डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
थुनेर तलिसपत्रा टैक्सस बकाटा यह छोटा सदाबहार वृक्ष है ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाने वाले औषधीय वृक्ष थुनेर वनस्पतिक नाम टैक्सैस बकाटा को विलुप्त होते देख चकराता वन प्रभाग ने अनूठी पहल की है। वन विभाग ने बर्फीले इलाके देववन में स्थित ग्रीन हाउस में कलम विधि से थुनेर की नर्सरी तैयार की है। इसके अलावा जंगल में पांच हेक्टेयर क्षेत्र में 10 हजार पौधे रोपे हैं। सात हजार फीट की ऊंचाई से ऊपर उगने वाले थुनेर वृक्ष से कैंसर समेत खांसी, बुखार, दमा और पेट दर्द आदि के इलाज के लिए औषधि तैयार की जाती है। एक समय था जब आरक्षित वन क्षेत्र चकराता के खडंबा, मुंडाली, देववन और बुधेर के जंगलों में थुनेर प्रचुर मात्रा में मिलता था। पिछले तीन.चार दशक से भारी दोहन के चलते थुनेर वृक्ष की संख्या धीरे.धीरे समाप्त होने लगी और थुनेर विलुप्तप्राय हो गया। इसकी महत्ता को देखते हुए चकराता वन प्रभाग ने देववन नर्सरी में कलम विधि से हजारों पौधे तैयार किए हैं। इसमें से 10 हजार पौधे वन क्षेत्र में रोपे गए हैं।
डीएफओ चकराता ने कलम विधि के बारे में बताते हुए कहा कि थुनेर प्रजाति के सात पेड़ खडंबा वन क्षेत्र में बचे थे, जिनसे कलम काटकर मिक्स चैंबर में विशेष तापमान में रखा गया। जड़ फूटने के साथ ही कलम को पांच माह के लिए ग्रीन हाऊस में रखा। कलम में पत्तियां निकलने पर पौध को ग्रीन हाऊस से निकालकर खुले वातावरण में करीब छह माह तक रखने के बाद जंगल में रोपा गया है। पौध तैयार करने में सभी वनकर्मियों का सहयोग रहा। उन्होंने बताया कि विलुप्त थुनेर को बचाने का यह प्रयास अगर सफल हुआ तो थुनेर को वन प्रभाग के अन्य वन क्षेत्रों में भी रोपा जाएगा। उत्तराखंड सरकार की हर्बल स्टेट की घोषणा से बहुत से स्थानीय स्वयं विदेशी औषधीय एवं सुगंधीय पौधों की माँग बढ़ गयी है।
नैनीताल जनपद के एक दूरस्थ गाँव के युवक कैलाश सिंह बिष्ट कैलाश से वार्तालाप करने से मालूम होता है कि जब से उनकी मुलाकात राष्ट्रपति से हुई है, तब से वे नये उत्साह से जड़ी.बूटियों व हर्बल पौंधों के बृहद कृषिकरण के लिये जुट गये हैं। इस दौरान उन्होंने व्यापक भ्रमण कर अनेक अनुसंधान केन्द्रों से तथा इस विषय का ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों से काफी जानकारियाँ हासिल की हैं। कैलाश सिंह आजकल युद्धस्तर पर थायम, आरीगेनो व पार्सले की बृहद खेती में जुटे हुए हैं। जब से रुद्रपुर व हरिद्वार स्थित सिडकुल में हर्बल उद्योगों की स्थापना हुई है, तब से उनकी सक्रियता भी बढ़ गई है। उनके अनुसार हर्बल उद्योगों में कच्चे माल की आपूर्ति बृहद कृषिकरण, सहकारिता व सहभागिता से ही पूर्ण की जा सकती है। उत्पादन को दस गुना बढ़ाने के लिये वे अब शिक्षित बेरोजगारों व युवकों को भी प्रेरित कर रहे हैं। विश्व में कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी के उपचार के लिए संजीवनी माने जाने वाले थुनेर के पेड़ संरक्षण के अभाव में खत्म होते जा रहे हैं। जहां सरकार का ध्यान इस ओर नहीं हैए वहीं कुछ ऐसे भी काश्तकार हैं जो थुनेर के पेड़ों को बचाने की मुहिम में जुटे हैं और आने वाली पीढ़ी को भी संदेश देने का काम कर रहे हैं।
उत्तराखण्ड को देवभूमि के साथ.साथ हिमालय जड़ी.बूटी केन्द्र के नाम से भी जाना जाता है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में कई वन औषधि पाई जाती है। उनमें एक है थुनेर का पेड़ए जिससे कैंसर की दवा को बनाया जाता है। सात हजार फीट से ऊपर की उंचाईयों पर होने वाले थुनेर के पेडों से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी की दवा बनती हैए लेकिन इनके पेड़ों का संरक्षण नहीं हो पा रहा है। अंग्रेजी में इंग्लिश यू के नाम से जाना जाने वाला यह पेड़ दुनिया भर में विशेषकर उत्तरी यूरोप से लेकर उत्तरी अफ्रिका तथा एशिया में मिलता है। इसकी ऊंचाई दस फुट से लेकर अनेक स्थानों पर तीस.चालीस फुट तक मिलती है। पहाड़ी जिलों में यह देवदार तथा राई के जंगलों के बीच पाया जाता है।
इसकी बढ़त काफी कम होने के कारण इसके जंगल काफी सीमित स्थानों पर ही मिलते हैं। यह नम तथा ठंडी जलवायु में उगता है। इसका वैज्ञानिक नाम टैक्सस बकैटा है। इस पेड़ में टैक्सस नामक रसायन पाया जाता है। यह रसायन यूरोपीय देशों में कैंसर की दवा बनाने में प्रयोग होता है। यूरोपीय देशों में मिलने वाले थुनेर वृक्ष में काफी कम मात्रा में यह रसायन मिलता है और वह भी केवल उसके तने के भीतर, मगर पहाड़ों में पाये जाने वाली प्रजाति के टैकसस बकैटा में टैकसस नामक यह रसायन उसके हर अंग में मिलता है। पत्तियो से लेकर उसके तने हर जगह यह पाया जाता है। कैंसर के अलावा इस पेड़ का परंपरागत रूप से भी अनेक बीमारियो के निदान के लिए औषधी के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके संरक्षण के लिए सरकार को सोचने की आवश्यकता है।
रुद्रप्रयाग और चमोली जिले से सटे थाला बैंड गांव में काश्तकार चन्द्र सिंह नेगी ने अपने बगीचे में थुनेर के पेड़ लगाये हैं। उन्होंने पांच सौ से अधिक पेड़ों को लगाया है और इन पेड़ों की संरक्षण का जिम्मा भी उठा रहे हैं। उनकी माने तो संरक्षण के अभाव में थुनेर जैसे बहुमूल्य औषधि के पेड़ विलुप्ति की कगार पर हैं या फिर सूख रहे हैं। जबकि थुनेर के पेड़ों की छाल और पत्तियों से जूस निकालकर कैंसर और टयूमर जैसी घातक बीमारी को निजात पाने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। विश्व में इस पेड़ का बहुत ही महत्व है। भारत-चीन सीमा पर 12,000 फुट की ऊंचाई के दुर्गम इलाके में कभी बर्फ़ीला रेगिस्तान हुआ करता था लेकिन आज ष्इको टास्क फ़ोर्स की बदौलत वहां हजारों एकड़ में जंगल पनप रहे हैं। इस इलाक़े के ग्लेशियर और नदियों को भी इससे नया जीवन मिला हैण्जानकारों की माने तो गांवो में आज भी जानकारी के अभाव में पशुओं में मुंहपका रोग के इलाज के लिए प्रयोग मे लाया जाता है। विश्लेषक कैलाश खंडूड़ी की माने तो थुनेर के पेड़ को संरक्षित नहीं किया गया तो यह अतीत बन जायेगा। पलायन रोकने के लिए थुनेर सबसे बड़ा जरिया बन सकता है। सरकार को इस ओर सोचने की जरूरत है। समय रहते इन पेडों का सरंक्षण उच्च स्तर पर नहीं किया गया तो आने वाले दिनों में वैज्ञानिक और इतिहासकार इसे इतिहास के पन्नों में ढूंढते रह जाएंगे। वहीं जिलाधिकारी मंगेश घिल्डियाल का कहना है कि ऐसे काश्तकारों की सरकारी स्तर से भी मदद की जायेगी, जिससे थुनेर जैसे पेड़ों का संरक्षण किया जा सके।