डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला
श्रीदेव सुमन का नाम देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। त्याग व संघर्ष की मिसाल श्रीदेव सुमन से देशवासी बहुत कम परिचित हैं। श्रीदेव सुमन द्वारा टिहरी रियासत के खिलाफ किए गये संघर्ष ने टिहरी रियासत की चूलें हिला दी थीं। वे वास्तविक अर्थों में अहिंसावादी स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने टिहरी जेल में एक बार नहीं, बल्कि दो बार आमरण अनशन किया। दूसरी बार 84 दिनों तक जेल के भीतर आमरण अनशन करते हुए श्रीदेव सुमन ने 25 जुलाई, 1944 को अपने प्राण त्याग दिये। परन्तु टिहरी के राजा के सामने हार नहीं मानी और मरते दम तक अपना संघर्ष जारी रखा।
आजादी से पूर्व टिहरी राज्य की जनता न केवल अंग्रेजी हुकूमत बल्कि टिहरी की राजशाही से भी बुरी तरह त्रस्त थी। बद्रीनाथ का अवतार माने जाने वाली टिहरी रियासत के राजाओं के राज में जनता के लिए स्कूल, पेयजल व रोजगार आदि की बेहद कमी थीं, शराब की भट्टियां अत्यधिक मात्रा में खुली हुयी थीं। एकमात्र इंटर कालेज टिहरी में था जिसमें राजा के कृपापात्र बच्चे ही भर्ती हो सकते थे। टिहरी में सभा करने व भाषण देने पर भी पाबंदी थी। टिहरी के शासक राजाओं के अत्याचारों के बारे में जनता को बहुत कम बताया गया है। टिहरी के बुजुर्ग बताते हैं कि जनता को भयभीत रखने के लिए राजा द्वारा फांसी की सजा खुले में सेमल के तप्पड़ पर दिये जाने की प्रथा थी। कहते हैं कि राजशाही के खिलाफ गीतों को रचने वाले एक कवि को भी टिहरी के राजा ने मरवा दिया तथा प्रचार कर दिया कि उसे परियां उठा कर ले गयीं हैं। राजा पुल पर चलने के लिए भी जनता से झूलिया वसूलता था। बहू.बेटी का विवाह होने पर सुप्पु स्योन्दी कर वसूला जाता था। टिहरी की जनता जहां बेहद अभाव में जीवन बसर करती थी, वहीं टिहरी के राजाओं के महलों में धन दौलत का अम्बार लगा रहता था। राजा जनता से लूटे गये सोना.चांदी आदि कीमती वस्तुओं को अपने राजमहलों की दीवारों में चिनवाकर रखता था। टिहरी राज्य में खासतौर से वनों के समीप रहने वाले लोगों के लिए वन जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन था। जनता जंगलों से अपनी जरूरत की वस्तुएं घास, लकड़ी आदि प्राप्त करती थी, वन उपज पर कई सारे कुटीर उद्योग भी निर्भर थे।
1928-29 में टिहरी के राजा नरेन्द्र ने अग्रंजों की शह व सुरक्षा व्यवस्था के नाम पर जंगलों की हदबंदी कर दी तथा जनता के पशु चराने, लकड़ी, घास लाने के सभी अधिकार समाप्त कर दिए। इस सबसे आक्रोशित जनता ने टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजा दिया। उस संघर्ष को कुचलने के लिए राजा की फौज ने 30 मई, 1930 को रवाई परगना के अंर्तगत तिलाड़ी के मैदान में वार्ता के लिए एकत्र निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियों की बौछार कर दी। जिसमें दर्जनों लोग शहीद हुए। जान बचाने के लिए लोग जमुना नदी में कूदे। जमुना का पानी भी शहीदों के रक्त से लाल हो गया। टिहरी के लोग इसे टिहरी के जलियाबाला बाग कांड के नाम से जानते हैं। 1938 में कांग्रेस के गुजरात के हरिपुर अधिवेशन में निर्णय लिया गया कि देशी राज्य की प्रजा अपने प्रजा मंडलों द्वारा अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करेगी। 23 जनवरी, 1939 को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना की गयी। श्रीदेव सुमन को इसकी कमान सौंपकर सचिव बनाया गया। प्रजा मंडल ने राजा के समक्ष पौण टोटी कर खत्म किया जाए, बरा बेगार बंद किया जाए तथा राज्य में उत्तरदायी शासन स्थापित किया जाए इत्यादि मांगे रखीं। परन्तु राजा नरेन्द्र देव ने प्रजा मंडल की मांगों को मानने की जगह आंदोलन के दमन का तरीका अख्तियार किया।
1942 में देश में अंग्रजों के खिलाफ भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। इसका असर टिहरी की जनता पर भी था। जनता इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर भागीदारी करने लगी। देश के राजे रजवाड़े अंग्रेजों के दलाल थे। वे अंग्रेजों के दमन में हर वक्त उनके साथ थे। 29 अगस्त, 1942 को श्रीदेव सुमन जैसे ही देव प्रयाग पहुंचे, उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। कुछ दिन मुनी की रेती व देहरादून जेल में रखने के बाद उन्हें आगरा जेल में 15 महीनों तक नजरबंद रखा गया। नबम्वर 1943 में श्रीदेव सुमन को रिहा किया गया। जेल से रिहा होने के बाद श्रीदेव सुमन चुप नहीं बैठे। उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत व राजशाही के खिलाफ संघर्ष जारी रखा।
30 दिसम्बर को श्रीदेव सुमन को पुनः गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेज दिया गया। टिहरी जेल कैदियों को यातनाएं देने के लिये बेहद कुख्यात थी। श्रीदेव सुमन को लोहे की भारी जंजीरों से जकड़ कर टिहरी जेल के बार्ड नं 8 में बंद कर दिया। वहां उन्हें तरह-तरह की यातनाएं दी गयीं। जिस फर्श वे सोते थे, उसे गीला कर दिया जाता। उनके खाने की रोटियों में भूसा व रेत मिला दिया जाता था तथा उन पर माफी मांगने के लिए दबाव बनाया गया।
प्रजामंडल का संचालक होने के नाते उन पर टिहरी शासन के खिलाफ घृणा, द्वेष व विद्रोह फैलाने का अभियोग चलाया गया। उनके खिलाफ .हजयूठे गवाह पेश कर उन्हें दफा 124 अ के तहत 2 वर्ष की कैद तथा दो सौ रुपए जुर्माने का दण्ड दिया गया गया। श्रीदेव सुमन ने जेल प्रशासन से प्रजा मंडल को पंजीकृत करवाने व अपने लिए कपड़ों व किताबें आदि उपलब्ध कराए जाने की मांग को लेकर जेल के भीतर अनशन प्रारम्भ कर दिया। अनशन को 21 दिन बीत जाने पर जेल प्रशासन ने आश्वासन दिया कि शीघ्र ही उच्च अधिकारियों से वार्ता कर उनकी मांगों का समाधान किया जाएगा। परन्तु जेल प्रशासन का आश्वासन झूठा निकला। उनकी मांगों पर कार्यवाही करने की जगह जेल प्रशासन ने उनके साथ सख्त रवैया अख्तियार कर लिया। उन्हें कागज कलम की जगह बेतों की मार पड़ने लगी। उन्होंने निर्भीकता के साथ कहा कि मेरी यह तीन मांगें महाराज तक पहुंचा दो, अन्यथा 15 दिनों के बाद मुझे जेल के भीतर पुनः आमरण अनशन प्रारम्भ करना पड़ेगा। श्रीदेव सुमन की मांग थी कि प्रजामंडल को पंजीकृत कर उसे राज्य में जनसेवा करने की पूरी छूट दी जाए, उनके मुकदमे की सुनवाई स्वयं महाराज के द्वारा की जाए तथा उन्हें जेल से बाहर पत्र व्यवहार करने की छूट दी जाए। उनकी उक्त मांगों पर कोई भी सुनवाई नहीं हुयी।
3 मई, 1944 को टिहरी जेल में श्रीदेव सुमन ने अपना ऐतिहासिक आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। उनका अनशन तोड़ने के लिए उनका मुंह संडासी से से जबरन खोलने की कोशिश की जाती। उनकी नियमित पिटाई कर उनके पैरों में बेड़िया डाल दी गयीं। अनशन के दौरान जेल के भीतर कई बार मजिस्ट्रेट, डॉक्टर व जेल मंत्री ने श्रीदेव सुमन से अनशन तोड़ने की अपील की। अनशन के 48 वें दिन राज्य के जेल मंत्री डाक्टर बैलीराम ने जेल में आकर उनसे अनशन तोड़ने की अपील की तथा आश्वासन दिया कि वे महाराज से मिलकर स्वयं उनकी मांगों को मंजूर करवाने का प्रयास करेंगे। 4 अगस्त को उन्हें महाराज के जन्म दिन पर रिहा कर दिया जाएगा, अतः वे अनशन तोड़ दें। इस पर श्रीदेव सुमन ने कहा कि क्या महाराज ने प्रजामंडल को पंजीकृत कर उन्हें राज्य में सेवा करने की आज्ञा दे दी है, उनका अनशन रिहाई के लिए नहीं है। जेल के भीतर 20 जुलाई की रात से उन्हें बेहोशी आने लगी। जेल प्रशासन ने उनके शरीर में गर्मी पैदा करने के नाम पर उन्हे कुनैन के इंजैक्शन लगाने शुरू कर दिये। नस के भीतर लगे इन इंजैक्शनों ने उनके शरीर में गर्मी पैदा कर दी और वे पानी की मांग करने लगे। 25 जुलाई, 1944 की शाम लगभग 4 बजे जेल की काल कोठरी में इस अमर बलिदानी ने अपनी अंतिम सांस ली।
श्रीदेव सुमन का संघर्ष अपने दौर का अभूतपूर्व संघर्ष है। आज हमारा देश व समाज उन वीर क्रांतिकारियों को भूलता जा रहा है, जिन्होंने देश की आजादी व समाज की बेहतरी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखण्ड राज्य बना उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद भी भावनाओं के अनुरूप राज्य का विकास न हो पाने की कसक लिए उत्तराखण्ड के सर्वांगीण विकास हेतु संघर्षरत है। अमर शहीद श्रीदेव सुमन की शहादत को याद करते हुए उनसे प्रेरणा लेकर उत्तराखण्ड के विकास हेतु संघर्ष करने का है। आज जरुरत है कि हम अमर शहीद श्रीदेव सुमन के त्याग, सर्मपण से समाज को परिचित कराएं तथा उनके बचे हुए कार्यों को आगे बढ़ाएं।