डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड की लोक संस्कृति, नाट्य कला और लोक गाथाओं को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार और संस्कृति संरक्षक जुगल किशोर पेटशाली का निधन हो गया। उनके निधन से उत्तराखंड ही नहीं, संपूर्ण भारतीय लोकसाहित्य जगत में शोक की लहर दौड़ गई है।आपको बता दें जुगल किशोर पेटशाली का जन्म 7 सितंबर 1947 को अल्मोड़ा जिले के चितई गाँव में हुआ। बचपन से ही वे कुमाऊंनी लोककला, परंपराओं और लोक संगीत के प्रति गहरी रुचि रखते थे। औपचारिक शिक्षा प्राप्त न कर पाने के बावजूद उन्होंने स्वाध्याय और लोक परंपराओं से जुड़कर अपनी रचनात्मक यात्रा प्रारंभ की।साहित्यिक और सांस्कृतिक योगदान देते हुए पेटशाली ने कुमाऊंनी लोककथाओं और ऐतिहासिक गाथाओं को आधुनिक मंच पर प्रस्तुत करने के लिए कई महत्वपूर्ण कृतियों की रचना की। उनकी प्रसिद्ध नाट्य कृतियों में शामिल हैं:राजुला–मालूशाही – प्रेम और संघर्ष की गाथा बाला गोरिया – षड्यंत्र और पीड़ा की कहानी अजुवा–बफौल – वीरता और समर्पण का चित्रण नौ–लखा दीवान – अन्याय के विरोध और जनसंघर्ष की दास्तांइसके अतिरिक्त उन्होंने “जी रया जागि रया” (कुमाऊंनी कविता संग्रह), “विभूति योग” (गीता भावानुवाद), “गंगनाथ-गीतावली” (संपादन), “हे राम” सहित कई महत्वपूर्ण रचनाएं दीं। उनके नाटकों पर आधारित धारावाहिक राजुला–मालूशाई भी दूरदर्शन पर प्रसारित हुआ।लोक संस्कृति के संरक्षण हेतु पहल के तहत जुगल किशोर पेटशाली ने केवल लिखित और मंचीय माध्यम से ही नहीं बल्कि सांस्कृतिक धरोहर को संजोकर भी लोक संस्कृति को संरक्षित किया।2003 में चितई, अल्मोड़ा में लोक-संस्कृति संग्रहालय की स्थापना की, जिसमें 70 से अधिक चित्र, 30 पारंपरिक वाद्य यंत्र, प्राचीन बर्तन, ग्रामोफोन, पांडुलिपियां और अन्य दुर्लभ वस्तुएं शामिल थीं।स्वास्थ्य कारणों से बाद में इस संग्रह को उन्होंने दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र को समर्पित कर दिया, जहाँ आज यह “जुगल किशोर पेटशाली संग्रह” के नाम से संरक्षित है।संगीत नाटक अकादमी अमृत पुरस्कार (2023) – भारतीय उपराष्ट्रपति द्वारा प्रदर्शन कला और लोक संस्कृति संरक्षण हेतु प्रदान किया गया।कुमाऊं गौरव पुरस्कार, वरिष्ठ संस्कृति कर्मी पुरस्कार (उत्तराखंड सरकार), जय शंकर प्रसाद पुरस्कार, सुमित्रानंदन पंत पुरस्कार सहित अनेक राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय सम्मान प्राप्त हुए।पेटशाली जी के प्रयासों ने उत्तराखंड की लोककथाओं, लोकवाद्यों और परंपराओं को नई पहचान दी। उन्होंने लोक कला को केवल सहेजा ही नहीं, बल्कि उसे आने वाली पीढ़ियों तक पहुंचाने का कार्य भी किया।उनकी रचनाएं आज भी कुमाऊंनी समाज और व्यापक उत्तराखंड को अपनी जड़ों से जोड़ने का काम कर रही हैं।उनके निधन से उत्तराखंड ने एक लोक संस्कृति प्रहरी और रचनात्मक व्यक्तित्व को खो दिया। उनकी विरासत आने वाली पीढ़ियों के लिए मार्गदर्शक बनी रहेगी।किशोर पेटशाली पौराणिक और लोक संस्कृति के कई सारे ऐसे अनछुए तथ्यों को सामने लाने का बेड़ा उठाते थे जिससे समाज परिचित नही था उनके इसी अंदाज के कारण उनके दिए गए योगदान को भूल पाना बेहद मुश्किल है। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने अल्मोड़ा के निकट अपने संग्रहालय में रहकर लोक साहित्य पर कई किताबें लिखी और लोकगीतों तथा लोक संगीत के माध्यम से उन्हे आज भी परोसा जा रहा है। किशोर पेटशाली ने जिन विपरीत परिस्थितियों में रहकर लोक साहित्य की साधना के साथ रंगमंच के क्षेत्र में जो काम किया है वह अभूतपूर्व है उन्होंने दूरदर्शन की ओर से प्रस्तुत राजुला मालू शाही धारावाहिक और अन्य कई सारे महत्वपूर्ण नाटकों के लिए पटगाथा भी लिखी है इसके साथ ही उन्होंने बहुत से नाटकों का निर्देशन भी किया है। अल्मोड़ा शहर के निकट अपने प्रयासों के कारण उन्होंने लोक संग्रहालय की स्थापना करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।किशोर पेटशाली ने कुमाऊं के लोकगाथाओं के आधार पर कई पुस्तकों का लेखन कार्य भी किया है जिसमें उन्होंने मेरे नाटक आधारित पुस्तक में सुप्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी की भूमिका भी निभाई है जिसमें चार नाटक शामिल किए हैं यह नाटक आज से 300 से लेकर 500 साल पुराना है जो सामाजिक एवं ऐतिहासिक घटनाक्रमों को रंगमंच पर जीवंत करने मे पूरी तरह से सक्षम है । हिमालय के पावन शिखरों से फूटते जीवन संगीत को आदियोगी भगवान शंकर के डमरू ने तालबद्ध किया। सदावाहिनी गंगा.यमुना.सरयू.गोमती ने इस जीवन संगीत में रस की धारा प्रवाहित की। बसंत की तूलिका ने फ्यूॅंली.बुरॉंस के असंख्य रंगों से मानव जीवन में रंग भर दिए। प्रकृति के रूप में मौजूद संगीत के असीम स्रोत ने लोकगीतए लोक संगीत व लोक परम्पराओं को जन्म दिया। मनुष्य की विकास यात्रा के साथ ही विविध कलाओं का विकास हुआ और लोक संस्कृति समृद्ध हुई। आज हमारी पुरातन लोक संस्कृति को भौतिकवाद की चुनौती मिल रही है एक तरफ लोकसंस्कृति को पहचान दिलाने वाले लोक वाद्य लोगों से दूर होते जा रहे हैं वहीं उत्तराखंड के दुर्लभ पारंपरिक लोक वाद्ययंत्रों को सहेजने के काम में ग्राम पेटशाल निवासी रंगकर्मी जुगल किशोर पेटशाली ने जीवन के बहुमूल्य कई साल लगा दिए। ढोलए नगाड़ाए बिणाईए हुड़काए रणसिंहए नागफनीए भौंकरए अलगोजा जैसे करीब तीन दर्जन लोकवाद्यों को चितई स्थित लोक वाद्य यंत्र संग्रहालय में सहेजने के साथ ही रंगकर्मी पेटशाली ने लोकवाद्यों की जानकारी आम लोगों को देने के मकसद से किताब भी लिखी हैप्रेमगाथा पर आधारित राजूला मालूसाही महाकाव्य बनाने के बाद जयशंकर प्रसाद सम्मान प्राप्त करने वाले राज्य के एकमात्र रंगकर्मी जुगल किशोर पेटशाली बताते हैं कि 1980 से पहले तक वह पूरी तरह राजनीतिज्ञ रहेए लेकिन उसके बाद से वह उत्तराखंड की संस्कृति को बचाने के अभियान में जुटे हैं।
वाद्ययंत्रों के प्रति लगाव या लोकवाद्य यंत्रों को बचाने के लिए उन्होंने 2003 से लोकवाद्यों को सहेजना शुरू कर दिया था। परिणाम स्वरूप आज उनके पास 35 दुर्लभ वाद्ययंत्रों समेत प्रख्यात नृत्य सम्राट उदयशंकर से जुड़ी सामग्री भी संकलित है।यही नहीं उनके पास 1925 से 1930 के रिकॉर्डेड सुरमाली कौतिक लागो मार झपैका जैसे कुमाऊंनी गीत भी संकलित हैं। उनका कहना है कि प्रदेश सरकार लोक वाद्यों और उन्हें बजाने वाले कलाकारों के प्रति संजीदा नहीं है। को जब मुख्यमंत्री चितई पहुंचे थे तो उन्होंने चितई स्थित लोक वाद्य यंत्र संग्रहालय को राज्य संग्रहालय के रूप में पहचान दिलाने का आश्वासन दिया था।साथ ही संस्कृति विभाग को जुगल किशोर पेटशाली की साझीदारी में संग्रहालय का संचालन करने के भी निर्देश दिए थेए लेकिन एक साल बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कोई कार्य नहीं हुआ है।संस्कृतिकर्मी जुगलकिशोर जी ने पेटशाली में पर्वतीय वाद्ययन्त्रों का संग्रहालय स्थापित कर रखा है। कई पुस्तकों का लेखन व सम्पादन इनके द्वारा किया गया है।पहाड़ के गीत.संगीत की वर्तमान स्थिति को देख वह बेहद खिन्न हैं और कहते हैं कि ग्राम्य पृष्ठभूमि में लोक संस्कृति होती है और अब मंचों पर जो कुछ दिखाई.सुनाई दे रहा है अधिकतर वह जानकारी से अनभिज्ञ लोगों का तमाशा है। लोकविधा की जानकारी इन स्टार कलाकारों को नहीं होती है।उनका मानना है कि जब तक सरकारें संस्कृतिए कलाकारों और लोकविधाओं को बचाने में पहल नहीं करेंगी आने वाली पीढ़ी विलुप्त हो रही सांस्कृतिक धरोहरोंए लोककलाओं के बारे में कभी नहीं जान सकेगी। उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर अनूठी है और क्षेत्र के युवाओं को संस्कृति को संजोने में अग्रणी भूमिका निभाने को आगे आना होगा।उत्तराखंड में वर्षों पूर्व की राजशाही व्यवस्था को सामाजिक प्रसंग में नाटकों के माध्यम से दर्शाया गया है। इतना ही नहीं बल्कि “जी रया जागी रया” भी किशोर की कुमाऊनी कविताओं का संग्रह है। स्व. पेटशाली ने ताउम्र कुमाऊनी भाषा के संरक्षण, हिंदी साहित्य लेखन, कुमाउनी परंपरागत वाद्य यंत्रों को सजोने में अविस्मरणीय योगदान दिया, यहीं नहीं उनके कुमाउनी साहित्य, लोक कला और संस्कृति के क्षेत्र में दिये गये योगदान को देखते हुए राज्य सरकार ने देहरादून में एक मॉडर्न लाइब्रेरी संग्रहालय की स्थापना की। दून लाइब्रेरी और रिसर्च सेंटर में बनाए गए इस म्यूजियम को पूरी तरह से जुगल किशोर पेटशाली को समर्पित किया गया है, क्योंकि यहां पर रखे सभी तरह के ऐतिहासिक इंस्ट्रूमेंट उन्हीं ने उपलब्ध कराए हैं. म्यूजियम में रखे गए दुर्लभ वाद्य यंत्र जुगल किशोर पेटशाली के जीवन भर की कमाई हैं, जो विशेषकर कुमाऊनी वाद्य यंत्रों, कुमाउनी साहित्य, लोक संस्कृति, स्थानीय पांडुलिपि के प्रमुख केंद्र रूप में अपनी पहचान बना चूका है।उनके निधन पर विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक संगठनों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों ने गहरा शोक व्यक्त किया है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*