शंकर सिंह भाटिया
क्या 2022 के चुनाव उत्तराखंड में क्षेत्रीय पार्टियों और क्षेत्रीय ताकतों के अस्थित्व को समाप्त करने वाले साबित हुए हैं? क्षेत्रीय ताकतों को समाप्त करने के लिए भाजपा का लगातार बलवान होना, जिम्मेदार है? या क्षेत्रीय ताकतें इसके लिए खुद जिम्मेदार हैं? ये कुछ सवाल हैं जिनकी पड़ताल किया जाना आज के परिप्रेक्ष में आवश्यक हो गया है।
उत्तराखंड विधानसभा 2022 के चुनाव नतीजे आने के बाद यह साबित हो गया है कि इस राज्य में अब क्षेत्रीय ताकतों का नामलेवा तक नहीं बचा है। हालांकि विधानसभा में प्रतिनिधित्व को लेकर 2017 के चुनाव में ही क्षेत्रीय ताकतें समाप्त हो गई थीं, लेकिन 2022 के चुनाव क्षेत्रीय ताकतों के ताबूत में आंखिरी कील साबित हुए हैं।
सन् 1991 से पहले उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी का वजूद भी नहीं था। उत्तराखंड की सत्ता में कांग्रेस काबिज थी और उसके खिलाफ ताकत के रूप में उक्रांद मौजूद था। राम मंदिर आंदोलन के दम पर भाजपा और संघ ने इस देवभूमि में जड़ें जमानी शुरू की और धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों भाजपा मजबूत होती चली गई, उक्रांद छीजता चला गया। इसके लिए भाजपा और संघ की संगठन क्षमता जितना कारगर साबित हुआ, उक्रंाद का अपरिपक्व नेतृत्व भी उतना ही जिम्मेदार रहा। 1996 के संसदीय चुनावों का बहिष्कार उक्रांद के लिए बहुत बड़ी भूल साबित हुई। कुशल राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में उक्रांद छीजता चला गया, भाजपा ने उसके पूरे जनाधार को हड़प लिया।
राज्य बनने के बाद पहले चुनाव 2002 में उक्रांद को करीब छह प्रतिशत वोट और चार सीटें मिली। राज्य की लड़ाई लड़ने वाले दल के प्रति जनता का यह एक सतर्क जनादेश था। यदि उक्रांद नेतृत्व ने क्षेत्रीय दल की अपनी जिम्मेदारियों को पूरी इमानदारी से निभाया होता, चार विधायकों वाला दल मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के प्रति नतमस्तक होकर कांग्रेस की बी टीम की तरह काम नहीं कर रहा होता तो अगली बार 2007 के चुनाव में उक्रांद की ताकत बढ़ती, लेकिन वह अब और छीजकर तीन विधायकों तक सिमट गया। मजबूत सरकार देने का बहाना बनाकर जिस बेशर्मी के साथ उक्रांद ने भाजपा सरकार को समर्थन दिया, वह इस क्षेत्रीय दल के अस्थित्व को और सिमटा देने वाला साबित हुआ। उक्रांद के दो विधायकों को अपने दल में शामिल कर भाजपा ने इस दल को मिटा देने वाले काम किए।
तीसरे चुनाव में उक्रांद सिमटकर एक सीट तक रह गया। वह भी कांग्रेस की सरकार में शामिल होकर भले ही मंत्री बन गए, लेकिन क्षेत्रीय ताकत को ताकतवर बनाने के बजाय उसे और कमजोर बनाने का कारक बन गए। अंततः उन्हें भी भाजपा ने पार्टी में शामिल कर लिया। कुमाउं तथा गढ़वाल के संभावनाओं वाले नेताओं को प्रलोभन देकर भाजपा-कांग्रेस अपनी पार्टियों में शामिल करती रही हैं। जिससे यह क्षेत्रीय दल सिर्फ एक प्लेटफार्म बनकर रह गया है।
अब उक्रांद के नेतृत्व पर आते हैं। उक्रांद नेतृत्व इतना विवेकहीन और अदूरदर्शी रहा है कि उसने संगठन को मजबूत करने के कभी प्रयास किए ही नहीं। हालत यह है कि जिन सीटों पर उक्रांद कभी विजयी रहा या मुकाबले में रहकर दूसरे स्थान पर रहा, वहां उक्रांद के पास उम्मीदवार तक नहीं हैं। बसपा-सपा को पहाड़ में उम्मीदवार मिल जाते हैं, लेकिन उक्रांद को नहीं मिलते। दो-चार को छोड़ दें तो उक्रांद के अधिकांश उम्मीदवार 150 से लेकर 600 वोटों तक सिमट जाते हैं। संगठन के अभाव में न तो दल को अच्छे उम्मीदवार मिलते हैं, न चुनाव के दौरान प्रचार के लिए लोग मिल पाते हैं और यहां तक कि मतदान के दिन बूथों पर भी दल के बस्ते लगाने के लिए कार्यकर्ता नहीं होते। इन हालातों में कोई क्षेत्रीय दल मजबूत कैसे हो सकता है, कैसे भाजपा-कांग्रेस जैसे दलों का मुकाबला करने की स्थिति में आ सकता है।
यहां हमने क्षेत्रीय दल के नाम पर सिर्फ उक्रांद का ही उदाहरण दिया है। क्योंकि उक्रांद कभी मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय दल रहा है। हालांकि राज्य में बहुत सारे क्षेत्रीय दल हैं, लेकिन यह हैसियत किसी की नहीं रही है। उक्रांद का सिमटना इस राज्य में क्षेत्रीय ताकतों के सिमटने का प्रतीक है।
अगली कड़ी में क्षेत्रीय ताकतों के समाप्त होने से राज्य को क्या खामियाजा उठाना पड़ेगा? इस पर अपनी बात रखेंगे।