डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला:
उत्तराखंड पर्वतीय जोत चकबंदी और भूमि व्यवस्था नियमावली को मंजूरी देकर सरकार ने पहाड़ में अनिवार्य चकबंदी की दिशा में कदम बढ़ा दिए थी। मैदानी क्षेत्रों में पहले से ही चकबंदी लागू होने के मद्देनजर पर्वतीय क्षेत्रों के लिए इस नियमावली को कैबिनेट ने मंजूरी दी है। इसके तहत अब आपसी सहमति के आधार पर खातेदारों की बिखरी जोतों को संहत किया जाएगा। साथ ही भूमि अभिलेख अपडेट करने के अलावा गोल खातों में हिस्सेदारी के अंश जोड़े जाएंगे। अहम बात ये है कि मैदानी क्षेत्रों की भांति अब पर्वतीय इलाकों में भी भूमि की आपसी सहमति के आधार पर विनिमय हो सकेगा।
गांव में ग्राम प्रधान की अध्यक्षता में चकबंदी समिति गठित होगी। जो भी ग्राम पंचायत 50 फीसद से अधिक भूमि की चकबंदी का प्रस्ताव देगी, वहां अनिवार्य चकबंदी की अधिसूचना जारी की जाएगी।पर्वतीय क्षेत्र में बिखरी जोत को देखते हुए चकबंदी की बात लंबे समय से उठती रही है, मगर भू-अभिलेख अपडेट न होने, आपसी सहमति न बन पाने समेत अन्य कारणों की वजह से यह मुहिम आगे नहीं बढ़ पाई। हालांकि, राज्य में चकबंदी अधिनियम है, लेकिन चकबंदी की व्यवस्था संपूर्ण हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर जिलों के अलावा देहरादून, पौड़ी, टिहरी, नैनीताल और चंपावत के मैदानी क्षेत्रों तक ही सिमटी है।
सरकार ने पर्वतीय क्षेत्र के लिए स्वैच्छिक चकबंदी का ऐलान करने के साथ ही कुछ गांवों में चकबंदी की, मगर मुहिम नियमावली के अभाव समेत अन्य कारणों से तेजी नहीं पकड़ पाई। अब सरकार ने उत्तराखंड पर्वतीय जोत चकबंदी और भूमि व्यवस्था नियमावली को मंजूरी देकर चकबंदी की मुहिम तेज करने की दिशा में कदम बढ़ाए हैं। इसके तहत जहां बिखरी जोत का संयोजन हो सकेगा, वहीं आपसी सहमति से भूमि का बंटवारा होने पर कृषि में श्रम और समय की बचत भी होगी।
यही नहीं, भूलेखों का दुरुस्तीकरण भी किया जाएगा।अभी तक पर्वतीय क्षेत्र में गोल खाते ही अस्तित्व में हैं, जिसमें पांचवीं पीढ़ी से नाम चले आ रहे हैं। अब इसका दुरुस्तीकरण कर गोल खातों में हिस्सेदारी तय की जाएगी। इससे भूमि संबंधी विवाद नहीं होंगे। चकबंदी होने पर एक व्यक्ति को उसके हिस्से की जितनी जमीन है, वह एक जगह पर दी जाएगी। यदि खेतों और घर के बीच दूरी अधिक है तो ऐसे मामलों में विनिमय भी किया जा सकता है कोरोना की मुश्किल के चलते उत्तराखंड में करीब डेढ़ लाख लोग अपने गांव लौट चुके हैं। हर रोज बड़ी संख्या में बसों-ट्रेनों के ज़रिये प्रवासी पहुंच रहे हैं।
अनुमान है कि 3 लाख से अधिक लोग अपने गांव लौट सकते हैं। राज्य सरकार के सामने बड़ी चुनौती इनके रोज़गार की व्यवस्था करना है। जिन खेतों और उससे जुड़ी समस्याओं को छोड़कर लोग शहरों में मामूली वेतन की नौकरियों के लिए पलायन कर गए थे, वापस लौट रहे लोगों को उनके खेतों से कैसे जोड़ा जाए। इसी कड़ी में राज्य सरकार ने एक जरूरी फ़ैसला लिया है। उत्तराखंड पर्वतीय जोत चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था नियमावली 2020 को मंत्रिमंडल ने 21 मई को मंजूरी दे दी था।
अनिवार्य चकबंदी की दिशा में एक कदम आगे बढ़ा है।राज्य में चकबंदी से जुड़ा विधेयक वर्ष 2016 में पास हो गया था। लेकिन नियमावली नहीं होने की वजह से एक्ट प्रभावी नहीं हो सका। राज्य के शासकीय प्रवक्ता ने बताया कि नियमावली में चकबंदी से जुड़ी प्रक्रिया तय कर दी गई है। पर्वतीय क्षेत्र में चकबंदी के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। वह कहते हैं कि राज्य बनने के बाद बनी सभी सरकारों ने चकबंदी के लिए समिति बनायी, वे उन सभी समितियों में शामिल रहे, लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति न होने की वजह से, चकबंदी नहीं हो सकी।
अब कोरोना के चलते वापस लौटे लोगों के सामने रोजगार का संकट है, तब जाकर सरकार ने ये जरूरी कदम उठाया। प्रदेश में लाखों की तो पहले से पंजीकृत बेरोज़गार हैं। उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों कि चकबंदी अभी मैदानी एवम् तराई क्षेत्रो से पीछे है। यदि ये निष्ठा से कि जाए तो यहां अपार संभावनाएं है। उन्होंने शीघ्र ही एक पृथक चकबंदी विभाग कि मांग को एवम् चकबंदी अधिकारियों की नियुक्ति पर भी ज़ोर दिया। इसके साथ उन्होंने राजस्व विभाग के पास जो संसाधनों की कमी है एवम् विभागीय उदासीनता की ओर एवम् स्वैच्छिक चकबंदी की ओर भी ध्यान आकर्षित किया।
उनके मतानुसार भूमि सुधार एवं बंदोबस्ती तभी संभव हो पाएगी जब मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति और जन सहभागिता होगी। उत्तराखंड विधानसभा ने पर्वतीय क्षेत्रों में खेती को बढ़ावा देने के लिये के लिए छोटे और बिखरे खेतों को एक ही चक में लाने की दिशा में कदम बढ़ाया था। ‘उत्तराखंड पर्वतीय क्षेत्रों के लिए जोत चकबंदी एवं भूमि व्यवस्था विधेयक-2016’ को मंजूरी दी थी। हरिद्वार और ऊधमसिंहनगर के साथ ही कुछ पर्वतीय जिलों के मैदानी क्षेत्र इस कानून की परिधि से बाहर किये गये थे। जबकि, देहरादून, टिहरी, पौड़ी, नैनीताल और चंपावत के मैदानी क्षेत्रों को छोड़ समस्त पर्वतीय क्षेत्र को इसके दायरे में रखा गया था। तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने चकबंदी के लिए चकबंदी परिषद बनाकर अभियान को आगे बढ़ाने के बड़े दावे किये थे।
लेकिन दो साल बीतने के बावजूद त्रिवेंद्र सिंह रावत की सरकार चकबंदी योजना को जमीन पर उतारने में नाकाम रही है।साल 2017 के नवंबर महीने में सरकार ने चकबंदी अभियान के लिये शासनादेश जारी किया था। जिसके तहत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पैतृक जिले पौड़ी के यमकेश्वर ब्लॉक की ग्रामसभा सीला के राजस्व ग्राम पंचूर और उत्तराखंड के तहसील सतपुली स्थित खेरा गांव में चकबंदी की शुरुआत हुई थी।
चकबंदी नहीं होने से उत्तराखंड में कृषि घाटे का सौदा बनती गई और पलायन से हजारों गांव खाली हो गए। यूपी सरकार ने साल 1989 में उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में चकबंदी करने का फैसला किया तो था लेकिन कोई योजना और नियमावली नहीं होने से 1996 में चकबंदी कार्यालय बंद कर दिए गए। लेकिन तमाम राजनीतिक और व्यवहारिक अडचनों के कारण चकबंदी अधिनियम जमीन पर अपना असर नहीं दिखा सका. सरकार परिवर्तन के साथ इस अधिनियम में भी परिवर्तन हुआ अब 2019 में “उत्तराखंड कृषि भूमि एवं भू राजस्व अधिनियम 2019” का प्रारूप तैयार है.
जिसमें 23 अध्याय और 171 धाराएं हैं.गरीब क्रांति अभियान के कपिल डोभाल जो देहरादून में पर्वतीय उत्पादों के प्रचलन को बढ़ाने के लिए अपना व्यवसाय कर रहे हैं. 84 वर्षीय गणेश गरीब ने पर्वतीय चकबंदी के लिए अपना पूरा जीवन दाव पर लगाए हुए हैं. वहीं केवलानंद तिवारी एक्ट पास होने के बाद भी जमीन पर चकबंदी की दिशा पर कोई काम न होने के कारण उच्च न्यायालय नैनीताल की शरण में हैं.आप चंद संघर्षशील व्यक्ति उत्तराखंड में चकबंदी की मुहिम की अलख जगाए हैं,
इस प्रयास के भगीरथ हैं. इन दिनों जब उत्तराखंड के लिए विशेष कानून की बात सोशल मीडिया में चल रही है. तब यह समझना जरूरी है कि धरती बगैर कृषि अधूरी है. कृषि बगैर लाभ के संभव नहीं है.पहाड़ों में लाभकारी कृषि चकबंदी के बगैर संभव नहीं, पर्वतीय भूमि बचे, पहाड़ के लोगों का जमीर बचे, इसके लिए जरूरी है जमीन बचे. जमीन बची रहे इसके लिए जरूरी है पर्वतीय क्षेत्रों में अनिवार्य चकबंदी हो. चकबंदी होने से हर परिवार अपनी सुविधा और आवश्यकता के मुताबिक योजना बनाकर खेती कर सकेगा। गांव के गरीब भूमिहीनों को भी खेती के लिए जमीन मिल सकेगी। ऐसे में उत्तराखंड में चकबंदी के लिये संघर्ष कर लोगों के लिये ये योजना बेहद जरुरी है।
इससे उन भू-माफियाओं पर भी शिकंजा कसा जा सकेगा जो चकबंदी नहीं होने से कृषि और बंजर भूमि पर लंबे समय से कब्जा जमाए हुए हैं। वहीं आम किसान खुशहाली से कोसों दूर हैं। चकबंदी नहीं होने से गांव में खेत, सड़कों, पानी की निकासी से लेकर शौचालय तक के निर्माण में रोजाना विवाद भी होते रहते हैं। वहीं पलायन का दंश सबसे बड़ा है पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की विशिष्ट भाषाई व सांस्कृतिक पहचान रही है। अत्यंत संवेदनशील सीमा के निकट लगातार बदल रहा सामाजिक ताना-बाना आसन खतरे का कारण बन सकता है।
आजपर्वतीय क्षेत्रों में अपराधों में वृद्धि हुई है। विगत समय पर्वतीय क्षेत्र में स्थानों पर हुई घटनाएं आंखें खोलने वाली हैं। इन घटनाक्रमों में पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों में तमाम तरह की आशंकाएं घर करने के साथ ही भारी आक्रोश भी व्याप्त है। इसके साथ ही “लव जिहाद” जैसी घटनाएं भी समय-समय पर सुनाई देने लगी हैं। सामरिक दृष्टि से उत्तराखंड का यह हिमालयी क्षेत्र बेहद संवेदनशील है। पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों की विशिष्ट भाषाई व सांस्कृतिक पहचान रही है।
अत्यंत संवेदनशील सीमा के निकट लगातार बदल रहा सामाजिक ताना-बाना आसन खतरे का कारण बन सकता है। उपरोक्त तथ्य राज्य में असम जैसी परिस्थितियों का कारक भी बन सकते हैं। आदिकाल से सनातन धर्म की आस्था और हिंदू मान बिंदुओं की प्रेरणा रहे भूभाग की पवित्रता व उसके आध्यात्मिक, सांस्कृतिक स्वरूप को बरकरार रखने के लिए संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र को विशेष क्षेत्र के रूप में अधिसूचित किया जाना आज समय की मांग है।
समुदाय विशेष के धर्म स्थलों के निर्माण/स्थापना पर पूर्ण प्रतिबंध के साथ-साथ संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में भूमि के क्रय-विक्रय के लिए विशेष प्राविधान आवश्यक है। भू-कानून के साथ-साथ भूमि कानूनों में सुधार, चकबंदी आदि जैसे विषयों पर भी ठोस उपाय किए जाने आवश्यक है। इस हेतु एक विशेषज्ञ समिति गठित की जाए जो इस संबंध में विभिन्न पहलुओं का अध्ययन कर नए कानून के प्रारूप को तैयार कर सके।
इस दिशा में गंभीरता से कार्य करने की जरूरत है। सूबे के पर्वतीय क्षेत्रों में बिखरी जोतों को एकीकृत करने के मकसद से सरकार ने चकबंदी एक्ट तो बना दिया, लेकिन 4 साल बाद भी इसे लेकर कोई नियमावली तैयार नहीं हो पाई है. लिहाजा प्रदेश के पर्वतीय किसान चकबंदी को लेकर आज भी ठगा सा महसूस कर रहे हैं चकबंदी की नई व्यवस्था को लेकर उत्तराखंड में लंबे समय से बहस जारी है. सरकार द्वारा ये भी कहा गया कि उत्तरप्रदेश चकबंदी कानून में भौगोलिक परिस्थितियों की भिन्नता के लिहाज से कानून उत्तराखंड के अनुकूल नहीं है. ऐसे में सरकार द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों के लिये चकबंदी व्यवस्था की पहल शुरू की गई थी.
आंकड़े बताते हैं कि पहाड़ के लिहाज से चकबंदी व्यवस्था लागू ना होने के चलते पहाड़ी जिलों से बदस्तूर पलायन हुआ है और कृषि उत्पादन में भी कमी आई है. उपेक्षित पड़ी पहाड़ की हजारों हजार नाली कृषि योग्य भूमि आज बंजर पड़ गई है. उत्तराखंड के 9 पर्वतीय जनपदों में आज अनुमानित आबादी 45 से 50 लाख के मध्य हैं जबकि उत्तराखंड के प्रवासी उत्तराखंडियों की जनसंख्या 75 लाख से अधिक है. विशुद्ध पर्वतीय क्षेत्रों के जितनी आबादी है, उससे डेढ़ गुना आबादी आज उपेक्षित पड़ी खेती के कारण प्रवासी का जीवन यापन कर रही है.पर्वतीय क्षेत्रों में चकबंदी का लागू होना बगैर चकबंदी लागू हुए पहाड़ों में हजारों नाली बंजर पड़ रही कृषि भूमि को हम आबाद नहीं कर पाएंगे, फसल अथवा कृषि ही धरती का श्रृंगार है.