हरीश चन्द्र अन्डोला
प्रदेश भर के 400 से ज्यादा प्राकृतिक जल स्रोतों पर संकट मंडरा रहा है. इन प्राकृतिक स्रोतों उत्तराखंड में जलस्रोतों पर मंडरा रहा संकटमें धीरे धीरे पानी कम हो रहा है. गर्मियों में ये परेशानी और भी ज्यादा बढ़ गई है. देहरादून का शिखर फॉल भी ऐसे ही जल स्रोतों में से एक है. शिखर फॉल देहरादून के कई इलाकों की प्यास बुझाता है. बढ़ते तापमान और भीषण गर्मी के कारण शिखर फॉल में पानी की कमी होने लगी है. शिखर फॉल देहरादून शहर के करीब 13 किलोमीटर है. शिखर फॉल रिस्पना नदी को पानी देने का काम करता है. इस झरने तक पहुंचने के लिए करीब 2 किलोमीटर की पैदल ट्रैकिंग करनी पड़ती है. यह क्षेत्र लंबे समय से पर्यटक स्थल के रूप में भी जाना जाता है. बड़ी संख्या में यहां पर्यटकों का आना जाना लगा रहता है. अब धीरे धीरे शिखर फॉल में पानी की उपलब्धता कम हो रही है. फिलहाल इसकी बड़ी वजह लंबे समय से बारिश का न होना बताया जा रहा है. यहां ना केवल झरने से गिरने वाला पानी कम हो रहा है बल्कि इसके आगे पत्थरों के बीच से कभी लबालब होकर गुजरने वाला पानी भी अब गायब सा होता दिख रहा है. लोगों की मानें तो धीरे-धीरे स्रोत सूख रहे हैं. इसका कारण यह भी है कि पहले चाल खाल तैयार किए जाते थे. जिससे अंडरग्राउंड वॉटर रिचार्ज होता रहता था. अब जंगलों में आग लगने जैसी घटनाएं हो रही हैं, इस पर लोगों ने भी काम करना बंद कर दिया है. साथ ही तमाम विकास कार्यों में भी प्राकृतिक स्त्रोतों को नुकसान हो रहा है. शिखर फॉल तो केवल एक उदाहरण है, प्रदेश में ऐसे करीब 460 जल स्रोत हैं जो सूख रहे हैं. किसी जल स्रोत में पानी की मात्रा 50% तक कम हो गई है तो किसी में 80% तक भी पानी कम हुआ है. अधिकारी शिखर फॉल को लेकर भी यह स्पष्ट कर चुके हैं कि इससे मिलने वाला 15 एमएलडी पानी अब केवल 10 एमएलडी तक ही सीमित रह गया है. यह स्थिति अब देहरादून के कई इलाकों में पेयजल की परेशानी को बढ़ा रही है. सूखते जल स्रोतों को जीवित रखने के लिए सरकार की तरफ से विशेषज्ञों की मौजूदगी वाली स्प्रिंगशेड एंड रिवर रिजूवेनेशन एजेंसी (सारा) का गठन किया गया. इसकी तरफ से सरकार को अध्ययन के आधार पर सुझाव भी दिए जा रहे हैं, इसके बाद भी प्रदेश में जल स्रोत सूख रहे हैं. जल संस्थान की तरफ से भी जल स्रोतों में सूख रहे पानी की भी स्थिति के आंकड़े एजेंसी को दिये गये हैं. जिन 460 जल स्रोतों में पानी कम होने की बात की जा रही है उनका भी एजेंसी के माध्यम से अध्ययन किया जा रहा है. जल्द ही अध्ययन के आधार पर सुझाव भी प्रस्तुत किए जाएंगे. ग्लोबल वार्मिंग की वजह से इस बार मौसम में काफी बदलाव देखा जा रहा है. काफी वक्त से बारिश नहीं होने के कारण भीषण गर्मी से भी लोगों को जूझना पड़ रहा है. इसके लिए अंधाधुन पेड़ों का कटान और पहाड़ों पर बेतरतीब बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य को भी वजह माना जा रहा है. मौजूद आंकड़ों के अनुसार पौड़ी में 72, चमोली में 69, टिहरी में 37, उत्तरकाशी में 36, देहरादून में 31, रुद्रप्रयाग में 18, बागेश्वर में 21, चंपावत में 19, पिथौरागढ़ में 47, अल्मोड़ा में 92, और नैनीताल में 35 जल स्रोतों का पानी कम हुआ है. उधर दूसरी तरफ प्रदेश में 400 से ज्यादा बस्तियां ऐसी हैं जहां पानी का संकट खड़ा हो गया है. राज्य और केंद्र में सत्ता रही दोनों दावे करते रही है कि यह स्थिति बदलेगी, लेकिन एक हज़ार से ज़्यादा छोटी-बड़ी नदियों वाले इस पहाड़ी राज्य में गर्मियां आते ही लोगों को पानी के लिए भटकना पड़ता है. हालत यह है कि प्रशासनिक लापरवाही और दीर्घकालिक योजनाओं के अभाव में गर्मियां आते ही उत्तराखंड में पानी के लिए हाहाकार मच जाता है. हर साल तस्वीर एक जैसी ही होती है और इस बार भी कोई हालत में कोई बदलाव आता नहीं दिख रहा है. लेकिन ये दावे और उत्तराखंड में पानी की दिक्कतें राज्य बनने के बाद से बढ़ी ही हैं. इसकी बड़ी वजह यह भी है कि राज्य बनने के बाद से तेज और अनियोजित निर्माण योजनाओं की वजह से पहाड़ के प्राकृतिक जल स्रोतों को बड़ा नुक़सान हुआ है. इसके अलावा घर तक नल से पानी मिलने की वजह से स्थानीय निवासी भी प्राकृतिक जल स्रोतों के सरंक्षण के प्रति लापरवाह हुए हैं. ऐसे में पानी के गहराते संकट की वजह से आबादी का बोझ मैदानी इलाकों पर बढ़ रहा है और वहां भी जलसंकट बढ़ रहा है. रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून” रहीम ने आज से सैकड़ों साल पहले ये बात समझ ली थी, कि पानी का होना कितना जरूरी है। हालांकि रहीम के समय भी सदा नीरा गंगा, यमुना जैसी नदियां बहती थीं, फिर भी उन्होंने पानी की महत्ता समझ ली थी। खैर पानी की जरूरत और किल्लत की संभावना को देखते हुए कई विश्लेषक यहां तक कह रहे हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये होगा। हालांकि दुनिया के सभ्य इंसान किसी भी चीज़ के लिये युद्ध नहीं चाहते, फिर पानी पिलाना तो धर्म का कार्य माना गया है। तो फिर ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर कैसे इस युद्ध को रोका जाय? जाहिर है अभी पानी बनाने वाली तकनीकी चलन में नहीं है। समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने की तकनीक कुछ देशों में जरूर है, परंतु बहुत ही ख़र्चीला होने के कारण गरीब देशों की हैसियत से बाहर की चीज़ है। घूम फिरकर वही प्रश्न उठता है कि आखिर पानी की किल्लत कैसे दूर किया जाये, ताकि सभी को समान रूप से आवश्यकतानुसार न केवल पानी उपलब्ध कराया जा सके, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए भी पानी को बचाया जा सके इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।