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पहाड़ी भोज के मुरीद हुए प्रधानमंत्री

08/03/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पहाड़ों से गहरा लगाव किसी से छिपा नहीं है। जब भी वह उत्तराखंड आते हैं, तो यहां की संस्कृति, परंपरा और खान-पान को आत्मसात करने का प्रयास करते हैं। इस बार भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला, जब पीएम सीमांत गांव उत्तरकाशी के मुखबा पहुंचे। मां गंगा की पूजा के बाद उन्होंने उत्तराखंड के पारंपरिक पहाड़ी भोजन का स्वाद चखा और खासतौर पर मिलेट्स (श्रीअन्न) से बने व्यंजनों की सराहना की।पीएम के इस दौरे से साफ है कि उत्तराखंड सिर्फ धार्मिक पर्यटन तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि यह एडवेंचर, वेलनेस टूरिज्म और मिलेट्स आधारित खाद्य संस्कृति को भी बढ़ावा देगा। इससे स्थानीय लोगों को रोजगार और आजीविका के नए अवसर मिलेंगे और उत्तराखंड का समृद्ध खानपान देश-दुनिया में अपनी पहचान बनाएगा। पहाड़ की पारंपरिक फसल चीणा अब खेतों से गायब हो गई है। चीणा में पोषक तत्व भी भरपूर मात्रा में होती हैं। चीणा का वानस्पतिक नाम पेनिकम मैलेशियम है। इसका पौधा एक से दो मीटर तक ऊंचा होता है।एक समय था जब हर गांव का हर परिवार चीणा उगाता था, लेकिन आज दूरस्थ के गांव में ही कहीं भी चीणा नजर नहीं आती। यह मोटे अनाजों में प्रमुख फसल मानी जा सकती है। यह सबसे कम तीन माह में तैयार होने वाली फसल है। इसको बोने के बाद सीधे पकने पर काटते है। खास बात यह है कि इसे उगाने में कम मेहनत की जरूरत होती है यहां तक कि इसे निराई गुड़ाई की जरूरत भी नही पड़ती है। किसान पहले इसी फसल को उपयोग में लाते थे और आज उन्होंने इसे उगाना ही छोड़ दिया है। आज वैज्ञानिक भी मोटे अनाजों को उगाने की बात कर रहे हैं उनका मानना है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों को झेलने और खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से चीणा जैसे मोटे अनाज उगाने जरूरी हो गए हैं। काश्तकार का कहना है कि पहले लोग विविधतापूर्ण फसलें उगाते थे, इससे उनकी हर तरह की जरूरतें पूरी होती थी,लेकिन जब से नई खेती चलन में आई चीणा को लोग भूल गए। नई पीढ़ी के लोगों ने चीणा को देखा तक नही है। जनपद के प्रतापनगर, जौनपुर, मलेथा आदि जगहों पर चीणा को सबसे अधिक उगाया जाता रहा है, लेकिन अब नई पीढ़ी के के बच्चे चीणा को पसंद नहीं करते इसलिए लोगों ने इसकी फसल उगानी भी बंद कर दी। यही वजह है कि बिरले लोग ही चीणा का उत्पादन कर रहे है।इसमें प्रोटीन 4.6 प्रतिशत, बसा 1.1 प्रतिशत, कार्बोहाइट्रेट 68.9 प्रतिशत, रेशा 2.2 प्रतिशत और भस्म 3.4 प्रतिशत होती है। खसरा रोग में भी इसका उपयोग किया जाता रहा है। इसको रोटियों के अलावा चावल की तरह भी प्रयोग में लाया जाता है।पहले विविधता पूर्ण फसलें उगाते थे लेकिन अब खेती में मोनोकल्चर आ गया है। इसलिए चीणा जैसी फसल नही उगाई जा रही है इसकी जगह लोगों ने नगदी फसलों को बढ़ावा दिया है। हालांकि यह अनाज खाद्य सुरक्षा व पोषण की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि बारहनाजा जैसी पद्धतियाँ सूखे में भी उपयोगी हैं और उसमें खाद्य सुरक्षा संभव है। इसलिये बारहनाजा जैसी कई और मिश्रित पद्धतियाँ हैं, जो अलग-अलग जगह अलग-अलग नाम से प्रचलित है। ये सभी स्थानीय हवा, पानी, मिट्टी और जलवायु के अनुकूल हैं। ऐसी स्वावलंबी पद्धतियों को अपनाने की जरूरत है।पहले इन सभी सीमावर्ती गांवों को देश का अंतिम गांव कहा जाता था, लेकिन अब ये देश के पहले गांव के रूप में पहचाने जाते हैं। केंद्र सरकार की वाइब्रेंट विलेज योजना के तहत इन सीमांत गांवों का चयन किया गया है। ये सीमा से जुड़े गांव धार्मिक, सांस्कृतिक, व्यापारिक एवं पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। मुखबा गांव में यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और यह उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है। ।लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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