डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
मूसा जाति के घासदार पौधे और उनके द्वारा उत्पादित फल को आम तौर पर केला कहा जाता है। मूल रूप से ये दक्षिण पूर्व एशिया के उष्णदेशीय क्षेत्र के हैं और संभवतः पपुआ न्यू गिनी में इन्हें सबसे पहले उपजाया गया था। आज, उनकी खेती सम्पूर्ण उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में की जाती है। केले का सर्वप्रथम प्रमाण 4000 साल पहले मलेशिया में मिला था। केला खाने के संदर्भ में युगांडा पहले स्थान पर है, जहां प्रति व्यक्ति 1 साल में लगभग 225 खेले खाए जाते हैं। केले के पौधे मुसाके परिवार के हैं। मुख्य रूप से फल के लिए इसकी खेती की जाती है और कुछ हद तक रेशों के उत्पादन और सजावटी पौधे के रूप में भी इसकी खेती की जाती है।
चूंकि केले के पौधे काफी लंबे और सामान्य रूप से काफी मजबूत होते हैं और अक्सर गलती से वृक्ष समझ लिए जाते हैं, पर उनका मुख्य या सीधा तना वास्तव में एक छद्म तना होता है। कुछ प्रजातियों में इस छद्म तने की ऊंचाई 2.8 मीटर तक और उसकी पत्तियाँ 3.5 मीटर तक लम्बी हो सकती हैं। प्रत्येक छद्मतना हरे केलों के एक गुच्छे को उत्पन्न कर सकता है, जो अक्सर पकने के बाद पीले या कभी.कभी लाल रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। फल लगने के बाद, छद्मतना मर जाता है और इसकी जगह दूसरा छद्मतना ले लेता है। केले के फल लटकते गुच्छों में ही बड़े होते हैं। जिनमें 20 फलों तक की एक पंक्ति होती है जिसे हाथ भी कहा जाता है और एक गुच्छे में 3-20 केलों की पंक्ति होती है। केलों के लटकते हुए सम्पूर्ण समूह को गुच्छा कहा जाता है, या व्यावसायिक रूप से इसे बनाना स्टेम कहा जाता है और इसका वजन 30-50 किलो होता है। एक फल औसतन 125 ग्राम का होता है, जिसमें लगभग 75 प्रतिशत पानी और 25 प्रतिशत सूखी सामग्री होती है।
प्रत्येक फल केला या उंगली के रूप में ज्ञात में एक सुरक्षात्मक बाहरी परत होती है छिलका या त्वचा जिसके भीतर एक मांसल खाद्य भाग होता है। क्षेत्रफल व उत्पन्न की दृष्टि से आम के बाद केले का क्रमांक आता है। केले के उत्पन्न को देखे तो भारत का दूसरा क्रमांक है। भारत में अंदाजे दोन लाख बीस हजार हेक्टर क्षेत्रफल पर केले लगाए जाते हैं। केले का उत्पादन करने वाले प्रांतों में क्षेत्रफल की दृष्टि से महाराष्ट्र का तिसरा क्रमांक है, फिर भी व्यापारी दृष्टि से या परप्रांत में बिक्री की दृष्टि से होने वाले उत्पादन में महाराष्ट्र पहला है। उत्पादन के लगभग ५० प्रतिशत उत्पादन महाराष्ट्र में होता है। फिलहाल महाराष्ट्र में कुल चवालिस हजार हेक्टर क्षेत्र केले की फसल के लिए है उसमें से आधेसे अधिक क्षेत्र जलगांव जिले में है इसलिए जलगांव जिले को केलेका भंडार कहते है।
मुख्यतः उत्तर भारत में जलगाव भाग के बसराई केले भेजे जाते हैं। इसी प्रकार सौदी अरेबिया इराण, कुवेत, दुबई, जापान और युरोप में बाजार पेठ में केले की निर्यात की जाती है। उससे बड़े पैमाने पर विदेशी चलन प्राप्त होता है। केले के ८६ प्रतिशत से अधिक उपयोग खाने के लिए होता है। पके केले उत्तम पौष्टिक खाद्य होकर केले के फूलए कच्चे फल व तने का भीतरी भाग सब्जी के लिए उपयोग में लाया जाता है। फल से पावडर, मुराब्बा, टॉफी, जेली आदि पदार्थ बनाते हैं। सूखे पत्तों का उपयोग आच्छन के लिए करते हैं। केले के तने और कंद के टुकडे करके वह जानवरो के लिए चारा के रुप में उपयोग में लाते है।
केले के झाड का धार्मिक कार्य में मंगलचिन्ह के रुप में उपयोग में लाए जाते हैं। केले को लगाने का मोसम जलवायु के अनुसार बदलता रहता है कारण जलवायु का परिणाम केले के बढ़ने पर, फल लगने पर और तैयार होने के लिए लगने वाली कालावधि पर निर्भर करता है। जलगाँव जिले में केले लगाने का मौसम बारिश के शुरू में होता है। इस समय इस भाग का मौसम गरम रहता है। कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से लोगों में इम्यूनिटी की खासी कमी हो जाती है। किसी भी बीमारी से लड़ने के लिए शरीर में इम्यूनिटी स्ट्रांग होना चाहिए। केले की खास बात ये है कि इसमें विटामिन.सी के अलावा फाइबर, पोटाशियम, विटामिन.बी6 और पानी प्रचुर मात्रा में होता है। पर्वतीय क्षेत्रों के फल भी अपने आप में खास होते हैं, जिनका रसीला स्वाद लोगों की जुबां पर एक बार चढ़ जाए तो उतरने का नाम ही नहीं लेता है। यही नहीं ये फल अपने औषधिय गुणों से भी भरपूर होते हैं।
पहाड़ के गर्म घाटी वाले क्षेत्रों में इन दिनों पहाड़ी केले की फसल देखने को मिल रही है। नेपाल. सीमा से लगी काली नदी घाटी क्षेत्र में उत्पादित होने वाला खास प्रजाति का मालभोग केला इन दिनों बाजार में खूब बिक रहा है। जिसकी मांग बाजार में लगातार बढ़ती जा रही है। ये केला ग्रामीणों की आमदनी का जरिया बना हुआ है। मगर पलायन और आपदा की मार के चलते इन खास केलों का उत्पादन लगातार घटता जा रहा है। काली नदी घाटी में तहसील डीडीहाट के कटाल, सांवलीसेरा, थाम, गर्जिया, कूटा, जमतड़ी, तल्लाबगड़ समेत पिथौरागढ़ तहसील के काली सहित अन्य नदी घाटी के गांव और तहसील गंगोलीहाट के पोखरी के निचले स्थानों पर मालभोग और तप्पसी केले का उत्पादन होता है। गौर हो कि मालभोग केला 2 से 3 इंच तक का होता है। इसके साथ ही ये कई बीमारियों में भी अचूक दवा का काम करता है। ये केला पेट दर्द, बुखार और डायरिया की पारम्परिक दवा के रूप में इस्तेमाल होता है। इसके साथ ही काली नदी घाटी क्षेत्र में लम्बे आकार के तप्पसी केले का भी उत्पादन होता है।
ये केला सिरदर्द, सर्दी और जुखाम में गर्म कर दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है। मालभोग और तप्पसी केले की बाजार में खूब डिमांड रहती है। मालभोग छोटा केला 50 रुपये दर्जन और तप्पसी बड़ा केला 90 रुपये दर्जन बिकता है। घाटी के सभी इलाकों में इनका उत्पादन नहीं होता। निचली और गर्म घाटियों में ही इन केलों की पैदावार होती है। तप्पसी केले की पैदावार काफी कम होती है। वहीं इसके स्थान पर अब केले का उत्पादन बढ़ने लगा है। जो लोगों के रोजगार का साधन भी बन रहा है। अहम सवाल यह भी है कि सरकार के फैसलों और नीति.निर्धारण में भागीदारी करने वाले को सरकार के फैसलों और नीतियों को अधिक जनपक्षीय बनाने पर जोर देना चाहिए या किसी खास गांव पर अपना ध्यान केंद्रित करने पर दरअसल गांवों को एक हद तक आत्मनिर्भर बनाकर, गांव के लोगों के लिए रोजी.रोजगार के साधन मुहैया कराकर ही गांवों का विकास संभव है। ऐसी व्यवस्था के बगैर गांवों की तस्वीर में कभी कोई मुकम्मल बदलाव नहीं हो सकता। जो भी बदलाव होगा, उसके भी टिकाऊ होने की कल्पना नहीं की जा सकती। कोरोना वायरस के संक्रमण से अब कोई भी अछूता नहीं है चाहे वह उद्योग जगत हो या फिर कृषि जगत। भारत में किसान पहले से ही आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं और इस नई महामारी ने उनकी मुसीबतें और बढ़ा दी हैं।