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हिमालयी उत्पादकों ने की पहाड़ी (फल से लेकर बीज )आयात पर प्रतिबंध लगाने की मांग

15/05/25
in उत्तराखंड, देहरादून
Reading Time: 1min read
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

खुबानी को वनस्पति विज्ञान में प्रूनस अर्मेनियाका के नाम से और आम भाषा में खुबानी या
खुमानी के नाम से जाना जाता है. ये फल पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है और अप्रैल से अगस्त
तक उपलब्ध होता है. इसके फल से लेकर बीज तक को खाया जाता  है. खुबानी की गुठली
के अंदर बादाम जैसा बीज पाया जाता है, जिसे खाने के अपने फायदे हैं. इस फल में 6 से
ज्यादा मिनरल्स साथ ही कार्बोहाइड्रेट और प्रोटीन पाए जाते हैं. वहीं इसमें भारी मात्रा में
विटामिन A और विटामिन C पाया जाता है.खुबानी पहाड़ी राज्यों में पाए जाने वाला एक
अत्यधिक पोषक तत्वों से भरपूर  फल है, जो आपके स्वास्थ्य के लिए बहुत फायदेमंद है.
पोटेशियम, फाइबर और अन्य पोषक तत्व पाए जाते हैं. यह फल आपके पाचन को सुधारता
है.  त्वचा को स्वस्थ बनाए रखता है और शरीर को प्राकृतिक रूप से ऊर्जा प्रदान करता है.
खुबानी में पाए जाने वाला फाइबर डाइजेस्टिव सिस्टम को भी स्वस्थ रखता है. इसके
अलावा खुबानी इम्यून सिस्टम को भी मजबूत करता है और बीमारियों से बचाता है.
खुबानी में भरपूर मात्रा में डाइटरी फाइबर्स पाए जाते हैं, जो हमें कई सारी बीमारियों से
बचाते हैं. रोजाना एक खुबानी खाने से बीमारी आने से पहले ही खत्म हो जाती है, क्योंकि
इसमें विटामिन A पाया जाता है, इसलिए इसे खाने से आंखों से संबंधित बीमारी नहीं होती
हैं . साथ ही यह एनीमिया से भी बचाता है. इसे खाने से हमारी त्वचा को भी कई फायदे
होते हैं. स्किन चमकदार होती है. साथ ही हमारे शरीर में कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल रहता है. जिससे
मोटापा भी कम होता है और वजन नहीं बढ़ता. उत्तराखंड की पारंपरिक खेती की पहचान देश विदेश तक है. यहां पर उत्पादित लोकल उत्पाद और फल औषधीय गुणों से भरपूर माने
जाते हैं. इन दिनों पर्वतीय अंचलों में आड़ू की पैदावार का सीजन चल रहा है. आड़ू फल की
डिमांड इन दिनों उत्तराखंड ही नहीं बल्कि देश की कई मंडियों से खूब आ रही है. हल्द्वानी
मंडी से आडू भारी मात्रा में दूसरे राज्यों में भेजा रहा है. ऐसे में पहाड़ के काश्तकारों के साथ
ही कारोबारियों के चेहरे भी खिले हुए हैं.पहाड़ के काश्तकारों और कारोबारियों के लिए
अच्छी बात तो यह है कि इस बार पहाड़ी फलों का उत्पादन बहुत बेहतर हुआ है. शुरुआत में
मंडियों में अच्छी डिमांड आने के कारण फलों की कीमत भी उनको अच्छी मिलने की उम्मीद
है. व्यापारियों की मानें तो पर्वतीय अंचलों के फलों के दाम बाहर के मंडियों में अच्छे मिल
रहे हैं. आडू फल की अभी शुरुआत हुई है. आडू होलसेल में ₹40 से ₹50 प्रति किलो बिक
रहा है. जबकि खुदरा बाजारों में 60 से ₹80 किलो बिक रहा है. नैनीताल जिले के रामगढ़,
धारी, भीमताल व ओखलकांडा ब्लॉक में सेब, आडू, खुमानी, पुलम आदि का बहुतायत से
उत्पादन होता है। प्रदेश में उत्पादित होने वाले सेब, आडू में 60 प्रतिशत हिस्सेदारी केवल
नैनीताल जिले की है। जिले में आठ हजार से अधिक काश्तकार फलोत्पादन से जुड़े
हैं।व्यापारियों का कहना है कि इस बार पहाड़ी फल समय से 10 दिन पहले बाजार में आ
गए हैं. जिसके चलते डिमांड बढ़ गई है. इस समय पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, महाराष्ट्र और
यूपी के मंडियों में इन फलों की खूब डिमांड आ रही है. जिससे किसानों को भी पैदावार के
अच्छे दाम मिल रहे हैं. नैनीताल जिले के रामगढ़, धारी, भीमताल व ओखलकांडा ब्लॉक में
सेब, आडू, खुबानी, पुलम आदि का बहुतायत से उत्पादन होता है. प्रदेश में उत्पादित होने
वाले सेब,आडू में 70 प्रतिशत हिस्सेदारी केवल नैनीताल जिले की है, जिले में नौ हजार से
अधिक काश्तकार फलों के उत्पादन से जुड़े हैं. इस बार अच्छा मौसम होने के चलते फल उच्च
क्वालिटी के तैयार हुए हैं. जिससे फलों की मार्केट में भारी मांग बढ़ गई है. पहाड़ के युवा अब
पलायन कर शहरों की ओर नहीं भाग रहे हैं. बल्कि अपने पहाड़ की मिट्टी में ही स्वरोजगार
के नए आयाम ढूंढ रहे हैं. कुछ ऐसा ही हिमरौल गांव के जगमोहन राणा ने कर दिखाया है.
जिन्होंने अपनी मेहनत से सेब बागवानी में जनपद में नाम कमाया है. वो हर वर्ष लाखों के
सेब का उत्पादन कर स्वरोजगार की एक नई मिसाल पेश कर रहे हैं. वहीं उन्हें देखकर क्षेत्र
के अन्य युवा भी सेब बागवानी से जुड़ रहे हैं. विभिन्न मंचों पर उन्हें कृषि भूषण सम्मान,
भगीरथ सम्मान, किसान कर्मण पुरस्कार, स्वर्ण कर्मयोगी सम्मान, किसान श्री पुरस्कार,
बेस्ट सेब उत्पादक पुरस्कार, राष्ट्रीय गौरव पुरस्कार, उत्तराखंड आइकॉन अवार्ड, सतत
विकास लक्ष्य अचीवर अवार्ड से सम्मानित किया गया है. जगमोहन राणा का कहना है कि
हमारी सोच स्वरोजगार लेने वाला नहीं बल्कि देने वाली होनी चाहिए. इसी सोच के साथ
उन्होंने सरकारी नौकरी की सोच का त्याग कर कृषि एवं बागवानी के क्षेत्र में आगे बढ़ने की
ठानी है. त्तराखंड के जंगल में मिलने वाले फलों को बाजार से जोड़कर आर्थिकी संवारने का
जरिया बनाया जा सकता है। जो फल हम फ्री में खाते हैं या जंगलों में ऐसे ही बर्बाद हो जाते
हैं, वास्तव में उनकी कीमत जानकर आप हैरान रह जाओगे। सरकार अभी तक इस दिशा में
कोई पहल नहीं कर पायी है। लेकिन हम आज आपको ऐसे ही कुछ फलों के बारे में बताने जा
रहे हैं जिनमें विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट की भरपूर मात्रा है। वास्तव में इस तरह के फल
की कीमत हमारे लिए नहीं होगी, लेकिन बाजार में इसके भाव आम फलों के भाव से कई
गुना अधिक हैं। किल्मोड़ा उत्तराखंड के 1400 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर मिलने वाला
एक औषधीय प्रजाति है। इसका बॉटनिकल नाम ‘बरबरिस अरिस्टाटा’ है। यह प्रजाति
दारुहल्दी या दारु हरिद्रा के नाम से भी जानी जाती है। इसका पौधा दो से तीन मीटर ऊंचा
होता है। मार्च-अप्रैल के समय इसमें फूल खिलने शुरू होते हैं। इसके फलों का स्वाद खट्टा-
मीठा होता है। उत्तराखण्ड में इसे किल्मोड़ा, किल्मोड़ी और किन्गोड़ के नाम से जानते हैं।
वेसे तो ये जंगलो में मिलता है, लेकिन इसके ओषधीय गुणों के हिसाब से इसका मार्किट वैल्यू
आम फल से कई गुना अधिक हो सकता है (मई-जून) के महीने में पहाड़ की रूखी-सूखी
धरती पर छोटी झाड़ियों में उगने वाला एक जंगली रसदार फल है। इसे कुछ स्थानों पर
“हिंसर” या “हिंसरु” के नाम से भी जाना जाता है। यह फल भी औषधीय गुणों से भरपूर है,
काले रंग का हिन्सुल जो कि जंगलों में पाया जाता है, अंतराष्ट्रीय बाजार में उसकी भारी
मांग रहती है। उत्तराखण्ड में फाईकस जीनस के अर्न्तगत एक और बहुमूल्य जंगली फल जिसे
बेडु के नाम से जाना जाता है, यह निम्न ऊँचाई से मध्यम ऊँचाई तक पाया जाता है। बेडु
उत्तराखण्ड का एक स्वादिष्ट बहुमूल्य जंगली फल है जो Moraceae परिवार का पौधा है
तथा अंग्रजी में wild fig के नाम से भी जाना जाता है। उत्तराखण्ड तथा अन्य कई राज्यों में
बेडु को फल, सब्जी तथा औषधि के रुप में भी प्रयोग किया जाता है, साथ ही बेडु का स्वाद
इसमें उपलब्ध 45 प्रतिशत जूस से भी जाना जाता है। बेडु का प्रदेश में कोई व्यावसायिक
उत्पादन नहीं किया जाता है, अपितु यह स्वतः ही उग जाता है तथा बच्चों एवं चारावाहों
द्वारा बड़े चाव से खाया जाता है। यह मार्किट में सेब और अनार के दामो के दुगनी कीमत पर
उपलब्द होता है। छोटी सी झाड़ियों में उगने वाला ‘घिंगारू’ एक जंगली फल है। यह सेव के
आकार का लेकिन आकार में बहुत छोटा होता है, स्वाद में हल्का खट्टा-मीठा। बच्चे इसे छोटा
सेव कहते हैं और बड़े चाव से खाते हैं। यह फल पाचन की दृष्टि से बहुत ही लाभदायक फल
है। इस फल का प्रयोग भी ओषधि के तौर पर किया जाता है, हालांकि ग्रामीण क्षेत्र के लोग
इसकी गुणवता से अनजान हैं। पोलम, आड़ू, चेरी, बादाम एक ही जाति में आतें हैं। शरीर
को तरोताजा रखने के लियें यह फल बहुत उपयोगी है। अन्य फल फसलो की तरह
अधिकांशतया ठन्डे इलाको
इसकी पैदावार ज्यादा होती है। पोलम जिसे कि प्लम भी कहा जाता है का पेड़ पांच मीटर

से सात मीटर तक बढ़ता है। यह ऊचा हरा भरा रहता है, इसमें सफेद फूल खिलें रहते है, है
मधुमक्खियों अपना छत्ता भी अक्सर इस पेड़ में बनाया करती है और शरद ऋतु आने पर
यह अपने पत्ते खो देता है। इसमें कार्बोहाईड्रेट और विटामिन C की प्रचुर मात्रा इसमें पायी
जाती है। इसका मार्किट में मूल्य काफी अधिक होता है, आड़ू को सतालू और पीच नाम से
जानते हैं। आड़ू के ताजे फल खाए जाते हैं तथा इन फलों से जैम, जेली और चटनी बनाई
जाती है। आड़ू स्वाद में मीठा और हल्का खटटा एवं रसीला फल है। इसका रंग भूरा और
लालीमा लिए पीला होता है। आडू़ पौष्टिक तत्वों से युक्त आड़ू में जल की प्रचुर मात्रा होती
है। इसमें लौह तत्व और पोटैशियम अधिक मात्रा में होता है। विटामिन ए, कार्बोहाइड्रेट,
फाइबर,फोलेट, तत्व होते हैं। इसके अलावा आड़ू में कई प्रकार के एंटीऑक्सीडेंट पाये जाते
हैं। जैसे विटामिन सी, केरेटोनोइड्स, बाइलेवोनोइड्स और फाइटोकैमिकल्स, जो सेहत के
लिए लाभदायक होते हैं। इसे मार्किट में अलग अलग भाव में बेचा जाता है, उच्च क्वालिटी का
आडू 200 रूपये प्रति किलो तक बिकता है हिमालयी सेब उत्पादक सोसायटी ने तुर्की से सेब
के आयात पर तत्काल प्रतिबंध लगाने की मांग की है। संस्था के महासचिव ने हिमालयी
राज्यों के आर्थिक हितों में आयात में अपनी भागीदारी को तत्काल वापस लेने का आह्वान
किया है।उन्होंने कहा कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर के सेब के बाग
आर्थिक जीविका और सांस्कृतिक पहचान दोनों के प्रमाण हैं, फिर भी, यह विरासत अब
अस्तित्व के खतरे का सामना कर रही है क्योंकि आयातित सेबों, विशेष रूप से तुर्की से, का
निरंतर प्रवाह स्थानीय व्यापार के नाजुक संतुलन को बाधित कर रहा है।धनता ने प्रधानमंत्री
को संबोधित अपने भावुक पत्र में, भारत की “वोकल फॉर लोकल” पहल की विडंबना पर
अफसोस जताया, जो विदेशी सेबों के अनियंत्रित आयात से प्रभावित हो रही है।उन्होंने जम्मू
और कश्मीर में लगभग आठ लाख परिवारों की दुर्दशा को रेखांकित किया। कश्मीर में चार
लाख, हिमाचल प्रदेश में चार लाख और उत्तराखंड में एक लाख लोग हैं, जिनकी आजीविका
सेब की खेती, संबद्ध गतिविधियों और संबंधित उद्योग से जुड़ी हुई है।उन्होंने तर्क दिया कि
केवल वाणिज्य से परे, सेब इन क्षेत्रों के सार का प्रतीक है, जो उनकी परंपराओं और आर्थिक
ताने-बाने को आकार देता है।चौंकाने वाले आँकड़ों का हवाला देते हुए, धन्ता ने खुलासा
किया कि तुर्की से सेब का आयात नाटकीय रूप से बढ़ गया है – 2015 में मामूली 205 टन
से हाल के वर्षों में 1,17,663 टन तक बढ़ गया है।वित्तीय परिणाम भी उतने ही चिंताजनक
हैं, आयात मूल्य 2021-22 में 563 करोड़ रुपये से बढ़कर 2022-23 में 739 करोड़ रुपये
और 2023-24 में 821 करोड़ रुपये हो गया है।इस आमद ने भारतीय बाजारों को भर दिया
है, जिससे स्थानीय व्यापारियों के बीच भयंकर प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है और उत्तरी सेब
उगाने वाले राज्यों का आर्थिक संतुलन अस्थिर हो गया है।इसका असर व्यापार से परे भी है,
क्योंकि अनियंत्रित आयात ने हिमाचल प्रदेश और उसके पड़ोसी क्षेत्रों में बेरोजगारी को
बढ़ाया है और सामाजिक स्थिरता को बाधित किया है।संस्था ने तुर्की से सेब के आयात पर
पूर्ण प्रतिबंध लगाने, सख्त फाइटोसैनिटरी मानदंडों, न्यूनतम आयात मूल्य (एमआईपी) लागू
करने और घरेलू सेब उत्पादकों की सुरक्षा के लिए एक व्यापक सुरक्षा नीति की शुरुआत
करने की जोरदार मांग की है।उन्होंने जोर देकर कहा कि इस नीति में मूल्य स्थिरीकरण,
भंडारण सुविधा और विपणन सहायता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, ताकि यह
सुनिश्चित हो सके कि स्थानीय किसानों को समर्थन मूल्य या प्रत्यक्ष आय सहायता मिले।
उत्पादकों के समाज ने चेतावनी दी कि तेजी से कार्रवाई न करने पर सेब की खेती पर निर्भर
परिवारों के लिए भयंकर परिणाम होंगे। । *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून*
*विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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