डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
बेरीनाग, जिसे बेड़ीनाग या बेणीनाग भी कहा जाता है, यह मध्य हिमालय क्षेत्र उत्तराखण्ड राज्य के अन्तर्गत कुमाऊँ मंडल के पिथौरागढ जनपद का एक मुख्य नगर तथा तहसील है। यहा स्थानीय भाषा में इसे बेइनाग भी कहा जाता है। नगर के समीप पहाड़ी ऊपर एक भव्य प्राचीन बेणीनाग देवता का का ऐतिहासिक मन्दिर है, जो कुमाऊँ के प्रसिद्ध 7 नाग मन्दिरों में एक है। कुमाऊँ मंडल में इस मंदिर की लोकप्रियता और प्रसिद्धी के कारण इस क्षेत्र को बेणीनाग कहा जाने लगा। समय बीतने के साथ.साथ यह नाम पहले बेणीनाग से बेड़ीनाग हुआ और फिर ब्रिटिश काल मे अंग्रेजों ने बेड़ीनाग से बदलकर बेरीनाग नाम रख दिया। क्योकि अंग्रेजों को बेड़ीनाग बोलने मै परेशानी होती थी।
बेरीनाग की भैगोलिक स्थिति समुद्र तल से इसकी औसत ऊंचाई 1,860 मीटर 6,100 फीट है। यह राष्ट्रीय राजधानी नई दिल्ली के 460 किमी उत्तर.पूर्व और राज्य की राजधानी देहरादून के 380 किमी पूर्व में स्थित है। बेरीनाग कुमाऊँ मण्डल के अंतर्गत आता है और यह कुमाऊँ के मुख्यालय नैनीताल के 160 किमी उत्तर.पूर्व में स्थित है।
बेरीनाग हिमालय पर्वतमाला की कुमाऊंनी पहाड़ियों में बसा है। नगर के आस पास फैले जंगलों में चीड़, बांज, देवदार और साल के पेड़ बहुतायत में पाए जाते हैं। यहाँ के अधिकतर पहाड़ चूना पत्थर, बलुआ पत्थर, स्लेट, गनीस और ग्रेनाइट इत्यादि के बने हैं। बेरीनाग की जलवायु कुमाऊँ के अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की तरह ही उप.ऊष्णकटिबंधीय है। गर्मियों जून में औसत दैनिक तापमान 21.4 डिग्री सेल्सियस के आसपास होता है, जबकि सर्दियों जनवरी में यह लगभग 7.9 डिग्री सेल्सियस तक गिर जाता है। वर्ष भर में औसत तापमान 13.5 डिग्री सेल्सियस तक की भिन्नता प्रदर्शित करता है। सबसे शुष्क और सबसे नम महीनों के बीच वर्षा का अंतर 424 मिमी रहता है। सबसे कम वर्षा नवंबर में होती है। यहा सबसे ज्यादा वर्षा जुलाई में सबसे अधिक वर्षा होती है।
बेरीनाग ऐतिहासिक तौर पर गंगोली क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है। यहाँ तेरहवीं शताब्दी से पहले कत्यूरी राजवंश का शासन था। तेरहवीं शताब्दी के बाद यहाँ मनकोटी राजाओं का शासन स्थापित हो गयाए जिनकी राजधानी मनकोट में थी। सोलहवीं शताब्दी में कुमाऊँ के राजा बालो कल्याण चन्द ने मनकोट पर आक्रमण कर गंगोली क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। इसके बाद यह क्षेत्र 1790 तक कुमाऊँ का हिस्सा रहा। 1790 में गोरखाओं ने कुमाऊँ पर आक्रमण कर कब्ज़ा कर लिया और फिर 1815 के गोरखा युद्ध में गोरखाओं की पराजय के बाद यहाँ अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया।अंग्रेजी शासन काल में यहाँ चाय के कई बागान स्थापित किये गए। लगभग दो सदियों तकए बेरीनाग और चौकोरी में कई हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बागान फैले हुए थे। 1864 में ये बागान अंग्रेजी व्यापारी थाॅमस मैकिंस और एडवियरस स्लेनेगर स्टेपॉर्ड ने अपने अधिकार मे ले लिया, जो ब्रिटेन में पंजीकृत एक कंपनी थी। 1869 में ये कुमाऊँ.अवध प्लांटेशन कंपनी के स्वामित्व में आये और उसके बाद जेम्स जॉर्ज स्टीवेन्सन ने एक पंजीकृत बिक्री पत्र द्वारा इन्हें खरीद लिया। 1919 में यह भूमि ठाकुर देव सिंह बिष्ट और चंचल सिंह बिष्ट ने खरीदी थी।
1964-65 में इस क्षेत्र में कुल 9,667 नाली 195.4 हेक्टेयर क्षेत्र में चाय के बागान फैले हुए थे। 80.90 के दशकों में इन बागानों में चाय का उत्पादन समाप्त सा हो गया और फिर धीरे धीरे एक पूरे शहर ने यहां आकार ले लिया। बेरीनाग क्षेत्र राईआगर और उडियारी के माध्यम से आस.पास के अधिकतर हिस्सों से जुड़ा हुआ था। इसी कारण 2004 में डीडीहाट तहसील के 298 गांवों को स्थानांतरित कर बेरीनाग तहसील का गठन कर दिया गया। 2014 में नगर के केंद्र से होकर जाने वाली सड़क राष्ट्रीय राजमार्ग घोषित हो गयीय राष्ट्रीय राजमार्ग 309ए नामक यह राजमार्ग बेरीनाग को अल्मोड़ा, बागेश्वर और गंगोलीहाट से जोड़ता है।
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में बेरीनाग में नाग मंदिरों का इतिहास आर्यों से भी पहले का रहा है। काकेशियन आर्यों के इस क्षेत्र में आने से पहले यहां पर नाग वंश का शासनकाल था। नाग वंश के प्रतापी शासकों के नाम पर आज भी उनके मंदिर हैं। धार्मिक पक्षकार इन्हें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पराजित किए गए कालीनाग का वंशज मानते हैंए लेकिन इतिहासकार काकेशियन आर्यों के आगमन से पूर्व के नागवंश से जोड़ते हैं। जो भी हो यह क्षेत्र ऐसा है जहां पर मंदिर ही नहीं बल्कि पहाडिय़ों के नाम भी नागों के नाम से हैं। इतिहास देखने पर पता चलता है कि आर्यों के भारत में आने से पहले हिमालयी क्षेत्र में नागवंश का शासनकाल था कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश, उत्त्तराखंड और नेपाल तक नाग वंश के होने के प्रमाण हैं। कश्मीर में भी अनंतनाग, बेरीनाग है तो उत्त्तराखंड के मनकोट क्षेत्र में कई नागों के नाम के स्थल और मंदिर हैं। इतिहासकार बताते हैं कि नागवंश ने इस क्षेत्र में लगभग एक हजार वर्षों तक शासन किया। जिसमें कई प्रतापी राजा भी हुए। जब यहां पर काकेशियन आर्य पहुंचे तो यहां मौजूद नाग लोगों ने अपने प्रतापी राजा के नाम पर मंदिर बनाए जो आज आस्था के प्रमुख केंद्र बने हैं। पहाड़ में आज भी भूमिया देव को पूजा जाता है। तब नागवंशीय लोगों ने भी प्रतापी राजा को भी भूमि का देव मानते हुए पूजा था। नाग मंदिर आज इस क्षेत्र में आस्था के प्रमुख केंद्र हैं। जहां पर नागों के अलग.अलग मंदिर हैं। प्रमुख मंदिरों में बेरीनाग, धौली नाग, फेणी नाग, पिंगली नाग, काली नाग, सुंदरी नाग है। यहां तक कि कुछ पहाड़ों का नाम तक नागों के नाम पर है। धौलीनाग बागेश्वर जिले के कमेड़ी देवी के पास स्थित है तो सुंदरीनाग मुनस्यारी विकास खंड के तल्ला जोहार में है। इन नाग मंदिरों और पहाड़ों का एक दूसरे से संबंध है। ये नाग मंदिर आज इस क्षेत्र के लोगों के ईष्ट देवता हैं। इन मंदिरों में रहने वाले देवताओं को बेहद शक्तिशाली माना जाता है। अलबत्त्ता इस क्षेत्र विशेष के अलावा अन्य स्थानों पर नाग के मंदिर नहीं हैं। अतीत में छोटे .छोटे मंदिर अब भव्य रूप ले चुके हैं।
बेरीनाग की चाय इंग्लैंड, स्वीडन सहित कई यूरोपीय मुल्कों की पहली पसंद रही है। आज भी यहां करीब सौ एकड़ की भूमि पर चाय बागान बचे हैं, लेकिन प्रभावशाली लोग आए दिन चाय बागानों को तबाह कर अपनी इमारतें खड़ी कर रहे हैं। इस गोरखधंधे को रोकने की न तो कभी प्रशासन ने कोशिश की और न ही टी.बोर्ड बागानों की बचाने की सुध ली। चाय बागानों की दुर्दशा देखकर कहा जा सकता है कि उत्तराखंड को टी.स्टेट बनाने का दावा झूठा साबित हो रहा है। ऐसे में अगर कोई ठोस कदम नही उठाया गया तो, वो दिन दूर नहीं जब यहां के चाय बागानों पर पूरी तरह भू.माफियों का कब्जा हो जाएगा। एक दौर में दुनिया को नंबर वन क्वालिटी की चाय मुहैया कराने वाले बेरीनाग के चाय बागान नष्ट हो रहे है। चाय बागानों की इस बदहाली ने जहां रोजगार को प्रभावित किया है, वहीं एक पहचान को भी इतिहास के पन्नों में समेट दिया है। खंडर में तब्दील बेरीनाग की ऐतिहासिक चाय फैक्ट्री यहां के उजड़ते चाय उद्योग की दास्तां बयां कर रही है। 1864 में बिट्रिश व्यवसायी हिली ने यहां चाय बागान और फैक्ट्री की शुरूआत की थी।
आजादी के बाद भी यहां चाय का उत्पादन होता रहा थाए लेकिन भूमि विवाद हुक्मरानों की अपेक्षा के चलते आज ये उद्योग पूरी तरह खत्म हो गया हैण् यहां चाय का कारखाना खुला और यहां की चाय विदेशों में जाने लगी। बाद में मालदार परिवार भी इसका रखरखाव नहीं कर पाया तो धीरे.धीरे यहां के चाय बागान उजड़ने लगे अब तो यहां सिपर्फ अतीत की यादें भर शेष रह गई हैं। उत्तराखंड में क्रमशः अदलती.बदलती सरकारों मे शीर्ष नेतृत्व के अभाव, तथा प्रदेश की समृद्धि व जनसरोकारों हेतु स्थापित सरकारों का विजन न होने से, प्रदेश के प्रबुद्ध जनमानस के सम्मुख घोर निराशा ही प्रकट हुई है। हैरत का विषय है, जिस उत्तराखंड से अंग्रेज हुक्मरानों ने चाय उद्योग की शुरुआत की थी, जिस क्षेत्र की चाय के दीवाने दुनियाभर में थे, पलायन आयोग की ओर से पेश की गई ताजा रिपोर्ट के मुताबिक गांव लौटे प्रवासियों में से 65 फीसदी लोग ऐसे हैं जो अब उत्तराखंड में ही रहना चाहते हैं। यहीं पर रह कर अपना जीवन यापन करना चाहते हैं। वहीं 35 फीसदी लोग ऐसे हैं जो वापस बाहरी राज्यों में जाना चाहते हैं। पिछले 20 सालों में उत्तराखंड में पलायन की समस्या बेहद गंभीर हो गई थी। सरकारों को ये समझ नहीं आ रहा था कि आखिर वो लोगों को दूसरे राज्यों मे जाने से कैसे रोकें। लेकिन कोरोना महामारी ने इस समस्या को 65 फीसदी तक लगभग खत्म कर दिया है। या यूं कहें कि कोरोना महामारी एक तरीके से प्रदेश सरकार के लिए पलायन के मुद्दे पर वरदान साबित करना है।