डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला:
प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का बचपन म्यांमार, तत्कालीन बर्मा में बीता था. ये नन्हें बालक ही थे तभी विश्व युद्ध के दौरान एक बम के धमाके से इनकी श्रवण शक्ति लगभग समाप्त हो गई. इनके दादा जी पोस्ट ऑफिस में चतुर्थ श्रेणी कर्मी थे और पिताजी मामूली ठेकेदारी करते थे.परिवार में घोर गरीबी थी.माध्यमिक शिक्षा से पहले ही कान खराब होने पर लोग इनका मजाक बनाने से भी नहीं चूकते थे और ताने मारते थे कि यह बच्चा जीवन में कुछ नहीं कर पाएगा.
पर अपने मनोबल, संकल्प और कठोर परिश्रम के बल पर इस बालक ने ऐसा कुछ कर दिखाया कि समूचे विश्व ने उसकी बातें गंभीरता से सुनी. उस दौर में हियरिंग ऐड मशीन की आज जैसी सुविधा नहीं थी. तब बालक रहे वल्दिया सदैव हाथ में एक बड़ी बैटरी लिए चलते थे जिससे जुड़े यंत्र से वे थोड़ा बहुत सुन पाते थे. इसी हालात में उन्होंने न केवल अपनी शिक्षा पूरी की बल्कि टॉपर भी रहे. हिमालय के भूगर्भ की गहरी समझ ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति तो दिलाई।
मूल रूप से ड्योडार गांव के रहने वाले प्रो. वल्दिया का जन्म 1937 में वर्मा (म्यांमार) में हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बदली परिस्थितियों में वे अपने पिता देव सिंह वल्दिया और मां नंदा वल्दिया के साथ पिथौरागढ़ आ गए। नगर के अपने पैतृक घर घंटाकरण में रहते हुए उन्होंने 1953 तक पिथौरागढ़ में ही स्कूलिंग की। लखनऊ विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे विश्वविद्यालय में ही भू विज्ञान के प्रवक्ता नियुक्त हो गए। 1963 में उन्होंने डाक्टरेट की उपाधि हासिल की।हिमालय के तमाम क्षेत्रों में गहन शोध ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें पहचान दिलाई। वर्ष 1966 में वे अमेरिका के जॉन हापकिन्स विश्विद्यालय में फैलोशिपि के लिए चुने गए।
अमेरिका से लौटने के बाद 1969 में वे राजस्थान युनिवर्सिटी में भू-विज्ञान के रीडर बने। वर्ष 1970 से 76 तक उन्होंने वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालया जियोलॉजी में वरिष्ठ वैज्ञानिक के पद पर रहे। 1981, 84 और 1992 में कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति का जिम्मा संभाला। हिमालय के भूगर्भ पर उन्होंने 10 शोध पत्र लिखे। 14 महत्वपूर्ण किताबों के साथ ही 40 बेहद महत्वपूर्ण लेख तमाम राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में प्रकाशित हुए।
भू- विज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए वर्ष 1976 में उन्हेें विज्ञान के प्रतिष्ठित शांतिस्वरू प भटनागर पुरस्कार सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अलावा उन्हें राष्ट्रीय खनिज अवार्ड, एल.रामाराव गोल्ड मैडल पुरस्कार से नवाजा गया। वर्ष 1983 में प्रधानमंत्री की वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य बने। भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 2007 में पद्मश्री से सम्मानित किया। देश के प्रतिष्ठित भू-वैज्ञानिक होने के बावजूद वे बेहद सादगीपूर्ण व्यक्ति थे।
जीवन पर्यन्त वे अपने काम खुद ही करने पर जोर देते रहे। पिथौरागढ़ से लगाव रखने वाले प्रो.वल्दिया हर वर्ष गंगोलीहाट में हिमालय ग्राम विकास समिति ने साइंस आउटरीच कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पहुंचते थे। इस दौरान वे मेधावी विद्यार्थियों के साथ दो दिन बिताते, उन्हें विज्ञान की बारीकियां समझाते और नए शोधों पर उनके बातचीत करते। इस दौरान वे बच्चों को अपने कार्य खुद करने के लिए प्रेरित करते और उनके साथ जमीन पर बैठकर भोजन ग्रहण करते।
मीडिया से वे अक्सर दूरी बनाए रखते। बहुत जोर देने पर ही बातचीत के लिए तैयार होते थे। वे समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करने के लिए हमेशा प्रयास करते रहे। बचपन में ही बहरेपन से वल्दियाजी ग्रसित हो गए थे। बिना ये जाने कि यह बच्चा कम सुनता है, अभिभावकों और शिक्षकों से अनजाने में हुये खराब व्यवहार ने उन्हें अन्तर्मुखी और संकोची बनाया। ‘तारे जमीं पर’ फिल्म के बच्चे की तरह उनका भी मन पढ़ने से उचका रहता।
उनकी परेशानी को समझने के बजाय बड़ों से फटकार ही मिलती। उनके शब्दों में ‘छोटी-सी थी दुनिया मेरी, छोटे-छोटे ही थे सपने भी। बड़ा था तो केवल मेरा दर्द।’ बहरेपन के कारण डाक्टर न बन पाने की कसक उन्हें अभी भी जीवन में ढेर सारा पाने के बाद भी है। बचपन में एक साधु ने उनकी उमर 33 साल बताई थी।
तब से आज तक उन्हें अपने जीवन का हर नया दिन बोनस लगता है। ‘अतः जो करना है, आज ही करना है, कल तो मेरा है ही नहीं’ यही उनका जीवन मूलमंत्र रहा।पिथौरागढ़ में वल्दियाजी की माध्यमिक शिक्षा तक अंग्रेजी के अघ्यापक ईश्वरी दत्त पंत एवं शिव बल्लभ बहुगुणा, हिन्दी के पीताम्बर पांडे, संगीत-चित्रकला के हैदर बख्श जी ने अध्ययन, साहित्य, संगीत और समाजसेवा का जो अदभुत पाठ सिखाया-पढ़ाया वह भविष्य के जीवन जीने का प्रमुख आधार बना।
उस दौरान सरस्वती देब सिंह विद्यालय, पिथौरागढ़ के वि़द्यार्थी खड्ग ने साथियों के साथ मिलकर ‘गांधी वाचन मंदिर’ संचालित किया। यही नहीं ‘बाल-पुष्प’ हस्तलिखित पत्रिका को निकाला। अध्यापक शिव बल्लभ बहुगुणा का यह संदेश कि ‘अध्ययन को विषयों के घेरे में मत रखो और जीवन को अपनी पंसद की जंजीरों में मत जकड़ो।’ यह जीवन-दर्शन लिए वल्दिया जी जीवन में जिधर डगर मिली उधर ही चलते रहे।
परन्तु पूरी निष्ठा, मेहनत और ईमानदारी के साथ। उच्च शिक्षा में जिओलाॅजी विषय चयनित करने का सुझाव उन्हें अध्यापक बहुगुणाजी ने ही दिया था।राजकीय इण्टर कालेज, पिथौरागढ़ से सन् 1953 में इण्टर करने के उपरान्त वल्दियाजी लखनऊ विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा लिए आये और यहीं सन् 1957 में जिओलाॅजी लैक्चरर नियुक्त हुए। साथ ही वे शोध कार्य में जुट गए। नेपाल से लेकर हिमांचल प्रदेश की सीमाओं तक फैले हिमालय का भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण उनके शोध अध्ययन का विषय बना।
उन्होने ‘स्ट्रोमैटोलाइट’ और ‘पैलियोकरैन्ट’ का गहन अध्ययन कर हिमालय की उत्पत्ति एवं विकास के गूढ रहस्यों का नवीन वैज्ञानिक इतिहास उजागर किया। सन् 1963 में उन्हें पीएच-डी. की उपाधि मिली। परन्तु उन्हें अकादमिक ख्याति सन् 1964 की अंतरराष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संगोष्ठी में 3 चर्चित शोध-पत्र प्रस्तुत करने के बाद मिली।
अब अंग्रेजी शोध-पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों के साथ-साथ हिन्दी में भी वल्दियाजी के विज्ञान लेख प्रमुखता से प्रकाशित होने लगे। नवनीत, धर्मयुग, त्रिपथा, विज्ञान जगत और हिन्दुस्तान में उनके नियमित लेख लोकप्रिय हुए।
विज्ञान की गूढ़ता को सरल भाषा में अनुवाद एवं नवीन पाठ्य पुस्तकों को तैयार करने में उनकी अभिरुचि पनपने लगी। आगे अध्यापन एवं प्रशासन एक लम्बा सिलसिला चला राजस्थान विश्वविद्यालय, वाडिया संस्थान, जवाहरलाल नेहरू सेंटर फाॅर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च और कुमाऊं विश्वविद्यालय। वे सन् 1981 में कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति रहे हैं। ‘जियोलाजी ऑफ कुमाऊं लैसर हिमालय’, ‘डायनामिक हिमालय’ उत्तराखंड टुडे, ‘हाई डैम्स इन द हिमालया’ जैसी 20 से अधिक अकादमिक पुस्तकों के रचियता प्रो. वल्दिया को उनके उत्कृष्ट वैज्ञानिक और सामाजिक योगदान के लिए शांतिस्वरूप पुरस्कार (1976), 1983 में वह प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार समिति के सदस्य भी रहे।
नेशनल मिनरल अवार्ड आफ ऐक्सलैंस (1997), पदमश्री (2007), आत्माराम सम्मान (2008), जी. एम. मोदी अवार्ड (2012) और पद्म विभूषण (2015) से नवाज़ा गया।अध्यापन और प्रशासन से वल्दियाजी को पद-प्रतिष्ठा जरूर मिली परन्तु उनको विश्वख्याति उत्कृष्ट शोध कार्य से ही हासिल हुई। अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय उन्होने शोध अध्ययन में लगाया। अब तक 20 हजार किमी. से भी अधिक की शोधयात्रा कर चुकने के बाद भी उनका यह सफर जारी था।वल्दियाजी की शोध-यात्रा भाबर से लेकर हिमालय के शिखरों तक सन् 1958 से आरम्भ होती है।
हिमालयी पत्थरों के अतीत के रहस्यों को जानने, उनकी प्रकृति एवं प्रवृति को समझने के लिए उनके पास पद-यात्रा के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था। सड़क मार्ग होते भी जगह-जगह के पत्थरों को घण्टों निहारने, उनसे मूक बात-चीत करने, उनमें निहित संगीत को सुनने और फिर वहीं बैठकर डायरी लिखने के लिए पैदल ही चलना हुआ। गरमी, जाड़ा और बरसात की अति को सहन करते हुए उनकी रातें अक्सर वीरान जगहों पर डर और भूख को काबू पाने में बीतती थी।
कम सुनना उनकी कमजोरी थी, परन्तु यह कमजोरी अक्सर उनकी ताकत भी बन जाती, क्योंकि प्रकृति की नैसर्गिक नीरवता और सौन्दर्य को सुनना नहीं वरन अहसास करना होता है। बहरे होने का फायदा यह हुआ कि आंखों-आंखों में बात करने और ओठों की आकर्षक मुस्कराहट से दोस्ती करने में उन्होने महारथ हासिल कर ली थी। पद-यात्राओं में उनका बचपन बार-बार बाहर आने को छटपटाता रहता। वे एक तरफ हिमालय की गूढता की खोज कर रहे होते तो दूसरी तरफ जंगल में पक्षियों के सूखी पत्तियों में फुदकने से हुई छिड़बिड़ाहट और उनकी चूं-चूं में गूंजे संगीत में खोये रहने का आनंद बटोर रहे होते थे।
निर्जन जगहों पर निर्मल और स्वच्छंद बहती जलधारायें कहां जा रही है ? उनका मन पूछता। वे तब सोचते मैं पक्षी की तरह उड़ नहीं सकता तो मछली की तरह तैर तो सकता हूं। वे पक्की धारणा बनी कि जब तक मानव जन्तुओं, पक्षियों और वनस्पतियों की मूक भाषा को नहीं समझ लेता तब तक वह जीवन की पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता है। प्रकृति और जंगली जीव-जन्तुओं के साथ अंतरंग आत्मीयता का ही कमाल था कि अन्वेषक वाल्दियाजी को जिस गुफा में ‘स्ट्रोमैटोलाइट’ के बारे में जब खोजी जानकारी मिली थी, उसी समय गुफा अंदर दो बच्चों के साथ बैठी बाघिन उन्हें निहार रही थी।
और वे गुफा के बाहर पत्थर पर बैठ बेखबर अपनी शोध डायरी लिखने में तल्लीन थे।शोध-यात्राओं में मिले अनुभवों और किस्सों ने वल्दियाजी को सामाजिक सरोंकारों के नजदीक लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। एक संवेदनशील व्यक्ति ही अच्छा वैज्ञानिक बन सकता है, वह देश में पहले भू विज्ञानिक थे, जिनके द्वारा सेंट्रल हिमालया का पहला भूगर्भीय मानचित्र बनाया। प्रो वाल्दिया की लिखित किताबों के बगैर उत्तराखंड के साथ ही सेंट्रल हिमालया का भूगर्भीय अध्ययन संभव नहीं है।कुमाऊं की उच्च शिक्षा की संस्था कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति और वाडिया इंस्टीट्यूट, देहरादून जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के अध्यक्ष पद तक पहुंचने में सफल रहे।
राज्य के नफा-नुकसान का हिसाब किताब कौन रखता है? वगैरह. यदि इन मुद्दों पर सरकारें गम्भीर नहीं तो मौसम भी तेजी से बदलेगा, लोग प्राकृतिक आपदाओं के संकट में आ जायेगें.पानी, पेड़ व हवा उपभोग की वस्तु बन जायेगी. वर्षा व साल की ऋतुओं का मिजाज बदल जायेगा.ऐसी परिस्थिति में लोगों की सांसे रुकनी आरम्भ हो जायेगी. इसलिए समय रहते लोग एक बार फिर से अपने प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण व दोहन के बारे में सोचें.”प्रो. के.एस.वल्दिया,ने वर्ष 1990 के दशक में सूख रहें जल स्रोतों के पुनर्जीवन हेतु जल स्रोत अभयारण्य विकसित करने का भी सरकार को सुझाव दिया था.
इस तकनीक के अन्तर्गत वर्षा जल का अभियान्त्रिक एवं वानस्पतिक विधि से जलस्रोत के जल समेट क्षेत्र में अवशोषण किया जाता है. इस तकनीक से भूमि के ऊपर वनस्पति आवरण एवं कार्बनिक पदार्थों से युक्त मृदा एक स्पंज की तरह वर्षा के जल को अवशोषित कर लेती है,जिससे कि तलहटी के भू जल स्रोतों (एक्वीफर्स) में वृद्धि हो सके.आज जब हिमालय का पर्यावरण ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है,ऐसे में प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया जैसे लब्धप्रतिष्ठ भूवैज्ञानिक और पर्यावरण विद का चला जाना केवल उत्तराखंड के लिए ही नहीं बल्कि समूचे देश और अंतरराष्ट्रीय जगत के लिए भी अपूरणीय क्षति है
उनके साथ पहल में कार्य कर चुके डॉ अशोक पंत का कहना है कि डॉ वल्दिया ने भू-वैज्ञानिक के रूप में काम करके उत्तराखंड और देश का नाम रोशन किया है। लेकिन अगर उनको ये सम्मान उत्तराखंड से मिलता तो ज्यादा अच्छा लगता। पंत का कहना है कि डॉ वल्दिया की पहचान पूरे विश्व में हिमालय भूगर्भ वैज्ञानिक की रही है और उनकी कर्म भूमि भी उत्तराखंड ही रही है। हिमालय पुत्र प्रो. खड्ग सिंह वल्दिया का आज इस इहलोक से जाना हिमालयी समाज के लिए अपूरणीय क्षति है वल्दिया को एक संपूर्ण संस्था कहा जाए तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी ऐसा सच्चा इंसान अब हमारे समाज में दिखने ही दुर्लभ हैं। हिमालय के प्रति उनकी चिंता और चिंतन हमेशा हमारा मार्गदर्शन करेगी