकादमिक विमर्श का सत्र आयोजित किया गया। इसका विषय था अद्यतन शोध के परिप्रेक्ष्य में दक्षिण एशिया के भाषाई मानचित्र में उत्तराखण्ड की स्थिति। इस विमर्श में मुख्य वक्ता के तौर पर सुपरिचित भाषाविद् और ओस्लो विश्वविद्यालय के संस्कृति अध्ययन और ओरिएंटल भाषा विभाग में दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रोफेसर डाॅ. क्लॉस पीटर जोलर, भाषाविज्ञान विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व प्रमुख और प्रोफेसर, कविता रस्तोगी उपस्थित रहीं। इस विशेष अकादमिक विमर्श में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सलाहकार और पूर्व कुलपति कुमाऊं विश्वविद्यालय प्रोफे. बी के जोशी तथा इतिहासकार व पुरातत्वविद प्रोफे. महेश्वर प्रसाद जोशी,इतिहासकार सहित देहरादून के अनेक शिक्षाविद और भाषा के जानकार लोगों ने इस चर्चा में प्रतिभाग किया। इस अवसर पर क्लॉस पीटर जोलर की पुस्तक ‘इंडो-आर्यन एन्ड लिंगुस्टिक हिस्ट्री एण्ड प्रीहिस्ट्री ऑफ नार्थ इंडिया‘, डाॅ. कविता रस्तोगी द्वारा सम्पादित ‘राजी-हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश‘ और ‘राजी कविताएं‘ (राजी समुदाय में प्रचलित) संपादन: कविता रस्तोगी एवं माद्री कोकोटी का लोकार्पण भी किया गया।प्रारंभ में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सलाहकार प्रोफे. बी के जोशी ने उपस्थित अथितियों और प्रतिभगियों का स्वागत किया और संस्थान के अकादमिक व शोध कार्यों का परिचय दिया। वक्ताओं ने अपने वक्तव्य में कहा कि किसी भी क्षेत्र की भाषा का विलुप्त होना उस क्षेत्र के समाज -संस्कृति का विलुप्तिकरण जैसा ही होता है। दोनों वक्ताओं ने स्लाइड शो के माध्यम से अपने शोध कार्यों के अनुभव साझा किए।क्लास पीटर ज़ोलर ने कहा कि इंडो-आर्यन एन्ड लिंगुस्टिक हिस्ट्री एन्ड प्रीहिस्ट्री ऑफ नार्थ इंडिया पुस्तक उत्तर भारत में इंडो-आर्यन के उद्भव और प्रसार पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।200 से अधिक इंडो-आर्यन भाषाओं और बोलियों के विश्लेषण के आधार पर, यह पुस्तक साबित करती है कि उत्तर भारत में इंडो-आर्यन बोलने वालों का एक से अधिक बार प्रवास हुआ था।जिसने आधुनिक इंडो-आर्यन भाषाओं पर स्पष्ट निशान छोड़े। जब वैदिक भाषी इंडो-आर्यन उत्तरी भारत में पहुंचे, तो वहां पहले से ही अन्य इंडो-आर्यन बोली बोलने वाले मौजूद थे जो वैदिक से थोड़ी अधिक पुरातन थीं। इन कुछ अधिक पुरातन बोलियों की छाप मुख्य रूप से हिमालय और हिंदुकुश के बीच परिधीय इंडो-आर्यन भाषाओं में पाई जाती है। इसलिए उन्हें बाह्य भाषाएँ कहा जाता है, जबकि वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत (जैसे पाली और हिंदी) के वंशजों को आंतरिक भाषाएँ कहा जाता है। बाह्य और आंतरिक भाषाएँ न केवल पुरातनता की दृष्टि से भिन्न हैं, बल्कि उनका विकास भी अलग-अलग हुआ है, विशेषकर ध्वनि विज्ञान में। यह पुस्तक प्रथम इंडो-आर्यन के आगमन से पहले उत्तर भारत में भाषाई स्थिति के प्रश्न को भी रेखांकित करती है।यह परिधीय भाषाएं हैं, हालांकि कई छोटी तिब्बती-बर्मी हिमालयी भाषाओं के साथ, जिन्होंने सबसे समृद्ध भाषाई आकड़ों को संरक्षित किया है, यह दर्शाता है कि इंडो-आर्यन के आगमन से पूर्व प्रागैतिहासिक उत्तर भारत में ऑस्ट्रो-एशियाई भाषाओं का प्रभुत्व था। डॉ रस्तोगी ने कहा कि राजी समुदाय के क्षेत्र सिमटने के कारण राजी भाषा विलुप्ति के कगार पर है और जल्द ही यह मात्र घरेलू वातावरण तक ही सीमित रह जायेगी और वह भी लंबे समय तक नहीं, जब तक कि बच्चे स्कूल में हिंदी और अन्य भाषाओं से परिचित न हो जाएं। इस भाषा को लिपि देने और अनगिनत क्षेत्रीय यात्राएँ करने के बाद प्रोफेसर कविता रस्तोगी ने समुदाय के लोगों की मदद से इस लुप्तप्राय भाषा का एक शब्दकोश संकलित किया है। यह एक बहुभाषी, बहुलिपिबद्ध सचित्र शब्दकोश है, जो व्याकरण संबंधी जानकारी, व्युत्पत्ति तथा अधिकांश शब्दों के उपयोग के साथ हिंदी व अंग्रेजी अर्थ प्रदान करता है। उन्होंने आगे कहा कि राजी कविताएं पुस्तिका में दरअसल राजी समुदाय में प्रचलित कविताएं संकलित हैं। समय के साथ राजी समुदाय ने अपनी कहानियाँ, गीत और कविताएँ बिसरा दी हैं। राजी पुनरोद्धार के दौरान, डॉ. कविता रस्तोगी और उनकी टीम ने राजी समुदाय के साथ उनके बच्चों के लिए राजी में भाषाई संसाधन विकसित करने के लिए कुछ कार्यशालाएँ आयोजित कीं। पहले चरण में उन्होंने पाँच कहानियाँ बनाईं जो 2019 में प्रकाशित हुईं। कोविड के बाद, उन्होंने दुबारा शुरुआत की और कार्यशाला में भाग लेने वाले सदस्यों से कुछ कविताएँ और गीत बनवाये। लखनऊ स्थित गैर सरकारी संगठन सोसायटी फॉर एन्डेंजर्ड एंड लेसर-नोन लैंग्वेजेज ने इन कविताओं को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है। जिसे राजी समुदाय के बच्चों के मध्य वितरित करने की उनकी योजना है।उल्लेखनीय है कि क्लॉस पीटर जोलर एक प्रसिद्ध भाषाविद् और ओस्लो विश्वविद्यालय के संस्कृति अध्ययन और ओरिएंटल भाषा विभाग में दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रोफेसर हैं । उनकी शोध अभिरुचियों में हिंदी साहित्य और भाषाविज्ञान , पश्चिमी हिमालय ( पश्चिमी पहाड़ी ) और उत्तरी पाकिस्तान (दर्दिक) की भाषाओं समेत उन क्षेत्रों की सांस्कृतिक परंपराएं और नृवंशविज्ञान के साथ ही रोमानी भाषाविज्ञान शामिल हैं। उन्हें सिंधु कोहिस्तानी और बंगानी के दस्तावेजीकरण और इंडो-आर्यन भाषाओं के भाषाई इतिहास पर उनके व्यापक व महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाना जाता है। प्रोफे. डाॅ. क्लॉस पीटर जोलर इंडो-आर्यन के उपवर्गीकरण की आंतरिक-बाहरी परिकल्पना का एक विषय के रुप में समर्थन करते हैं, जिसका उन्होंने व्यापक तौर से अध्ययन किया हुआ है ।पूर्व प्रमुख और प्रोफेसर, भाषाविज्ञान विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय की कविता रस्तोगी ने भारत केसंरचनात्मक भाषाविज्ञान, सामान्य भाषाविज्ञान, विरोधाभासी भाषाविज्ञान और भाषा दस्तावेजीकरण और पुनरुद्धार के क्षेत्रों में कार्य किया है। हिंदी भाषा में भाषाविज्ञान के तकनीकी शब्दों का एक शब्दकोश के साथ ही उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनके 50 से अधिक शोध पत्र प्रमुख भाषाविज्ञान के जर्नल्स में प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने सात प्रमुख शोध परियोजनाओं का सफलतापूर्वक संचालन किया है। वर्ष 2011 में उन्होंने लुप्तप्राय और कम ज्ञात भाषाओं के लिए एक गैर सरकारी संस्था की स्थापना की है जो विलुप्त भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण की दिशा में काम करती है। डाॅ.कविता रस्तोगी कई संस्थाओं में आजीवन सदस्य व सलाहकार सदस्य के रुप में नामित हैं। आज के इस महत्वपूर्ण अकादमिक विमर्श में रमाकांत बेजवाल, भारती पाण्डे,लक्ष्मी कांत जोशी, कमला पंत, डाॅ. राजेश पाल,डॉ.नंदकिशोर हटवाल, प्रहलाद सिंह रावत, रमेश सिंह चैहान,डाॅ. विजय बहुगुणा, इतिहासविद डाॅ.सुनील सक्सेना, शंकर सिंह भाटिया , चन्द्रशेखर तिवारी, सहित अनेक शिक्षाविद और भाषा प्रेमी उपस्थित थे।
ब्यूरो रिपोर्ट
देहरादून। दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के शोध प्रभाग की ओर से आज, शुक्रवार, 17 नवंबर, 2023 पूर्वाह्न 11ः00 -1ः30 बजे तक संस्थान के सभागार में एक विशेष अकादमिक विमर्श का सत्र आयोजित किया गया। इसका विषय था अद्यतन शोध के परिप्रेक्ष्य में दक्षिण एशिया के भाषाई मानचित्र में उत्तराखण्ड की स्थिति। इस विमर्श में मुख्य वक्ता के तौर पर सुपरिचित भाषाविद् और ओस्लो विश्वविद्यालय के संस्कृति अध्ययन और ओरिएंटल भाषा विभाग में दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रोफेसर डाॅ. क्लॉस पीटर जोलर, भाषाविज्ञान विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व प्रमुख और प्रोफेसर, कविता रस्तोगी उपस्थित रहीं। इस विशेष अकादमिक विमर्श में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सलाहकार और पूर्व कुलपति कुमाऊं विश्वविद्यालय प्रोफे. बी के जोशी तथा इतिहासकार व पुरातत्वविद प्रोफे. महेश्वर प्रसाद जोशी,इतिहासकार सहित देहरादून के अनेक शिक्षाविद और भाषा के जानकार लोगों ने इस चर्चा में प्रतिभाग किया। इस अवसर पर क्लॉस पीटर जोलर की पुस्तक ‘इंडो-आर्यन एन्ड लिंगुस्टिक हिस्ट्री एण्ड प्रीहिस्ट्री ऑफ नार्थ इंडिया‘, डाॅ. कविता रस्तोगी द्वारा सम्पादित ‘राजी-हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश‘ और ‘राजी कविताएं‘ (राजी समुदाय में प्रचलित) संपादन: कविता रस्तोगी एवं माद्री कोकोटी का लोकार्पण भी किया गया।प्रारंभ में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सलाहकार प्रोफे. बी के जोशी ने उपस्थित अथितियों और प्रतिभगियों का स्वागत किया और संस्थान के अकादमिक व शोध कार्यों का परिचय दिया। वक्ताओं ने अपने वक्तव्य में कहा कि किसी भी क्षेत्र की भाषा का विलुप्त होना उस क्षेत्र के समाज -संस्कृति का विलुप्तिकरण जैसा ही होता है। दोनों वक्ताओं ने स्लाइड शो के माध्यम से अपने शोध कार्यों के अनुभव साझा किए।क्लास पीटर ज़ोलर ने कहा कि इंडो-आर्यन एन्ड लिंगुस्टिक हिस्ट्री एन्ड प्रीहिस्ट्री ऑफ नार्थ इंडिया पुस्तक उत्तर भारत में इंडो-आर्यन के उद्भव और प्रसार पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।200 से अधिक इंडो-आर्यन भाषाओं और बोलियों के विश्लेषण के आधार पर, यह पुस्तक साबित करती है कि उत्तर भारत में इंडो-आर्यन बोलने वालों का एक से अधिक बार प्रवास हुआ था।जिसने आधुनिक इंडो-आर्यन भाषाओं पर स्पष्ट निशान छोड़े। जब वैदिक भाषी इंडो-आर्यन उत्तरी भारत में पहुंचे, तो वहां पहले से ही अन्य इंडो-आर्यन बोली बोलने वाले मौजूद थे जो वैदिक से थोड़ी अधिक पुरातन थीं। इन कुछ अधिक पुरातन बोलियों की छाप मुख्य रूप से हिमालय और हिंदुकुश के बीच परिधीय इंडो-आर्यन भाषाओं में पाई जाती है। इसलिए उन्हें बाह्य भाषाएँ कहा जाता है, जबकि वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत (जैसे पाली और हिंदी) के वंशजों को आंतरिक भाषाएँ कहा जाता है। बाह्य और आंतरिक भाषाएँ न केवल पुरातनता की दृष्टि से भिन्न हैं, बल्कि उनका विकास भी अलग-अलग हुआ है, विशेषकर ध्वनि विज्ञान में। यह पुस्तक प्रथम इंडो-आर्यन के आगमन से पहले उत्तर भारत में भाषाई स्थिति के प्रश्न को भी रेखांकित करती है।यह परिधीय भाषाएं हैं, हालांकि कई छोटी तिब्बती-बर्मी हिमालयी भाषाओं के साथ, जिन्होंने सबसे समृद्ध भाषाई आकड़ों को संरक्षित किया है, यह दर्शाता है कि इंडो-आर्यन के आगमन से पूर्व प्रागैतिहासिक उत्तर भारत में ऑस्ट्रो-एशियाई भाषाओं का प्रभुत्व था। डॉ रस्तोगी ने कहा कि राजी समुदाय के क्षेत्र सिमटने के कारण राजी भाषा विलुप्ति के कगार पर है और जल्द ही यह मात्र घरेलू वातावरण तक ही सीमित रह जायेगी और वह भी लंबे समय तक नहीं, जब तक कि बच्चे स्कूल में हिंदी और अन्य भाषाओं से परिचित न हो जाएं। इस भाषा को लिपि देने और अनगिनत क्षेत्रीय यात्राएँ करने के बाद प्रोफेसर कविता रस्तोगी ने समुदाय के लोगों की मदद से इस लुप्तप्राय भाषा का एक शब्दकोश संकलित किया है। यह एक बहुभाषी, बहुलिपिबद्ध सचित्र शब्दकोश है, जो व्याकरण संबंधी जानकारी, व्युत्पत्ति तथा अधिकांश शब्दों के उपयोग के साथ हिंदी व अंग्रेजी अर्थ प्रदान करता है। उन्होंने आगे कहा कि राजी कविताएं पुस्तिका में दरअसल राजी समुदाय में प्रचलित कविताएं संकलित हैं। समय के साथ राजी समुदाय ने अपनी कहानियाँ, गीत और कविताएँ बिसरा दी हैं। राजी पुनरोद्धार के दौरान, डॉ. कविता रस्तोगी और उनकी टीम ने राजी समुदाय के साथ उनके बच्चों के लिए राजी में भाषाई संसाधन विकसित करने के लिए कुछ कार्यशालाएँ आयोजित कीं। पहले चरण में उन्होंने पाँच कहानियाँ बनाईं जो 2019 में प्रकाशित हुईं। कोविड के बाद, उन्होंने दुबारा शुरुआत की और कार्यशाला में भाग लेने वाले सदस्यों से कुछ कविताएँ और गीत बनवाये। लखनऊ स्थित गैर सरकारी संगठन सोसायटी फॉर एन्डेंजर्ड एंड लेसर-नोन लैंग्वेजेज ने इन कविताओं को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है। जिसे राजी समुदाय के बच्चों के मध्य वितरित करने की उनकी योजना है।उल्लेखनीय है कि क्लॉस पीटर जोलर एक प्रसिद्ध भाषाविद् और ओस्लो विश्वविद्यालय के संस्कृति अध्ययन और ओरिएंटल भाषा विभाग में दक्षिण एशियाई अध्ययन के प्रोफेसर हैं । उनकी शोध अभिरुचियों में हिंदी साहित्य और भाषाविज्ञान , पश्चिमी हिमालय ( पश्चिमी पहाड़ी ) और उत्तरी पाकिस्तान (दर्दिक) की भाषाओं समेत उन क्षेत्रों की सांस्कृतिक परंपराएं और नृवंशविज्ञान के साथ ही रोमानी भाषाविज्ञान शामिल हैं। उन्हें सिंधु कोहिस्तानी और बंगानी के दस्तावेजीकरण और इंडो-आर्यन भाषाओं के भाषाई इतिहास पर उनके व्यापक व महत्वपूर्ण कार्य के लिए जाना जाता है। प्रोफे. डाॅ. क्लॉस पीटर जोलर इंडो-आर्यन के उपवर्गीकरण की आंतरिक-बाहरी परिकल्पना का एक विषय के रुप में समर्थन करते हैं, जिसका उन्होंने व्यापक तौर से अध्ययन किया हुआ है ।पूर्व प्रमुख और प्रोफेसर, भाषाविज्ञान विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय की कविता रस्तोगी ने भारत केसंरचनात्मक भाषाविज्ञान, सामान्य भाषाविज्ञान, विरोधाभासी भाषाविज्ञान और भाषा दस्तावेजीकरण और पुनरुद्धार के क्षेत्रों में कार्य किया है। हिंदी भाषा में भाषाविज्ञान के तकनीकी शब्दों का एक शब्दकोश के साथ ही उनकी सात पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनके 50 से अधिक शोध पत्र प्रमुख भाषाविज्ञान के जर्नल्स में प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने सात प्रमुख शोध परियोजनाओं का सफलतापूर्वक संचालन किया है। वर्ष 2011 में उन्होंने लुप्तप्राय और कम ज्ञात भाषाओं के लिए एक गैर सरकारी संस्था की स्थापना की है जो विलुप्त भाषाओं की सुरक्षा और संरक्षण की दिशा में काम करती है। डाॅ.कविता रस्तोगी कई संस्थाओं में आजीवन सदस्य व सलाहकार सदस्य के रुप में नामित हैं। आज के इस महत्वपूर्ण अकादमिक विमर्श में रमाकांत बेजवाल, भारती पाण्डे,लक्ष्मी कांत जोशी, कमला पंत, डाॅ. राजेश पाल,डॉ.नंदकिशोर हटवाल, प्रहलाद सिंह रावत, रमेश सिंह चैहान,डाॅ. विजय बहुगुणा, इतिहासविद डाॅ.सुनील सक्सेना, शंकर सिंह भाटिया , चन्द्रशेखर तिवारी, सहित अनेक शिक्षाविद और भाषा प्रेमी उपस्थित थे।