डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखण्ड के विविध जनपदों में प्रमुख जनपद नैनीताल राज्य का भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं आर्थिक सहित उपर्युक्त वर्णित आधारों को स्वयं समाहित करता हुआ इस पर्वतीय राज्य का सही अर्थों में आदर्श प्रतिनिधित्व करता है। इसी कारण प्रागेतिहासिक आधारों पर आदिगुरू शंकराचार्य से लेकर चीनी यात्री ह्वेनसांग, महर्षि अरविन्द, नारायण स्वामी, स्वामी विवेकानंद, बाबा नीम करोली, बाबा हेड़ा खान, महात्मा गांधी, जिम कॉर्बेट, आधुनिक मीरा महादेवी वर्मा, आचार्य नरेन्द्र देव आदि ने मानव जाति के कल्याण हेतु स्वयं द्वारा निर्धारित उद्देश्यों को पूर्ण करने के लिए जनपद नैनीताल को अपनी कर्मभूमि तथा यात्रा स्थल बनाया। इसी क्रम में विश्व में मानवता के कल्याण के लिए अपनी जिम्मेदारी तथा मानकों के स्वयं निर्धारक, एशिया में साहित्य के लिए प्रथम नोबेल पुरस्कार से अलंकृत तथा भारत सहित बांगलादेश के राष्ट्रीय गान के रचेयता गुरूदेव रबिन्द्र नाथ टैगोर द्वारा कुल तीन बार वर्ष 1903, 1914 एवं 1937 में रामगढ़ नैनीताल की यात्रा की गयी। गुरुदेव की वर्ष 1903 में प्रथम रामगढ़ यात्रा का न केवल उत्तराखंड वरन विश्व भर के साहित्य प्रेमियों के लिए विशेष ऐतिहासिक महत्व है।
साहित्य जगत के साथ ही देश की आजादी के आंदोलन में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले रबीन्द्रनाथ टैगोर का आज 160वां जन्मदिवस मनाया जा रहा है। रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म कोलकाता के एक संपन्न परिवार में हुआ था। उत्तराखंड हमेशा सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र में रहा है। देवभूमि उत्तराखंड जिसका कण.कण ईश्वर की अनुभूति कराता है, महान ऋषियों ने कुमाऊं और गढ़वाल की कंदराओं में तपस्या की तो औषधिय वनों पर शोध कर वैदिककालीन आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की नींव रखी गई और वेद.पुराण लिखे गए। पौराणिक मान्यता है कि कुमाऊं के बगवालीपोखर एवं दूनागिरि पर्वतमाला में ही मुनिवर शुकदेव ने श्रीमद्भागवत कथा की प्रस्तावना तैयार की थी। प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर और जिज्ञासु यायावरों की साधनास्थली रही रामगढ़ की भूमि में महान कवि रबींद्रनाथ टैगोर विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे। इस सुरम्य स्थली से प्रभावित होकर राष्ट्रगान के रचयिता ने अंग्रेज मित्र डेरियाज से भूमि भी खरीद ली थी। वर्ष 1901 में कुछ दिनों तक वह इन शांत वादियों में रहे और विश्वप्रसिद्ध रचना गीतांजलि के कुछ अंश भी लिखे।
टैगोर का पहाड़ प्रेम उन्हें 1927 में अल्मोड़ा खींच लाया था। टैगोर ने पहली बार सांस्कृतिक नगरी अल्मोड़ा पहुंचने पर दास पंडित ठुलघरिया के आतिथ्य को स्वीकारा था। उनका तीन से चार बार अल्मोड़ा पहुंचना बुद्धिजीवी समाज के लिए प्रेरणादायी रहा। 1961 में टैगोर भवन के रूप में नई पहचान मिलने के बाद इसे छावनी परिषद कार्यालय के रूप में तब्दील किया गया। जिस कमरे के सोफा में बैठकर गुरुदेव ने ग्रंथों की रचना की, उन्हें वहां सुरक्षित रखा गया है। गुरुदेव की प्रेरणा से ही प्रसिद्ध लेखिका गौरा पंत शिवानी को अध्ययन के लिए शांति निकेतन जाने का अवसर प्राप्त हुआ। वहीं अल्मोड़ा में टैगोर जिस भवन में रुके थे, उसका नाम अब टैगोर भवन कर दिया गया है।
डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक ने 17 अप्रैल 2000 में अविभाजित उत्तर प्रदेश में संस्कृति एवं धर्मस्व मंत्री रहते हुए टैगोर संग्रहालय और सुंदरीकरण के लिए 50 लाख की घोषणा की थी। कुछ दिक्कतों की वजह से काम आगे नहीं बढ़ सका। बाद में उत्तराखंड के सीएम रहते हुए भी निशंक ने 8 अप्रैल 2011 को फिर संग्राहलय निर्माण की घोषणा की। डीएम से प्रस्ताव भेजने के निर्देश दिए थे। उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य है कि गुरुदेव की इन यात्राओं से जुड़ी जगहों और वस्तुओं को सहेजा नहीं जा सका। आज भी रामगढ़ के टैगोर टॉप में वह बंगला खस्ताहाल हालत में मौजूद है, जहाँ टैगोर रहे थे। जहाँ उन्होंने गीतांजलि का कुछ हिस्सा लिखा था। रामगढ़ को फल पट्टी के रूप में देश.दुनिया जानती है। रामगढ़ महादेवी वर्मा और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कर्मभूमि भी है। इसे विरले ही लोग जानते हैं। सरकारों ने इस विषय में कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली। एक ऐसा कवि जिसकी लेखनी 3 देशों के राष्ट्रगान का प्रेरणास्रोत बनीं, वह महान कवि जो जन जन का कवि था, बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। लेखनी जिसकी सामाजिक कुठाराघात पर चोट करती थी। ऐसे मूर्धन्य साहित्यकार और देश को पहला नोबेल पुरस्कार दिलाने वाले महान शख्सियत गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर थे।
20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में भारतीय राजनीति को दो ऐसे राजनेता मिले, जो अद्वितीय विचारक भी थे। उन्होंने राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छाप छोड़ी। ये थे महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर। गांधीजी ने जहां अपने सत्य और अहिंसा के मूल्यों से दुनिया को नई राह दिखाई तो टैगोर ने अपने आधुनिक विचारों, कविताओं और राष्ट्रवाद पर विचारों के जरिए एक नई लीक खींची। महान कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, गायक, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार, प्रकृतिप्रेमी, पर्यावरणविद और मानवतावादी रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले एशियाई व्यक्ति थे। जिन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिला शांति निकेतन ट्रस्ट फॉर हिमालया की ओर से गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की जयंती पर वेबिनार कार्यक्रम का आयोजन किया था। ऑनलाइन गोष्ठी का शुभारंभ केंद्रीय शिक्षा मंत्री डॉण् रमेश पोखरियाल निशंक ने किया। डॉण् निशंक ने कहा कि गुरुदेव ने भारत ही नहीं एशिया को साहित्य में पहला नोबेल पुरस्कार दिलाया। टैगोर ने रामगढ़ में शांति निकेतन की स्थापना कर उत्तराखंड और पहाड़ को नई पहचान दिलाई। मंत्री ने कहा कि रामगढ़ में विश्वा.भारती और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के मध्य समन्वय स्थापित कर एक आदर्श संस्थान खोलने को लेकर सहमति बनी है, इसके लिए धरातल पर कार्य शुरू कर दिया परवान चढ़ना है। इससे दुनिया के लोग रामगढ़ आकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर सकेंगे। नोबेल पुरस्कार विश्व.भारती विश्वविद्यालय की सुरक्षा में रखा गया था। 2004 में इसे वहां से चोरी कर लिया गया था। तब स्वीडिश अकादमी ने नोबेल पुरस्कार की दो प्रतिकृति विश्व.भारती विश्वविद्यालय को दी थी। जिसमें से एक सोने का बना हुआ है और दूसरा कांसे का।
नैनीताल जिले के रामगढ़ स्थित गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कर्मस्थली और साहित्यिक हब के रूप में विकसित करने की घोषणाएं समय.समय पर होती रही हैं, मगर उन पर अमल अब तक नहीं हो सका है। रामगढ़ के जिस भवन में उन्होंने गीतांजलि के अंश लिखे। वह भवन रखरखाव के अभाव में धीरे.धीरे वह खंडहर हो गया है। काश! उसे सहेजने और संरक्षित करने का प्रयास किया गया होता तो साहित्य सृजन के अलावा पर्यटन का भी केंद्र बनता और भावी पीढ़ी को प्रेरणा भी मिलती। देश.विदेश में उनकी याद में अनेक समारोह आयोजित किए गए। डाक टिकट भी जारी किए गए, लेकिन साहित्य के लिए नोबल पुरस्कार पाने वाले गुरुदेव की स्मृतियों को रामगढ़ में नहीं सहेजा जा सका। जिससे रामगढ़ में टैगोर टॉप तक के लगभग तीन किलोमीटर के सुविधाजनक मार्ग के निर्माण के साथ गीतांजलि भवन को गुरुदेव की स्मृति में भावी पीढ़ी के लिए धरोहर के रूप में संजोया जा सके तथा भारतीय साहित्य की सर्वोत्तम कृति के इस सृजन स्थल को साहित्यकारों.कलाकारों की प्रेरणा स्थली के रूप में विकसित किया जा सकेण् संभवतः गुरुदेव रबीन्द्रनाथ एक सदी पूर्व इस बात को महसूस कर चुके होंगे कि विश्व में संचार क्रांति और वैज्ञानिक विकास के परिणामस्वरूप भौगोलिक दूरी तो नहीं रहेगी लेकिन मानवीय संवेदनाओं के अभाव में मन की परस्पर दूरी बढती जायेगी। इस दूरी को पाटने के लिए उन्होने आध्यात्मिक स्वतन्त्रता को आवश्यक बताते हुए कहा कि इसका एहसास प्रकृति की गोद में ही संभव है जहाँ नेसेर्गिक सौंदर्य होए शांत और सुमुधुर संगीत हो और पक्षियों का कलरव कुसुमालयों को पल्लवित और पुष्पित करने के लिए आध्यात्मिक गान करता हुआ प्रतीत होता हो। अतः जहाँ से हिमालय के नयनाभिराम दृश्य मन को शीतलता प्रदान करते हो और गुरुदेव के प्रकृति और मानवीय संवेदना पर आधारित दर्शन, साहित्य, संगीत, कला को सुनने, समझने और देखने के लिए सर्वोपयुक्त प्राकृतिक वातावरण सुलभ होता हो वह स्थल टैगोर टॉप, रामगढ़, उत्तराखंड के अतिरिक्त दूसरा नहीं हो सकता।