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भूमि अधिग्रहण कानून से जूझता उत्तराखंड

21/10/20
in उत्तराखंड
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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तर प्रदेश जंमीदारी विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम 1950 में एक बड़ा बदलाव किया है। इस कानून के अंर्तगत धारा 143 जो भू उपयोग से सम्बंधित है, में बदलाव कर कृषि भूमि को गैर कृषि के लिए बिना भू उपयोग बदले इस्तेमाल करने की इजाजत दे दी गयी है। इस संशोधन को इस धारा के क में सम्मिलित किया गया है। इस संशोधन से कृषकों की उपज देने वाली जमीन अन्य उद्योग धंधों को खोलने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है। इसी तरह धारा 154 जो पहले प्रदेश में साढ़े बारह एकड़ से अधिक कृषि भूमि को खरीदने से रोकता है, अब इसमें संशोधन करके उप धारा.2 जोडऩे से पर्वतीय क्षेत्र में उद्योग के लिए भूमि की खरीद की सीमा हटा दी गयी है। सरकार द्वारा कृषि भूमि को पट्टे पर देने की नीति तैयार करने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है। किसानों द्वारा तीस साल के लिए भूमि लीज पर देने के एवज में किसानो को भूमि का किराया दिया जाएगा।
राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में, खेती, कृषि, बागवानी, जड़ी.बूटियों, ऑफ.सीजन सब्जियों, दूध उत्पादन, चाय बागान, फल संकरण और सौर ऊर्जा के लिए भूमि पट्टे की बाधाओं को नीति से हटा दिया गया है। अब कोई भी संस्था, कंपनी, फर्म या एनजीओ 30 साल की लीज पर अधिकतम 30 एकड़ कृषि भूमि को पट्टे पर ले सकती है। विशेष परिस्थितियों में अधिक भूमि लेने का प्रावधान भी रखा गया है। यदि खेत के आसपास सरकारी जमीन है, तो जिला मजिस्ट्रेट की अनुमति से शुल्क का भुगतान करके इसे पट्टे पर लिया जा सकता है। राज्य सरकार ने भूमि के चकबंदी में कठिनाइयों के मद्देनजर यह नीति बनाई है। भूमि अधिग्रहण में संशोधन कर दिया गया है। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में ग्रामीण इलाकों में भूमि अधिग्रहण पर चार गुना और शहरी इलाकों में दोगुना मुआवजा देने का प्रावधान था। इसे घटाकर अब दो गुना कर दिया गया है। राजस्व विभाग के अधिकारी अब नए सिरे से आकलन कर किसानों की सूची बनाने में जुट गए हैं। ग्रामीण इलाकों में केंद्रीय परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण बाजार भाव पर ही होगा।।
2015 में सरकार ने इसमें संशोधन किया था, जिसे लेकर राज्यों में संशय था। कुछ राज्यों की मांग पर केंद्र सरकार ने इस बारे में स्पष्टीकरण जारी किया है। इसमें कहा गया है कि भूमि का मुआवजा वही होगा, जो राज्यों ने निर्धारित किया है। अलग राज्य बनाने के बाद भी पर्वतीय कृषि उत्पादों का न तो राज्य सरकारों ने कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है और न ही उनकी खरीद की गारंटी की गई है। पूरे देश में और हमारे राज्य के मैदानी जिलों में भी सरकार द्वारा कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित कर उसके खरीद की गारंटी के लिए सरकारी क्रय केन्द्र खोले जाते हैं। मगर पहाड़ के कृषि उत्पादों का न तो राज्य सरकार ने कोई न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है और न ही इसकी खरीद की गारंटी के लिए सरकारी क्रय केन्द्र खोले गए हैं। पहाड़ के किसानों की राज्य सरकार द्वारा की जा रही इस पूर्ण अनदेखी के चलते यहाँ का किसान खेती के प्रति लगातार उदासीन और हतोत्साहित होता रहा है। कठिन जीवन स्थितियों और कठोर मेहनत के बल पर पहाड़ के किसानों द्वारा पैदा किये गए इन जैविक उत्पादों को कौड़ियों के भाव लुटाने के लिए उन्हें मजबूर है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद भी पहाड़ की कृषि को रोजगारपरक बनाने के लिए एक ठोस नीति बनाने के बजाय सरकारों ने कृषि क्षेत्र पर हमले तेज किए। कृषि क्षेत्र के लिए आधारभूत ढांचागत सुविधाएँ उपलब्ध कराने, राज्य द्वारा कृषि में पूंजी निवेश को बढ़ावा देने की नीति के उलट ऊर्जा प्रदेश, इको ट्यूरिज्म और औद्योगिकीकरण के नाम पर किसानों की जमीनों को कारपोरेट घरानों और पूंजीपतियों के हवाले किया जा रहा है।
कृषि क्षेत्र के विकास और राज्य की 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी की आजीविका की सुरक्षा के लिए जिन प्राथमिक कदमों को उठाने की राज्य सरकारों से उम्मीद थी वो उनके एजंडे से पूरी तरह गायब हैंण् पहाड़ में पिछड़े किस्म के भूमि सम्बन्ध और अति पिछड़ी उत्पादन पद्धति में किसी तरह के बदलाव की कोई कोशिश नहीं की गईण् इसके चलते खेती लगातार अलाभप्रद और अरुचिकर होती गई। राज्य बन जाने के बाद भी स्थितियों में कोई बदलाव आता न देख आज बड़े पैमाने पर किसान पलायन को मजबूर हो गए हैं। आज पहाड़ में औसतन प्रति परिवार आधा एकड़ कृषि भूमि ही किसानों के पास बची है। कृषक आबादी के भूमिहीनता की स्थिति में पहुंचते जाने और रोजगार के कोई नए क्षेत्र विकसित न होने के कारण ग्रामीणों के सामने रोटी के लिए पलायन ही एकमात्र रास्ता बचा रह गया। आज की परिस्थियों को ध्यान में रख कर भूमि की सीलिंग सीमा को घटा कर उपरोक्त भूमि असुंतलन को ठीक करने की जरूरत है। हरिद्वार का क्षेत्रफल उत्तराखंड में मात्र 5 प्रतिशत है। जबकि राज्य बनते समय राज्य की कुल आबादी में हरिद्वार का हिस्सा 20 प्रतिशत थाण् इसी तरह राज्य की कृषि भूमि के मामले में भी जो 14 प्रतिशत कृषि भूमि थी, उसमें अकेले 5 प्रतिशत हरिद्वार की है। यानी कुल कृषि भूमि का लगभग 35 प्रतिशत, इसका नतीजा यह हुआ कि आबादी के हिसाब से विकास कार्यों का 20 प्रतिशत बजट और कृषि पर मिलने वाली सुविधाओं का 35 प्रतिशत अकेले राज्य के 5 प्रतिशत क्षेत्रफल हरिद्वार में जाने लगा। राज्य बनने के बाद संशाधनों के इस असमान वितरण के कारण पहाड़ से पलायन तेजी से बढ़ने लगा। इस पलायन से राज्य के मैदानी क्षेत्रों में आबादी का घनत्व और बढ़ता गया। इसने विकास और राज्य द्वारा पूंजी निवेश में पहाड़ और मैदान के बीच की खाई को और भी चौड़ा कर दिया है।
यही नहीं राज्य विधानसभा और लोकसभा में प्रतिनिधित्व के मामले में भी यह खाई और चौड़ी होती जा रही हैण् भविष्य में होने वाले चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन के बाद उत्तराखंड विधान सभा में पहाड़ मैदान का अनुपात क्रमशः 35-65 तक पहुंच सकता है। अगर पहाड़ में कृषि भूमि के आंकड़ों पर नजर डालें तो सन् 1823 के बंदोबस्त के समय पहाड़ में 20 प्रतिशत भूमि पर खेती होती थी। मगर सन् 1865 में अंग्रेजों द्वारा वन विभाग का गठन करने और वन कानूनों को लागू करने के बाद किसानों के हाथ से जमीनों के छिनने का सिलसिला शुरू हो गया था। सन् 1958 के अंतिम बंदोबस्त के समय उत्तराखंड में ;हरिद्वार को छोड़कर, मात्र 9 प्रतिशत कृषि भूमि ही बची थी। ताजे अनुमान के अनुसार राज्य बनने के बाद इन 19 वर्षों में राज्य की कृषि भूमि में से 1 लाख हैक्टेयर से ज्यादा भूमि कृषि से बाहर निकल चुकी हैण् सात राज्यों ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में प्रस्तावित प्रावधानों को अपना लिया है, जबकि 14 राज्यों ने इसमें मामूली बदलाव किया है। इन बदलावों ने कानून को काफी हद तक निष्प्रभावी बना दिया है।गौर करने लायक बात है कि इस दौरान गरीब व सीमांत किसानों की जमीनें ही मुख्य रूप से खेती से बाहर निकली हैण्इसके साथ ही हिमांचल प्रदेश की तर्ज पर बाहरी लोगों के कृषि भूमि खरीदने पर रोक लगाने की जरूरत है। नए भूमि सुधार कानून में इन बुनियादी सवालों को प्रमुखता मिलनी चाहिए। पूरे राज्य के लिए एक नया भूमि सुधार कानून लाना उत्तराखंड राज्य सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

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