डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
चार धाम अब केवल तीर्थस्थान नहीं रहे हैं. धार्मिक यात्रा अब पर्यटन में बदल गई है. यहां कई दुकानें और होटल खुल गए हैं. अवैध सीमेंट निर्माण तेजी से हो रहा है. वर्ष 2023 में प्राचीन तीर्थस्थल जोशीमठ का धंसना इसके दुष्प्रभाव का उदहारण है. रिपोर्ट के मुताबिक विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी, फिर भी निर्माण को अनुमति दी गई और शहर में पर्यटकों के लिए होटल बनाकर विस्तार किया गया.पर्यटकों के आने से बढ़ा कचरा भी बड़ी समस्या बन गया है. केदारनाथ में पीक सीजन यानी अप्रैल से जुलाई के बीच प्रतिदिन 1.5 से 2 टन कचरा उत्पन्न होता है. इसके निस्तारण के लिए कोई सरकारी नीति अब तक नहीं बनी है.परेशान करने वाली बात यह है कि ये भीड़ केवल कुछ हिस्सों में ही बढ़ी और उन्हें प्रभावित कर रही है. भारी भीड़ के बावजूद, चमोली, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग के ग्रामीणों के जीवनस्तर में कोई खास सुधार नहीं हुआ. उत्तरकाशी में 80.10 प्रतिशत, चमोली में 60.07 प्रतिशत और रुद्रप्रयाग में 53.74 प्रतिशत परिवारों की मासिक आय 58.15 अमेरिकी डॉलर से कम है. साल 2025 में लगभग 60 लाख तीर्थयात्री आए और राज्य को करीब 89 करोड़ अमेरिकी डॉलर का लाभ हुआ. मगर स्थानीय विकास नहीं हुआ. चारधाम यात्रा में इस बार रिकॉर्ड संख्या में श्रद्धालु पहुंचे. लेकिन यात्रा के दौरान यात्रियों ने पर्वतीय क्षेत्रों पर कचरे का भारी बोझ छोड़ दिया. अधिकारियों के अनुसार, इस बार 47 लाख से ज्यादा श्रद्धालुओं ने चारधाम के दर्शन किए. इस दौरान केदारनाथ और बद्रीनाथ में प्लास्टिक और थर्मोकोल जैसे नॉन-बायोडिग्रेडेबल कचरे में भी भारी बढ़ोतरी देखने को मिली. उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव ने कहा है कि कचरे को नियंत्रित करने के लिए सिंगल-यूज प्लास्टिक पर कड़े प्रतिबंध लागू किए जा रहे हैं. आपको बता दे कि अकेले केदारनाथ में ही 17 लाख यात्रियों से 2400 टन कचरा इकट्ठा हुआ. ये कचरा पिछले साल की तुलना में 350 टन अधिक है.वहीं, बद्रीनाथ में कचरे की मात्रा 220 टन तक पहुंच गई. इसी तरह गंगोत्री से 70 टन और यमुनोत्री से करीब 44 टन कचरे को नीचे लाया गया. अधिकारियों के अनुसार, चारो धामों में प्लास्टिक और थर्मोकोल जैसे नाॅन-बायोडिग्रेडेबल कचरे में भी तेजी से बढ़ोतरी देखने को मिली. आपको बता दे कि अकेले केदारनाथ में ही 17 लाख यात्रियों से 2400 टन कचरा इकट्ठा हुआ. ये कचरा पिछले साल की तुलना में 350 टन अधिक है.वहीं, बद्रीनाथ में कचरे की मात्रा 220 टन तक पहुंच गई. इसी तरह गंगोत्री से 70 टन और यमुनोत्री से करीब 44 टन कचरे को नीचे लाया गया. अधिकारियों के अनुसार, चारो धामों में प्लास्टिक और थर्मोकोल जैसे नाॅन-बायोडिग्रेडेबल कचरे में भी तेजी से बढ़ोतरी देखने को मिली. बताया जा रहा है कि बैन के बावजूद भी रास्तों में प्लास्टिक की बोतलें, कप और पैकेजिंग सामग्री बड़ी संख्या में मिल रही है. ऐसे में ऊंचाई वाले इलाकों से कचरे को नीचे लाना प्रशासन के लिए बेहद कठिन और महंगा साबित हो रहा है. प्रशासन को इसके लिए केदारनाथ मार्ग पर खच्चरों का सहारा लेना पड़ा. ऐसे में अगर प्लास्टिक पर सख्ती और यात्रियों के बीच जागरूकता नहीं बढ़ाई गई तो चारधाम क्षेत्र में पर्यावरण संकट और गंभीर रूप ले सकता है. वही, बढ़ते कचरे को लेकर उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव ने कहा है कि इस बार यात्रियों की संख्या बढ़ी है. हमको रिपोर्ट्स मिली है कि 2000 टन से ऊपर कूड़ा सिर्फ केदारनाथ में मिला है. कहा जा रहा है पिछले साल के मुकाबले यहां कचरा 300 टन से ऊपर अधिक मिला है. उन्होंने कहा कि हम इसका अध्ययन कर रहे हैं. कचरे को नियंत्रित करने के लिए हम सिंगल-यूज प्लास्टिक पर कड़े प्रतिबंध लागू करने जा रहे हैं. इसके लिए फारेस्ट डिपार्टमेंट के साथ समन्वय बढ़ाते हुए औहर भी सख्त व्यवस्थाएं बनाई जा रही हैं. उन्होंने चेतावनी दी कि लापरवाही बरतने वालों पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी और अगली बैठक में इस संबंध में नए प्रावधान जोड़े जाएंगे. उधर बद्री केदार समिति के अध्यक्ष का कहना कि ये बहुत चिंता का विषय और इसका कड़ाई से पालन करने के लिए हम हिमालय में बढ़ते प्रदूषण को रोकने के लिए प्रतिबद्ध है. केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिर परिसरों में कूड़ा मैनेजमेंट को और मजबूत बनाने के लिए कड़े कदम उठा रहे हैं. उत्तराखंड में ठंड का असर महसूस हाेने लगा है. यहां कई इलाकों में बर्फीली हवाओं के चलने से ठंड बढ़ने लगी है. प्रदेश के कई जिलों में तापमान तेजी से गिरने लगा है. वहीं, चमोली जिले में स्थित बद्रीनाथ धाम के आसपास झरने और झीलें जम गई है. यहां पारा माइनस 8 डिग्री तक चला गया है. बता दें कि बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद होने में अभी एक हफ्ता बाकी है, लेकिन बढ़ती ठंड ने स्थानीय निवासियों और श्रद्धालुओं के लिए चुनौतियां बढ़ा दी हैं. दरअसल हर क्षेत्र एक सीमा तक ही इंसानों की संख्या झेल सकता है. इसे ही वहन क्षमता कहते हैं. अध्ययन में इसे दो तरह से स्टडी किया गया है. भौतिक वहन क्षमता से पता लगाया गया कि केवल क्षेत्रफल और इंफ्रास्ट्रक्चर के आधार पर अधिकतम कितने लोग एक समय में एक स्थान पर मौजूद हो सकते हैं. लेकिन यह मानक पर्यावरण या सामाजिक स्थिरता को नहीं दर्शाता है. ऐसे में वास्तविक वहन क्षमता बताती है कि बिना पर्यावरण, संसाधनों और स्थानीय समुदाय को क्षति पहुंचाए कितने पर्यटक सुरक्षित रूप से आ सकते हैं.अध्ययन में बताया गया है कि हर दिन बद्रीनाथ की वास्तविक वहन क्षमता 11,833 से 15,778 और केदारनाथ की 9,833 से 13,111 पर्यटकों के बीच होनी चाहिए. वहीं यमुनोत्री के लिए ये सीमा 6,133 से 8,178 और गंगोत्री के लिए 4,620 से 6,160 पर्यटक है. इसका मतलब है कि यदि पर्यटकों की भीड़ इस सीमा के भीतर हो, तो पर्यावरण सुरक्षित रहेगा. संसाधन और बुनियादी ढांचे पर भी भार कम पड़ेगा. इस भीड़ को ध्यान में रखते हुए सरकार ने कई योजनाओं की शुरुआत की. लेकिन उसका पर्यावरण पर नकारात्मक असर देखने को मिल रहा है. चार धाम सड़क परियोजन का मकसद भले ही तीर्थयात्रियों के लिए यात्रा को आसान बनाना हो लेकिन इसने पर्वतीय क्षेत्रों पर भारी दबाव डाला है.लगभग 889 किलोमीटर लंबी इस सड़क परियोजना के तहत निर्माण के लिए 17.5 हेक्टेयर वनभूमि का रास्ते के लिए उपयोग किया गया. बड़े पैमाने पर पहाड़ों की कटाई की गई. जिससे क्षेत्र की ढलानों की स्थिरता कमजोर हुई और जल निकासी तंत्र में बदलाव आया.इसका असर ये हुआ कि इस परियोजना के कारण भूस्खलन की घटनाएं बढ़ गईं. दरअसल पहाड़ी और हिमालयी इलाके में सड़क निर्माण, सुरंग और पुल बनाने से ढलानों पर दबाव बढ़ता है. जिससे भूस्खलन, चट्टानों के गिरने और हिमस्खलन जैसी घटनाओं का खतरा बढ़ता है. अभी पर्यटक केवल चार धाम के रास्ते पर ही सीमित है. वे वहीं रुकते हैं. खाना खाते हैं. आगे बढ़ते हैं. जिससे उस रास्ते पर भीड़भाड़ बढ़ती है. जरुरी है कि पर्यटन का विकेंद्रीकरण हो. जैसे बद्रीनाथ के बगल में तप्त कुंड, ब्रह्म कपाल और केदारनाथ के पास चोराबारी और वासुकि ताल को विकसित किया जाना चाहिए. आसपास के क्षेत्रों जैसे पंडुकेश्वर, गोविंद घाट, जोशीमठ और औली का ‘ऑल वेदर टूरिज्म’ के रूप में विकास हो सकता है. ताकि ग्रामीणों को पर्यटन से फायदा मिल सके और एक ही जगह पर पर्यटकों की भीड़ भी ना रहे.”चार धाम के निकटवर्ती ऐसे अन्य और क्षेत्रों की पहचान की है. उन्होंने ‘घाम तापो’ पर्यटन का सुझाव भी दिया है. सर्दियों के मौसम में हिमालय क्षेत्र में आसमान साफ और सूरज खिला रहता है. यह समय भी पर्यटन के लिए अच्छा माना जाता है. पर्यटकों को यह जानकारी दी जानी चाहिए कि चार धाम क्षेत्र में गैर-यात्रा मौसम में भी घूमने आया जा सकता है. इससे हिमालयी क्षेत्रों में पर्यटन के महीनों की अवधि बढ़ाई जा सकेगी. यह केवल सबसे ज्यादा यात्रा वाले महीनों तक ही सीमित नहीं रहेगी.इसके साथ ही पर्वतीय गांवों में होम स्टे की योजना, वाहन पार्किंग की व्यवस्था, और स्थानीय समुदाय आधारित जिम्मेदार पर्यटन को विकसित करना जैसे सुझाव भी शोधकर्ताओं ने दिए है. सुरक्षित यात्रा के लिए मोबाइल ऐप भी लॉन्च किया जाना चाहिए. ये सब कदम पर्यटन को सुरक्षित, सुविधाजनक और सतत बनाने में मदद करेंगे. हाल ही में, घरेलू पर्यटन में तेज़ी से वृद्धि हुई है, खासकर संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में, जिसमें चार धाम घाटियाँ भी शामिल हैं। सरकार आर्थिक लाभ के कारण पर्यटकों की इस बढ़ती आमद को बेहद वांछनीय मानती है; लेकिन हिमालय जो भारी कीमत चुका रहा है, उस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसकी कीमत सूखती नदियों, पीछे हटते ग्लेशियरों, लुप्त होते जंगलों, ढहते ढलानों और प्रदूषित जल निकायों को चुकानी पड़ रही है। सीधे शब्दों में कहें तो, हिमालयी पर्यटन का वर्तमान स्तर अतीत के प्रति सम्मानजनक नहीं है, वर्तमान में टिकाऊ नहीं है और भविष्य के लिए विनाशकारी है।उच्च हिमालय पर्वतमाला आम तौर पर खड़ी और संकरी घाटियाँ हैं, जो संकरी भी हैं और आम तौर पर दुर्गम हिमनदीय भूभाग में समाप्त होती हैं। चार धाम ऊँचे पहाड़ हैं, जो 50 किलोमीटर के हवाई दायरे में एक-दूसरे के करीब स्थित हैं, जिनसे होकर भारत की सबसे शक्तिशाली नदियाँ—अलकनंदा, मंदाकिनी और पवित्र गंगा बहती हैं, जिससे खूबसूरत लेकिन बेहद नाजुक नदी-घाटियाँ बनती हैं। इसलिए मैदानी इलाकों में पर्यटन एक बात है और पहाड़ों में पर्यटन बिल्कुल अलग। लेकिन सरकार, जिसकी नज़र सिर्फ़ आर्थिक लाभ पर है, ने पहाड़ों की पारिस्थितिकी या अनूठी पहाड़ी संस्कृति से समझौता किए बिना पर्यटकों की वास्तविक संख्या का अनुमान लगाने के लिए कोई वहन क्षमता अध्ययन नहीं किया है। दरअसल, उम्मीद है कि ‘पर्यटन उछाल’ के चलते 2025 में उत्तराखंड में 6.5 करोड़ पर्यटक आएंगे, जबकि अनुमानित जनसंख्या केवल 1.26 करोड़ है।इतने बड़े पर्यटन के लिए बुनियादी ढाँचे की भी ज़रूरत होती है। इसके लिए बड़े हवाई अड्डों की ज़रूरत होती है, जैसे कि जॉली ग्रांट विस्तार परियोजना जिसका काफ़ी विरोध हुआ था, जिसके तहत 87 हेक्टेयर प्राचीन शीशम, सागौन और कत्था के जंगल को गैर-अधिसूचित कर दिया गया। ऐसे समय में जब हिमालय वैश्विक औसत से तीन गुना तेज़ी से गर्म हो रहा है, 2016 में सरकार ने विनाशकारी व्यापक चौड़ीकरण, चार धाम परियोजना शुरू की। इसके तहत पश्चिमी हिमालय से होकर 900 किलोमीटर लंबी 12 मीटर चौड़ी, 10 मीटर पक्की सड़क को हीटिंग रॉड की तरह चलाना था। नतीजतन, 200 से ज़्यादा ढलानों में दरारें पड़ गईं, वनों का नुकसान हुआ, लाखों पेड़ों का कटान हुआ और जल स्रोत सूख गए। ढलानों को सीधा काटने और फिर बुलडोज़र से नदियों में गिराने से वन तल की सबसे ऊपरी परत बनाने वाली टनों उपजाऊ मिट्टी कीचड़ में बदल गई। इस प्रकार, न केवल जंगल नष्ट हुए, बल्कि नदी तल का स्तर भी बढ़ गया, जिससे अचानक बाढ़ आ गई। साथ ही, वनों के क्षरण ने मिट्टी को सूखने में योगदान दिया और पिछले कुछ वर्षों में व्यापक रूप से वनाग्नि देखी गई। ऐसी आग और वाहनों के आवागमन से निकलने वाली कालिख ग्लेशियरों पर जम जाती है, जिससे उनकी परावर्तकता या एल्बीडो कम हो जाती है और उनका पिघलना तेज़ हो जाता है। अध्ययनों से पता चलता है कि कार्बन जमा ग्रीनहाउस गैसों की तुलना में अधिक पिघलने का कारण बन सकता है। पिघलते ग्लेशियर हिमनद झीलों और केदारनाथ जैसी त्रासदियों का कारण बनते हैं। लेकिन हिमालय के ग्लेशियर तीन प्रमुख नदी घाटियों का भी स्रोत हैं: गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र। पिघलते ग्लेशियरों का अर्थ अंततः मृत नदियाँ हैं। और ये घाटियाँ 60 करोड़ से ज़्यादा लोगों का भरण-पोषण करती हैं। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*












