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ग्लेशियर जैसे जनाधारित जल-संसाधनों पर रोडमैप नहीं हुआ है प्रस्तुत

21/11/22
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
प्राचीन काल में अधिकांश सभ्यताओं का उदय नदियों के तट पर हुआ है, जो इस बात को इंगित करता है कि जल जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिये अनिवार्य ही नहीं, बल्कि महत्त्वपूर्ण संसाधन भी रहा है। विगत कई दशकों में तीव्र नगरीकरण, आबादी में निरंतर बढ़ोतरी, पेयजल आपूर्ति तथा सिंचाई हेतु जल की मांग में वृद्धि के साथ ही औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार इत्यादि ने जल.संसाधनों पर दबाव बढ़ा दिया है। एक ओर जल की बढ़ती मांग की आपूर्ति हेतु सतही एवं भूमिगत जल के अनियंत्रित दोहन से भूजल स्तर में गिरावट होती जा रही है, तो दूसरी ओर प्रदूषकों की बढ़ती मात्रा से जल की गुणवत्ता एवं उपयोगिता में कमी आती जा रही है। अनियमित वर्षा, सूखा एवं बाढ़ जैसी आपदाओं ने भूमिगत जल पुनर्भरण को अत्यधिक प्रभावित किया है।

दरअसल उत्तराखण्ड के असली मुद्दे यही हैं। इन बातों का किसी भी राजनीतिक पार्टी ने अपने घोषण पत्रए संकल्प पत्र व दृष्टि पत्र में जिक्र तक नहीं किया।आज लोग जानना चाह रहे हैं कि स्कूल की बिल्डिंग बनेगी तो क्या बिन पानी केघ् या कोई भी ढाँचागत विकास होगा तो क्या बिन पानी के या राज्य में जल विद्युत परियोजनाएँ बनेंगी तो क्या बिन पानी के यह सवाल इसलिये खड़े हो रहे हैं कि उत्तराखण्ड सरकार ने ही पिछले वर्ष एक सर्वेक्षण करवाया था कि उत्तराखण्ड में कितने जलस्रोत हैं। सर्वेक्षण से मालूम हुआ कि राज्य के 75 प्रतिशत जलस्रोत सूखने की कगार पर हैं।

50 फीसदी जलस्रोत मौसमी हो चले है इसी तरह इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट बताती है कि राज्य के अधिकांश जलस्रोत वनाग्नी की वजह से सूख रहे हैं या वे अपना रास्ता बदल रहे हैं। यही नहीं रिपोर्ट यह भी इशारा कर रही है कि राज्य में जैवविविधता घटने से इन प्राकृतिक जलस्रोतों पर बुरा प्रभाव पड़ा है। एक तरफ ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं और दूसरी तरफ राज्य में आपदा की सम्भावनाएँ बढ़ रही हैं। ज्ञात हो कि ऐसे तमाम जनाधारित मुद्दों पर ये राजनीतिक पार्टियाँ अपने घोषणा पत्रों में जगह नहीं बना पाये।ताज्जुब तो तब होती है जब ये राजनीतिक पार्टियाँ हर वर्ष आपदा के बजट के साथ अखबार बयानबाजी करते नजर आते हैं। हाल में उन्हें चाहिए था कि वे अपने घोषणा पत्र में आपदा के न्यूनीकरण की बात करतेए जल संरक्षण की बात करतेए जंगल और जमीन को सरसब्ज करने की बात करते। बजाय इनके घोषणा पत्र उल्टे राज्य के प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण नहीं विदोहन की बात जरूर करता है।

घोषण पत्रों के अध्ययन करने से पता चलाता है कि ये पार्टियाँ जो भी विकास का रोडमैप लोगों के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं उनके अनुसार सम्भावित उम्मीदवार को वोट ही नहीं मिल रहे हैं।यदि सार्वजनिक स्थानों पर उन्हें वक्तव्य देना होता है तो वे अपने प्रतिद्वंदी को खरी.खोटी सुनाते हुए दिखाई देते हैं। लोग उम्मीदवारों से जानना चाह रहे हैं कि उनके गाँव में आपदा का खतरा बना हुआ है। उनके गाँव के प्राकृतिक जलस्रोत सूख गए हैं। उनके संवर्धन के लिये वे जीतकर क्या करने वाले हैं। ऐसे अनसुलझे सवाल आज भी खड़े हैं।कुल मिलाकर उत्तराखण्ड राज्य की जो कल्पना थी सो अब मौजूदा राजनीतिक पार्टियों ने एक दूसरे को हराने के लिये समाप्त करा दी है। मौजूदा राजनीतिक पार्टियों के पास जलए जंगलए जमीन के संरक्षण व दोहन की कोई स्पष्ट नीति इस दौरान के चुनाव में नहीं दिखाई दी है।

सभी ने शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, विद्युत, दूरसंचार, महिला उद्यमिता, कौशल विकास, बाँध आदि.आदि विषयों को विकास का मॉडल बताया और इन विषयों पर खरा उतरने का वे लोगों से वायदे कर रहे हैं। लोगों की प्यास कैसे बुझेगीए बाँध के लिये पानी कहाँ से आएगाघ् क्योंकि नदियाँ साल.दर.साल सूख रही हैंए ग्लेशियर लगातार तेजी से पिघल रहे हैं जैसे संवेदनशील सवालों पर किसी भी राजनीतिक पार्टियों ने कोई रोडमैप प्रस्तुत नहीं किया है।

वास्तव में हमने जल संरक्षण के अपने पारंपरिक तौर.तरीकों को भुला दिया है। गांवों.देहातों में आज भी यह कहावत प्रचलित है, ऊपर का जल ऊपर के लिए और नीचे का जल पीने के लिए। अर्थात दैनिक नित्यकर्म जैसे कि शौच, स्नान, कपड़े धोने, पशुओं और कृषि कार्य हेतु वर्षा के जल का उपयोग किया जाता था और खाना बनाने और पीने के लिए भूमिगत जल का, जो कुओं से निकाला जाता था। वर्षा जल के संग्रह के लिए बावड़ी, तालाब आदि थे, जिनकी देखभाल की जबावदेही सभी की थी। हिमालय से निकलने वाली नदियों में भी साल भर शुद्ध जल का प्रवाह पर्याप्त मात्रा में रहता था।

उत्तराखंड के उत्तरकाशी स्थित यमुनोत्री, गंगोत्री, डोकरियानी, बंदरपूंछ ग्लेशियर के अलावा चमोली जिले में द्रोणगिरी, हिपरावमक, बद्रीनाथ, सतोपंथ और भागीरथी ग्लेशियर स्थित है। इसके अलावा रुद्रप्रयाग जिले में केदारनाथ धाम के पीछे स्थित चौराबाड़ी ग्लेशियर, खतलिंग व केदार ग्लेशियर अति संवेदनशील हैं। जहां तक कुमायूं क्षेत्र में कुछ प्रमुख ग्लेशियरों का सवाल है तो पिथौरागढ़ में मिलम ग्लेशियर, काली, नरमिक, हीरामणी, सोना, पिनौरा, रालम, पोंटिंग व मेओला जैसे ग्लेशियर प्रमुख हैं। वहीं बागेश्वर क्षेत्र में सुंदरढुंगा, सुखराम, पिंडारी, कपनी व मैकतोली जैसे कुछ प्रमुुख ग्लेशियर हैं। उत्तराखंड में गंगोत्री ग्लेशियर सबसे बड़ा है। यह चार हिमनदों रतनवन, चतुरंगी स्वच्छंद और कैलाश से मिलकर बना है। गंगोत्री ग्लेशियर 30 किलोमीटर लंबा और दो किलोमीटर चौड़ा है। हालिया शोध में यह बात सामने आई है कि गंगोत्री ग्लेशियर पर्यावरण में आए बदलाव के चलते हर साल 22 मीटर पीछे खिसक रहा है।जहां तक सब दूसरे सबसे बड़े ग्लेशियर का सवाल है तो पिंडारी ग्लेशियर 30 किमीमीटर लंबा और 400 चौड़ा है। यह ग्लेशियर त्रिशूलए नंदा देवी और नंदाकोट पर्वतों के बीच स्थित है। पर्यावरणीय बदलाव की वजह से फिलहाल हर साल ये ग्लेशियर कई मीटर तक पीछे खिसक रहे हैं। अतिसंवेदनशील ग्लेशियरों के टूटनेए एकाएक पिघलने से उत्तर भारत में भयावह बाढ़ और तबाही की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।

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