डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
जब भी उत्तराखंड की बात करते है तो हमारे जहन में देवीएदेवता की भूमि ऋषी मुनियो साधु सनाशियो की धरती का जीकर आता। परन्तु हमारा ये सूंदर और सांत दिखने वाला उत्तराखंड की धरती को शूरवीरो और देश भक्तो की जननी भी कहा जाता है देश की आजादी की पहली लड़ाई में काली कुमाऊं की अहम भूमिका रही है। यहां से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ उठा विरोध का स्वर भले ही अंजाम तक न पहुंचा हो, लेकिन ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिलाने देने वाले इस विद्रोह ने पूरी क्रांति नया रंग दे दिया और इसी क्रांति के चलते काली कुमाऊं के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने अपनी जान देश के लिए न्यौछावर कर दी। काली कुमाऊं में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत का झंडा कालू सिंह महर ने बुलंद किया।
उन्होंने पहले स्वतंत्रता संग्राम में काली कुमाऊं के लोगों की मंशा को भी विद्रोह के जरिए जाहिर करावा दिया। हालांकि इसकी कुर्बानी उन्हे स्वयं तो चुकानी ही पड़ी साथ ही उनके दो विश्वस्त मित्र आनंद सिंह फत्र्याल व विशन सिंह करायत को अंग्रेजों ने लोहाघाट के चांदमारी में गोली से उड़वा दिया। आजादी की पहली लड़ाई में काली कुमाऊं में हुआ गदर आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है।
यहां कालू सिंह महर के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ हुई बगावत ने ब्रिटिश हुकूमत की चूलें हिला कर रख दी थी। सिर्फ कालू महर ही नहीं बल्कि आनंद सिंह फत्र्याल और बिशन सिंह करायत ने भी अपने प्राणों की आहुति दी। कालू सिंह महर का जन्म लोहाघाट के नजदीकी गांव थुआमहरा में 1831 में हुआ। कालू सिंह महर ने अपने युवा अवस्था में ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया। इसके पीछे मुख्य कारण रूहेला के नबाव खानबहादुर खान, टिहरी नरेश और अवध नरेश द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ बगावत के लिए पूर्ण सहयोग सशर्त देने का वायदा था। इसके बाद कालू माहर ने चौड़ापित्ता के बोरा, रैघों के बैडवाल, रौलमेल के लडवाल, चकोट के क्वाल, धौनी, मौनी, करायत, देव, बोरा, फत्र्याल आदि लोगों के साथ बगावत शुरू कर दी और इसकी जिम्मेदारी सेनापति के रूप में कालू माहर को दे दी गई।
पहला आक्रमण लोहाघाट के चांदमारी में स्थिति अंग्रेजों की बैरेंकों पर किया गया। आक्रमण से हताहत अंग्रेज वहां से भाग खड़े हुए और आजादी के दिवानों ने बैरोंकों को आग के हवाले कर दिया। पहली सफलता के बाद नैनीताल और अल्मोड़ा से आगे बढ़ रही अंग्रेज सैनिकों को रोकने के लिए पूरे काली कुमाऊं में जंग.ए.आजादी का अभियान शुरू हुआ। इसके लिए पूर्व निर्धारित शर्तो के अनुरूप पूरे अभियान को तीनों नवाबों द्वारा सहयोग दिया जा रहा था। आजादी की सेना बस्तिया की ओर बढ़ी, लेकिन अमोड़ी के नजदीक क्वैराला नदी के तट पर बसे किरमौली गांव में गुप्त छुपाए गए धन, अस्त्र.शस्त्र को स्थानीय लोगों की मुखबिरी पर अंग्रेजों ने अपने कब्जे में ले लिया और काली कुमाऊं से शुरू हुआ आजादी का यह अभियान बस्तिया में टूट गया।
परिणाम यह हुआ कि कालू माहर को जेल में डाल दिया गया, जबकि उनके नजदीकी सहयोगी आनंद सिंह फत्र्याल एवं बिशन सिंह करायत को लोहाघाट के चांदमारी में अंग्रेजों ने गोली से उड़ा दिया। अंग्रेजों का कहर इसके बाद भी खत्म नहीं हुआ और अस्सी साल बाद 1937 तक काली कुमाऊं से एक भी व्यक्ति की नियुक्त सेना में नहीं की गई। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने यहां के तमाम विकास कार्य रुकवा दिए और कालू माहर के घर पर धावा बोलकर उसे आग के हवाले कर दिया। कालू महर को उत्तराखंड का पहला स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव हासिल है। उन्होंने सैन्य संगठन करके अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलाया था। प्रदेश से हर वर्ष हज़ारों युवा भारतीय सेना में खुशी.खुशी देश सेवा के लिए भर्ती होते हैं। आज उत्तराखंड के जाबाज़ देश की हर पलटन में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इससे गौरव की बात और क्या होगी की आज देश के अहम् पदों पर उत्तराखंड के वीर नियुक्त हैं।