डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आर्यभट्ट ने अपने ग्रन्थ ‘आर्यभटिया’ में अपना जन्मस्थान कुसुमपुर और जन्मकाल शक संवत् 398 (476) लिखा है। इस जानकारी से उनके जन्म का साल तो निर्विवादित है परन्तु वास्तविक जन्मस्थान के बारे में विवाद है। कुछ स्रोतों के अनुसार आर्यभट्ट का जन्म महाराष्ट्र के अश्मक प्रदेश में हुआ था और ये बात भी तय है की अपने जीवन के किसी काल में वे उच्च शिक्षा के लिए कुसुमपुरा गए थे और कुछ समय वहां रहे भी थे।
हिन्दू और बौध परम्पराओं के साथ-साथ सातवीं शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ भाष्कर ने कुसुमपुरा की पहचान पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) के रूप में की है। यहाँ पर अध्ययन का एक महान केन्द्र, नालन्दा विश्वविद्यालय स्थापित था और संभव है कि आर्यभट्ट इससे जुड़े रहे हों। ऐसा संभव है कि गुप्त साम्राज्य के अन्तिम दिनों में आर्यभट्ट वहां रहा करते थे।
गुप्तकाल को भारत के स्वर्णिम युग के रूप में जाना जाता है।आर्यभट्ट प्राचीन समय के सबसे महान खगोलशास्त्रीयों और गणितज्ञों में से एक थे।
विज्ञान और गणित के क्षेत्र में उनके कार्य आज भी वैज्ञानिकों को प्रेरणा देते हैं। आर्यभट्ट उन पहले व्यक्तियों में से थे जिन्होंने बीजगणित (एलजेबरा) का प्रयोग किया। आपको
यह जानकार हैरानी होगी कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आर्यभटिया’ (गणित की पुस्तक) को कविता के रूप में लिखा। यह प्राचीन भारत की बहुचर्चित पुस्तकों में से एक है। इस पुस्तक में दी गयी ज्यादातर जानकारी खगोलशास्त्र और गोलीय त्रिकोणमिति से संबंध रखती है। ‘आर्यभटिया’ में अंकगणित, बीजगणित और त्रिकोणमिति के 33 नियम भी दिए गए हैं। आज हम सभी इस बात को जानते हैं कि पृथ्वी गोल है और अपनी धुरी पर घूमतीहै और इसी कारण रात और दिन होते हैं।
मध्यकाल में ‘निकोलस कॉपरनिकस’ ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था पर इस वास्तविकता से बहुत कम लोग ही परिचित होगें कि ‘कॉपरनिकस’ से लगभग 1 हज़ार साल पहले ही आर्यभट्ट ने यह खोज कर ली थी कि पृथ्वी गोल है और उसकी परिधि अनुमानत: 24835 मील है। सूर्य और चन्द्र ग्रहण के हिन्दू धर्म की मान्यता को आर्यभट्ट ने ग़लत सिद्ध किया। इस महान वैज्ञानिक और गणितग्य को यह भी ज्ञात था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह सूर्य की किरणों से प्रकाशमान होते हैं। आर्यभट्ट ने अपने सूत्रों से यह सिद्ध किया कि एक वर्ष में 366 दिन नहीं वरन 365.2951 दिन होते हैं। उन्होंने गणित के क्षेत्र में महान आर्किमिडीज़ से भी अधिक सटीक ‘पाई’ के मान को निरूपित किया और खगोलविज्ञान के क्षेत्र में सबसे पहली बार यह घोषित किया गया कि पृथ्वी स्वयं अपनी धुरी पर घूमती है।
स्थान-मूल्य अंक प्रणाली आर्यभट्ट के कार्यों में स्पष्ट रूप से विद्यमान थी। हालांकि उन्होंने शुन्य दर्शाने के लिए किसी प्रतीक का प्रयोग नहीं किया, परन्तु गणितग्य ऐसा मानते हैं कि रिक्त गुणांक के साथ, दस की घात के लिए एक स्थान धारक के रूप में शून्य का ज्ञान आर्यभट्ट के स्थान-मूल्य अंक प्रणाली में निहित था।यह हैरान और आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि हालांकि भारत में खगोल शास्त्र का जन्म आर्यभट्ट से पहले सदियों पूर्व हो चुका था। यहाँ पर पंचांग के नियम नक्षत्र विभाजन आदि ईसा के जन्म से 13-14 शताब्दी पूर्व ही बनाये जा चुके थे। वेदों में भी खगोल विद्या का विवरण मिलता है। किन्तु आर्यभट्ट के समय खगोल शास्त्र की स्थिति खास अच्छी नहीं थी। उस समय प्रचलित पितामह सिद्धान्त, सौर्य सिद्धान्त, वशिष्ठ सिद्धान्त रोमक सिद्धान्त और पॉली सिद्धान्त पुराने हो चुके थे। इनसे गणित के सिद्धान्त हल नहीं हो रहे थे।
ग्रहण की स्थिति की सही जानकारी नहीं मिल पा रही थी, जिससे लोगों का विश्वास भारतीय ज्योतिष से उठने लगा था। आर्यभट्ट ने, उसमें मौजूद त्रुटियों को दूर करके उसे नवीन तथा प्रभावी रूप प्रदान किया। गुप्त काल के महान गणितज्ञ और खगोल शास्त्री आर्य भट्ट ने तीन ग्रन्थ लिखे थे। दश गितिका, आर्यभट्टियम तथा तन्त्र। आर्यभट्ट का मानना था कि, रचना महान होती है रचनाकार नहीं।अद्भुत प्रतिभा के धनी आर्यभट्ट ने अनेक कठिन प्रश्नों के उत्तर को एक श्लोक में समाहित कर दिया है, गणित के पाँच नियम एक ही श्लोक में प्रस्तुत करने वाले आर्यभट्ट ऐसे प्रथम नक्षत्र वैज्ञानिक थे, जिन्होंने यह
बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चक्कर लगाती है। इन्होंने सूर्यग्रहण एवं चन्द्र ग्रहण होने वास्तविक कारण पर प्रकाश डाला। आर्यभट्ट को यह भी पता था कि चन्द्रमा और दूसरे ग्रह स्वयं प्रकाशमान नहीं हैं, बल्कि सूर्य की किरणें उसमें प्रतिबिंबित होती हैं।आजकल के उन्नत साधनों के बिना ही उन्होंने लगभग डेढ़ हजार साल पहले ही
ज्योतिषशास्त्र की खोज की थी। जैसा कि हम पहले ही बता चुके हैं, कोपर्निकस (1473 से 1543 इ.) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की खोज आर्यभट हजार वर्ष पहले ही कर चुके थे। “गोलपाद” में आर्यभट ने सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।इस महान गणितग्य के अनुसार किसी वृत्त की परिधि और व्यास का संबंध 62,832 : 20,000 आता है जो चार दशमलव स्थान तक शुद्ध है। आर्यभट्ट कि गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 39,968.0582 किलोमीटर है, जो इसके वास्तविक मान 40,075.0167 किलोमीटर से केवल 0.2 % कम है।
भारत सरकार द्वारा अपना पहला उपग्रह 19 अप्रैल 1975 को अंतरिक्ष में छोड़ा गया था जिसका नाम आर्यभट्ट रखा था. वर्ष 1976 में अर्न्तराष्ट्रीय संस्था यूनेस्को के द्वारा आर्यभट्ट की 1500वीं जयंती का आयोजन किया गया था. (ISRO) इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गेनाइजेशन द्वारा वायुमंडल के संताप मंडल में जीवाणुओं की खोज की थी. जिनमे से एक प्रजाति का नाम बैसिलस आर्यभट्ट रखा गया हैं. उत्तराखंड के नैनीताल में एक वैज्ञानिक संस्थान का नाम ‘आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान अनुसंधान संस्थान’ रखा गया है.सैकड़ों सालों तक भारत ने दुनिया का गणित के क्षेत्र में नेतृत्व किया. आज खगोलविज्ञान में दुनिया ने जितनी भी उपलब्धियां हासिल की हैं उसमें आर्यभट्ट का योगदान सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता है. उन्हीं की देन है कि आज खगोलविज्ञान नए-नए शोध कर रहा है.
16वीं सदी तक के सभी गुरुकुल में आर्यभट्ट के श्लोक पढाये जाते थे। आर्यभट्ट ने ही सबसे पहले पाई’ (pi) की वैल्यू और ‘साइन’ (SINE) के बारे में बताया। गणित के जटिल प्रश्नों को सरलता से हल करने के लिए उन्होंने ही समीकरणों का आविष्कार किया, जो पूरे विश्व में प्रख्यात हुआ। एक के बाद ग्यारह शून्य जैसी संख्याओं को बोलने के लिए उन्होंने नई पद्धति का आविष्कार किया। बीज गणित में भी उन्होंने कई महत्वपूर्ण संशोधन किए और गणित ज्योतिष का ‘आर्य सिद्धांत’ प्रचलित किया।भारत के पहले गणितज्ञ और खगोल शास्त्री आर्यभट्ट को सम्मान देते हुए 2012 को गणित वर्ष मनाया गया था। शिकागो से जारी वैज्ञानिकों की रिपोर्ट में आर्यभट्ट का नाम भी पूरे सम्मान से स्थापित किया गया है। आर्यभट्ट एक महान व्यक्ति थे, जिन्होंने गणित विषय का गहराई से अध्ययन और विश्लेषण किया। दुनिया को महानतम खोज देने वाले भारत के इस महान गणितज्ञ को हम हम शत शत नमन करते हैं।