डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
ककड़ी वैज्ञानिक नाम कुकुमिस मेलो वैराइटी यूटिलिसिमय ज़ायद की एक प्रमुख फसल है। इसको संस्कृत में कर्कटी तथा मारवाडी भाषा में वालम काकरी कहा जाता है। यह कुकुर बिटेसी वंश के अंतर्गत आती है। ककड़ी की उत्पत्ति भारत से हुई। इसकी खेती की रीति बिलकुल तरोई के समान है, केवल उसके बोने के समय में अंतर है। यदि भूमि पूर्वी जिलों में हो, जहाँ शीत ऋतु अधिक कड़ी नहीं होती, तो अक्टूबर के मध्य में बीज बोए जा सकते हैं, नहीं तो इसे जनवरी में बोना चाहिए। ऐसे स्थानों में जहाँ सर्दी अधिक पड़ती हैं, इसे फरवरी और मार्च के महीनों में लगाना चाहिए। इसकी फसल बलुई दुमट भूमियों से अच्छी होती है। इस फसल की सिंचाई सप्ताह में दो बार करनी चाहिए। ककड़ी में सबसे अच्छी सुगंध गरम शुष्क जलवायु में आती है। इसमें दो मुख्य जातियाँ होती हैं। एक में हलके हरे रंग के फल होते हैं तथा दूसरी में गहरे हरे रंग के। इनमें पहली को ही लोग पसंद करते हैं। ग्राहकों की पसंद के अनुसार फलों की चुनाई तरुणावस्था में अथवा इसके बाद करनी चाहिए। इसकी मध्य उपज लगभग ७५ मन प्रति एकड़ है।
हिमालय में जड़ी. बूटियों का विशाल भण्डार है, जो यहां के लोगों की आजीविका का बड़ा स्रोत हो सकता है। लेकिन प्रायः देखने में आया है कि जड़ी.बूटी उत्पादकों को अधिकांश निराशा ही हाथ लगी है, पहाड़ी ककड़ी का उत्पादन पर्वतीय क्षेत्रों में बिना किसी रासायनिक खाद तथा अन्य कीटनाशक की सहायता से किया जाता है जिसके कारण इसकी अत्यधिक मांग रहती है। पहाड़ी ककड़ी की कीमत मैदानी क्षेत्रों में उगायी जाने वाली ककडी से अधिक होने के बाद भी बाजार में ज्यादा पसंद की जाती है। उत्तराखण्ड के कुमाऊं तथा गढवाल क्षेत्रों में पहाड़ी ककड़ी का खूब उत्पादन किया जाता है, जो कि स्थानीय काश्तकारों को आर्थिकी का मजबूत विकल्प है। पहाड़ी ककड़ी में प्राकृतिक मिनरल्स तथा विटामिन्स प्रचूर मात्रा में हाने के कारण स्थानीय लोगों द्वारा कृषि कार्यों के दौरान खेतों में एक ऊर्जा के विकल्प में खूब पंसद किया जाता है। पहाड़ी ककड़ी का प्रदेशभर में अच्छा उत्पादन किया जाना चाहिए ताकि इसे प्रदेश की आर्थिकी का ओर मजबूत विकल्प बनाया जा सकें।
उत्तराखण्ड में पारम्परिक रूप से पहाडी ककडी को कीचन गार्डन तथा पारम्परिक फसलों के बीच में उगाई जाती है। सामान्यतः ककडी का उपयोग खाने में सलाद तथा रायते में किया जाता है लेकिन इसके अलावा इसको विभिन्न खाद्य पदार्थों में मिलाकर भी प्रयोग में लाया जाता है जैसे कि पर्वतीय क्षेत्रों में इससे बडी बनायी जाती है। घरेलू उपयोग के अलावा इसका उपयोग कॉस्मेटिक उत्पाद, आयुर्वेदिक औषधियां तथा एनर्जी ड्रिंक्स बनाने में भी किया जाता है। इसमें एल्केलॉइडस, ग्लाइकोसाइड्स, स्टेरोइड्स, केरोटीन्स, सेपोनिन्स, अमीनो एसिड, फलेवोनोइड्स तथा टेनिन्स आदि रासायनिक अवयव पाये जाते है। ककडी में पोषक तत्व तथा मिनरल्स प्रचूर मात्रा में पाये जाते है तथा इसमें मौजूद विटामिन्स.ए, बी तथा सी की मात्रा होने से यह शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढाने में सहायता करती है।
इसमें ऊर्जा.16 किलो कैलोरी, कार्बाइाइड्रेट. डाइटरी फाइबर वसा, प्रोटीन, फोलेट्स, विटामिन बी, विटामिन सी सोडियम पोटेशियम, फोस्फोरस, कैल्शियम कॉपर, आयरन, मैग्नीशियम, मॅग्नीज़, फ्लोराइड तथा जिंक तक की मात्रा में पाये जाते है। उत्तरकाशी में ककड़ी बाजार भाव मे लूट मची है। ककड़ी उगाने वाला 5 से 10 रुपए किलो खेत मे ही बेच रहा है लेकिन खेत से ही माल उठाने वालों की लूट देखिए, 50 से 60 रुपए किलो तक बाजार में फुटपाथ व सब्जी की दुकानों में लोकल खीरा बिक रहा है। गौरतलब है कि इन दिनों उत्तरकाशी के ऊपरी हिस्सों के गांवो में ककड़ी बेलों में फैली है और एक तरह अच्छा उत्पादन हुआ है। बताया जा रहा है कि उत्तरकाशी में लोकल सब्जी के बिचौलिए गांव में ही पहुंच रहे हैं। गांव में ये लोग खेत से ही 5 से 10 रुपए किलो में सौदा तय कर माल उठा रहे है औऱ उसके उपरांत उत्तरकाशी में मनमर्जी के भाव तय कर इसे बेच रहे हैं। इधर सबसे बड़ा सवाल की इस लूट पर कौन नियंत्रण करेगा।
वैसे नियंत्रण या फिर लूट खसोट तभी नियंत्रित हो सकती है जिसके लिये उत्तरकाशी में सहकारी समिति से चलने वाली मंडी समिति या परिषद स्थापित होना जरूरी है। यदि ऐसा होता है तो तब बिचौलियों की लूट बंद हो सकती है। उत्तराखण्डी व्यंजन खाने व बनाने के लिये और लोगों को अपने अड़ोस.पड़ोस वालों को बुलाकर, परोसने के लिये, मैं सब लोगों से और विशेष तौर पर अपने शहरीय क्षेत्रों में आकर बसे उत्तराखण्डी से। उत्तराखण्डी व्यंजन हमारा एक ऐसा खजाना है, यदि हम इसकी कद्र करेंगे, तो गरीबी, बेरोजगारी का समाधान भी इसी खजाने के रास्ते निकलेगा और महिला सशक्तिकरण का रास्ता भी इसी खजाने से निकलेगा।
भारत में कई राज्य हैं जिनमें विभिन्न प्रकार के व्यंजन पाए जाते हैं। जब मैं उत्तराखंड में कुमाऊँ पहाड़ियों की यात्रा कर रही थी, तब मैने दही से बना व्यंजन खाया जो कि स्वाद में अद्वितीय था और जिसे पहाड़ी खीरे का रायता कहा जाता है। इस खीरे के रायते का स्वाद विशेष चटपटा होता है जो इसे सरसों के बीजों से मिलता है, रायते में चटपटा स्वाद लाने के लिए सरसों के बीजों का प्रयोग परोसने से आधा घंटा पहले किया जाता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि रायते को गाढ़ा बनाने के लिए दही में मिलाने से पहले खीरे के पानी को निकाल देना चाहिए। खीरे का रायता अधिक आकर्षक लगे इसलिए रायते को पिसे हुए जीरा, लाल मिर्च पाउडर और स्वच्छ धनिया के बीजों से सजाया जाता है। रायते को भारतीय करी के साथ लंच या डिनर में उपयोग किया जा सकता है और यह साधारण दही का अच्छा इस्तेमाल हो सकता है। मध्य हिमालय का पहाड़ी क्षेत्र अपनी प्राकृतिक सुंदरता व वैभव के अलावा अपनी संस्कृति के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है। इसमें उसके नाना प्रकार के भोज्य पदार्थों का उल्लेखनीय योगदान है, जो न केवल स्वाद में, बल्कि पौष्टिकता में भी अतुलनीय हैं।
प्रवासी पर्वतीयजन इन व्यंजनों के लिए तरसते रहते हैं और उनकी भावना व इच्छा रहती है कि ये व्यंजन उन्हें मिलें। प्रचार.प्रसार की समुचित व्यवस्था तथा पर्वतवासियों में व्यावसायिक कुशलता के अभाव के चलते पहाड़ों के बहुमूल्य उत्पादों व स्वादिष्ट व्यंजनों के विपणन तथा आदान.प्रदान का प्रभावी तंत्र विकसित नहीं किया जा सका था, इसलिए एक ओर जहाँ पहाड़ी उत्पादों को बाजार न मिलने से उत्पादकों को उनकी मेहनत का समुचित मूल्य नहीं मिल पाता है, वहीं इन उत्पादों के इच्छुक लोगों को ये उपलब्ध नहीं हो पाते हैं लेकिन् इस दिशा में पिछले कुछ वर्षों से प्रयास होने लगे हैं। दुकानों में पहाड़ी उत्पाद मिलने लगे हैं तो देहरादून के मध्यवर्ती इलाके में लक्ष्मण सिंह रावत नाम के एक युवा व्यवसायी ने गढ़भोज नाम से एक रेस्तराँ खोल कर गढ़वाली भोजन उपलब्ध कराने की महत्वपूर्ण पहल आरम्भ की है, जिसे काफी प्रोत्साहन मिल रहा है। दूर.दूर से गढ़वाली व्यंजनों के शौकीन यहाँ पहुँच कर नाना प्रकार के स्वादिष्ट उत्तराखण्ड व्यंजनों का लुत्फ उठा रहे हैं। इस रेस्तराँ में गढ़वाल के सभी प्रकार के शाकाहारी और मांसाहारी भोजन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। पहाड़ी दाल-भात की सपोड़ा-सपोड़ी के साथ-साथ विभिन्न पहाड़ी सब्जियां, मंडुवे की रोटियां, झंगोरे की खीर, भंगजीरे की चटनी, ककड़ी का रायता, झंगोरे के रसगुल्ले, गहत व तोर के भरे परांठे औए वे तमाम व्यंजन, जो उत्तराखण्ड में बनते थे व हैं, मिल जाते हैं। आदेश पर अरसे व उड़द के पकोड़े भी तैयार किये जाते हैं, पहाड़ी उत्पादों को एक सम्मानजनक बाजार भी उपलब्ध कराने के प्रयास में हैं। उनकी योजना पहाड़ी उत्पादों में उपलब्ध पौष्टिकता को विभिन्न पोषक उत्पादों में बदल कर उनका मूल्यवर्धन कर उत्पादकों को अधिक लाभकारी व मूल्य उपलब्ध कराना भी है ताकि घाटे की पहाड़ी खेती को लाभकारी बना कर गाँवों में ही सम्मानजनक रोजगार के अधिकाधिक अवसर प्राप्त हों। इन प्रयासों से उत्तराखण्ड में खाने के शौकीनों को एक इच्छित स्थान मिल गया है। इसका लाभ उठाकर इस अभियान को आगे बढ़ाने में मदद भी की जा सकती है। छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों में बहुत मांग है। क्योंकि यह अनेक प्रोटीनों के साथ खाने में भी स्वादिष्ट होती है। जिसे हर मनुष्य इसकी सब्जी को पसंद करता है। उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य फसल उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है। भारत में प्रायः सभी प्रान्तों में पाया जाता हैं।उत्तराखण्ड के परिप्रेक्ष्य में इतनी पोष्टिक एवं औद्योगिक रूप से महत्वपूर्ण फसल जिसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी अधिक मांग हैए को प्रदेश में व्यवसायिक रूप से उत्पादित कर जीवका उपार्जन का साधन बनाया जा सकता है। उत्तराखण्ड के लिए सुखद ही होगा किया जाता है तो यदि रोजगार से जोड़े तो अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य फसल उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है। कोरोना महामारी संकटपूर्ण स्थिति के लिए उपयोगी का साधन बनाया जा सकता है, लेकिन सब्जियों की कीमतों में आग लगा दी। खुदरा बाजार में अधिकतर सब्जियों के दाम दोगुना हो गए हैं।