डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड राज्य के रामनगर गाँव के पास स्थित, गर्जिया देवी मंदिर भारत के सबसे पवित्र धार्मिक स्थलों में से एक है। यहाँ की वर्तमान अधिष्ठात्री देवी गर्जिया देवी हैं। ऐसा माना जाता है कि यह 150 वर्ष से भी अधिक पुराना है और राज्य के सबसे प्रतिष्ठित मंदिरों में से एक है। भगवान गणेश और सरस्वती देवी की मूर्तियाँ भी इस मंदिर का एक अभिन्न अंग हैं। गर्जिया देवी मंदिर कोसी नदी के ऊपर एक विशाल चट्टान पर 4.5 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस प्रकार, यह न केवल भक्तों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है, बल्कि पक्षी प्रेमियों के बीच भी एक लोकप्रिय स्थल है और यहाँ हिमालयन किंगफिशर जैसी दुर्लभतम पक्षियों की प्रजातियाँ और कई अन्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं।गर्जिया के निवासियों के लिए, यह मंदिर और इसकी सहायक नदी, दोनों ही बहुत ही शुभ माने जाते हैं। पुजारी और स्थानीय लोग इस बारे में भावुक होकर कहानियाँ सुनाते हैं, लेकिन एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, लगभग 150 साल पहले एक पुजारी ने सपना देखा कि इस इलाके में बाढ़ आ गई है। अगले दिन, गजिया में भीषण बाढ़ आई; हालाँकि, पुजारी ने एक जगह मिट्टी और कीचड़ का एक विशाल ढेर जमा होते देखा। पुजारी ने उस ढेर पर बैठकर पहाड़ से बाढ़ के पानी को रोकने की प्रार्थना करने का निश्चय किया, और वह 100 मीटर लंबा हो गया। तब से, इस स्थान को गर्जिया मंदिर के नाम से जाना जाता है।ढिकुली क्षेत्र का इतिहास कत्यूरी राजाओं से जुड़ा है जिनका शासन सन् 850 से 1060 तक माना जाता है मगर प्रसिद्ध इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे कत्यूरियों का शासन काल 700 ईस्वी तक ही मानते हैं। गर्जिया देवी का यह स्थल सन् 1940 से पूर्व उपेक्षित अवस्था में था मगर इससे पूर्व भी इस स्थान का अस्तित्व था। हां, 1940 से पूर्व गर्जिया देवी मंदिर की स्थिति वर्तमान स्थिति जैसी नहीं थी। इस देवी को उपटा देवी कहा जाता था।वर्तमान में गर्जिया मंदिर जिस टीले पर स्थित है यह कोसी कौशिकी नदी की बाढ़ में कहीं ऊपर से टूट कर बहता हुआ आया था, ऐसी लोगों की धारणा है। उस समय इस टीले की समतल भूमि पर भैरव देवता विराजमान थे मगर वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा होना संभव नहीं माना जाता। वर्ष 1940 से पूर्व यह क्षेत्र पूर्ण रूप से जंगलों से घिरा हुआ था। बद्रीनाथ जाने वाले यात्री इसी गांव के समीप से होकर गुजरते थे। इसी बीच रानीखेत निवासी पं. रामकृष्ण पांडे को इस मंदिर का पहला पुजारी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
1950 के आस-पास श्री 108 महादेव गिरी जी नागा बाबा जिन्हें अनेक सिद्धियां प्राप्त थीं और पहुंचे हुए तांत्रिक थे, यहां आए। संभवत: उन्हीं के एक शिष्य पाठक जी ने अपने गुरु के आदेश पर इस स्थान पर मां की उपासना शुरू की और यहीं झोंपड़ा डाल लिया।
तांत्रिक पाठक जापान की फौज में बर्मा में सिपाही थे। उनकी साधना के फलस्वरूप उन्हें फौज ने पैंसिन पट्टा प्रदान किया था। तांत्रिक नागाबाबा ने राजस्थान से भैरव, गणेश और तीन महादेवियों की मूर्तियों को लाकर यहां स्थापित करवाया।जब नागा बाबा मंत्रोच्चारण से मूर्ति स्थापित करा रहे थे तो एक शेर आकर सामने खड़ा हो गया था। शेर ने अत्यंत तेज गर्जना की जिसे संकेत मानकर मंदिर का नाम गर्जिया देवी रख दिया गया। इसके बाद प्राचीन टीले को काटकर सीढिय़ां बनाई गईं, पक्की कुटिया से मंदिर तक पत्थरों का मार्ग बनवाया गया मगर माता को यह स्वरूप स्वीकार नहीं हुआ।1959-60 की विनाशकारी कोसी का विराट रूप नई एवं प्राचीन मूर्तियों को बहा ले गया। पांडे जी के पुत्रों ने नए सिरे से मंदिर बनाकर मूर्तियां स्थापित कीं। हां, भयानक बाढ़ के कारण टीले की ऊंचाई एवं चौड़ाई बहुत कम हो गई है। सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा। एक दिन पं. पूर्णचंद्र को स्वप्न में माता ने दर्शन दिए। यह बात सन् 1967 की है। स्वप्न में मां ने बताया कि रानीखेत के पास कालिका देवी का मंदिर है। उसी के समीप जंगल में एक वृक्ष की जड़ के पास (काले पत्थर ग्रेनाइट) ही भगवान लक्ष्मी नारायण की मूर्त दबी पड़ी है। माता ने आदेश दिया कि उस मर्ति को वहां से निकालकर गर्जिया देवी मंदिर में स्थापित कर दिया जाए।भक्त हृदय पांडे जी स्वप्न में दिखाई पड़े स्थान पर पहुंचे और खुदाई शुरू कर दी। आश्चर्य तब हुआ जब मूर्तियां निकल गईं मगर मंदिर भवन निर्माण की प्रतीक्षा तक मर्तियां उनकी कुटिया में ही रखी रहीं। इसी बीच ये मूर्तियां चोरी हो गईं। पांडे जी ने मर्तियां काफी खोजीं मगर नहीं मिलीं। इस घटना से वह इतना आहत हुए कि माता की कृपा को भी शंका की दृष्टि से देखने लगे थे किंन्तु वर्ष 1972 में रामनगर रानीखेत राजमार्ग (वर्तमान गर्जियापुल से 100 मी. आगे) से गर्जिया परिसर तक पैदल मार्ग के निर्माण का कार्य शुरू हुआ तो एक दिन जमीन में लक्ष्मी नारायण की मूर्तियां दबी पाईं। पुरातत्व विभाग ने इस बार खोज कर मूर्ति का पंजीकरण किया और गर्जिया देवी के पास ही एक भव्य मंदिर का निर्माण कर उसमें ये मूर्तियां स्थापित करा दी गईं। पुरातत्व विभाग के अनुसार ये मूर्तियां 800-900 वर्ष पुरानी हैं अर्थात् 11वीं 12वीं सदी की हैं ये मूर्तियां। बरसात में जब कौशिकी नदी चढ़ती है तो भक्त इसी मंदिर से हाथ जोड़कर यहीं पूजा-अर्चना कर लेते हैं। कौशिकी नदी का कटाव इस स्थान के अस्तित्व के लिए चिंता का विषय है। हिमालय की पुत्री गर्जिया के संबंध में कई पौराणिक ग्रंथों में भी स्पष्ट हुआ है। गिरिजा के दो रूप माने जाते हैं, एक पति की प्रिया गौरा, उमा अथवा गिरिजा, दूसरा असुरों को नष्ट करने वाला स्वरूप है।गिरिजा देवी के दर्शन मात्र से युवक-युवतियों के विवाह में आ रही बाधाएं समाप्त हो जाती हैं, ऐसी मान्यता है। आज भी युवक-युवतियां मनचाहे जीवनसाथी की प्राप्ति के लिए गिरिजा देवी आकर प्रसाद चढ़ाते हैं और अपनी मनोकामना के लिए चुनरी बांधकर जाते हैं। जब मनोकामना पूरी हो जाती है तो पति-पत्नी जोड़े में आकर पूजन करते हैं। विदेशों तक से लोग गिरिजा देवी के महात्म्य को सुनकर दर्शनार्थ आते हैं। गिरिजा देवी के टीले के नीचे ही मां गौरी के पति भगवान शंकर की गुुफा है जिसमें शिवलिंग बना हुआ है। इसके अलावा ऊपर पहाड़ों पर भैरव मंदिर स्थित है। माना जाता है कि जब तक भैरव दर्शन न किए जाएं, तब तक गिरिजा देवी की कृपा प्राप्ति नहीं होती। वहां उड़द-चावल का भोग लगता है। कुल मिलाकर पर्यटन एवं धार्मिक दृष्टि से काफी विकसित हो चुका है यह स्थान।गर्जिया देवी मंदिर अपनी आध्यात्मिक शक्ति, प्राकृतिक सुंदरता, और पौराणिक कथाओं के कारण प्रसिद्ध है। कोसी नदी के बीच चट्टान पर स्थित यह मंदिर एक चमत्कारी सिद्धपीठ माना जाता है, जहाँ श्रद्धालुओं की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं। इसकी अनूठी स्थिति, कॉर्बेट नेशनल पार्क के पास होने, और प्राचीन सांस्कृतिक महत्व के कारण यह देश-विदेश के श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए एक प्रमुख गंतव्य है।।. *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं*