शंकर सिंह भाटिया
2013 की आपदा से पहले उत्तराखंड के पहाड़ों में 233 गांव रहने लायक नहीं थे, इसके बाद भी मजबूरी में लोग रह रहे थे, 2013 की आपदा के बाद 395 गांवों पर आपदा का साया मंडराने लगा। जब भी इन गांवों के पुनर्वास की बात आई राज्य की सरकार ने केंद्र के पाले में गैंद डाल दी। हमेशा राज्य सरकार की तरफ से कहा गया कि केंद्र जब तक पुनर्वास के लिए धन नहीं देगा, पुनर्वास संभव नहीं हो पाएगा। इसी कशमकश के बीच 2017-18 वित्तीय वर्ष कुछ गांवों के गिने चुने परिवारों के पुनर्वास के प्रयास शुरू हुए, जो उंट के मुंह में जीरे के समान हैं। हालांकि सरकार का दावा है कि अब तक 1730 परिवारों का पुनर्वास किया जा चुका है। सरकार का यह भी दावा है कि 395 में से 225 गांवों का सर्वे किया जा चुका है। इन आपदा प्रभावित गांवों में से कई गांवों का सर्वेक्षण तो छोड़िए कई गांवों में कितने परिवार आपदा की जद में हैं यह तक जानकारी नहीं है।
2013 और उसके बाद कुछ जिलों में आपदा प्रभावित गांवों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। पिथौरागढ़ जिले की स्थिति सबसे अधिक खराब है। पहले जिले के 71 गांव आपदा प्रभावित थे, 2013 के बाद ये बढ़कर 129 हो गए। उत्तरकाशी जिले पहले पांच गांव आपदा प्रभावित थे, 2013 के बाद ये 62 हो गए। रुद्रप्रयाग जिले में एक से 14 और टिहरी जिले में 19 से 33 हो गए। पहाड़ों में आपदा की जद में आने वाले गांवों के परिवारों की कुल संख्या कितनी है इसकी संख्या तक पता नहीं है। समझा जा सकता है कि जब तारगेट ही पता नहीं है तो हासिल कैसे किया जा सकता है। यह आपदा प्रभावितों के प्रति सरकारी रवैये की पोल खोल देता है।
चमोली जिले के पैनगढ़ को ही ले लीजिए जो 2013 के बाद आपदा की जद में आया था। बारिश से पहले जिन चट्टानों से अभी भूस्खलन हुआ था, दरारें साफ दिखाई रही थी। गांव के 46 परिवारों को पुनर्वासित करने की तैयारी की जा चुकी थी, आखिर में भूगर्भ विभाग ने उस क्षेत्र को उपयुक्त नहीं पाया और विस्थापन का कार्य रोक दिया गया। लेकिन गांव के जो घर सीधे गिरने वाली चट्टानों के दायरे में आ रहे थे, ऐहतियात के तौर पर उन्हें शिफ्ट किया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया, यह साबित करता है कि आपदा के मुहाने पर खड़े असहाय लोगों के प्रति सरकार और स्थानीय प्रशासन के साथ आपदा प्रबंधन विभाग किस कदर बेपरवाह रहे हैं।