ब्यूरो रिपोर्ट। गंगा मैया में जब तक पानी रहे, मेरे सजना तेरी जिदगानी रहे.. उत्तराखंड की बड़ी त्रासदी यह मानी जाती है कि यहां का पानी और यहां की जवानी यहीं के काम नहीं आते. राज्य और केंद्र में सत्ता रही दोनों दावे करते रही है कि यह स्थिति बदलेगी, लेकिन एक हज़ार से ज़्यादा छोटी-बड़ी नदियों वाले इस पहाड़ी राज्य में गर्मियां आते ही लोगों को पानी के लिए भटकना पड़ता है. हालत यह है कि प्रशासनिक लापरवाही और दीर्घकालिक योजनाओं के अभाव में गर्मियां आते ही उत्तराखंड में पानी के लिए हाहाकार मच जाता है. हर साल तस्वीर एक जैसी ही होती है और इस बार भी कोई हालत में कोई बदलाव आता नहीं दिख रहा है.गंगा, यमुना जैसी सदाबहार नदियों वाले उत्तराखंड में प्राकृतिक जलस्रोतों के संवर्द्धन के प्रति सरकारी तंत्र की उदासीनता पेयजल संकट को बेकाबू करती दिख रही है। एक ओर जहां भूजल का स्तर तेजी से नीचे की ओर लुढ़क रहा है, वहीं रेन वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में नाकाफी प्रयास भी इस समस्या को विकराल रूप देते जा रहे हैं। प्रदेश के तीन मैदानी जिलों में राष्ट्रीय भूजल बोर्ड के एक अध्ययन में यह चिंताजनक तस्वीर सामने आ चुकी है। तीन जिलों के 18 में से सात ब्लॉकों में भूजल की उपलब्धता व दोहन के बीच सिमटता फासला खतरे के निशान के करीब जा पहुंचा है। हिमालयी ग्लेशियर से निकलने वाली गंगा व यमुना जैसी कई सदाबहार नदियां होने के बावजूद उत्तराखंड के कई इलाके प्यासे हैं। वजह यह है कि बढ़ती आबादी के साथ पेयजल की मांग बेतहाशा ढंग से बढ़ रही है, मगर प्राकृतिक जलस्रोत सूखते जा रहे हैं। जलस्रोतों के संवर्द्धन व रिचार्ज की तमाम सरकारी कोशिशें धरातल पर सुखद नतीजों में तब्दील नहीं हो पा रहीं। राज्यमें प्रतिवर्ष औसतन 1100 मिली मीटर बारिश होती है, मगर बारिश के इस पानी का राज्य में समुचित उपयोग करने की ठोस प्रणाली अब तक विकसित नहीं हो पाई। राष्ट्रीय भूजल बोर्ड भी मानता है कि यदि उत्तराखंड में बारिश के पानी का 20 फीसद हिस्सा इस्तेमाल कर लिया जाए तो राज्य में पेयजल संकट जैसी कोई स्थिति ही पैदा न हो, मगर रेन वाटर हार्वेटिंग की दिशा में राज्य में अब तक के प्रयास नगण्य ही हैं। इसके नतीजे अब राष्ट्रीय भूजल बोर्ड द्वारा तीन जिलों किए गए अध्ययन की रिपोर्ट में साफ परिलक्षित भी हो रहे हैं। देहरादून, ऊधमसिंहनगर व हरिद्वार जिलों के 18 ब्लॉकों में हुए इस अध्ययन में सात ब्लॉक में भूजल की उपलब्धता व दोहन के बीच का फासला दो हजार हेक्टेयर मीटर से भी कम रह गया है। राष्ट्रीय भूजल बोर्ड का मानना है कि इस संकट से निपटने के लिए नियोजित विकास व केंद्रीय भूजल प्राधिकरण द्वारा तैयार वाटर रेगुलेशन को सख्ती से लागू करने की जरूरत है। नए-पुराने उद्योगों के साथ ही होटल,आवासीय कालोनियों व वाटर पार्क जैसी अवस्थापनाओं में पेयजल का दोहन तय मानकों के अनुसार सुनिश्चित कराना होगा। दूसरी ओर, प्राकृतिक जल स्रोतों के संवर्द्धन के लिए उनके कैचमेंट एरिया के ट्रीटमेंट और रेन वाटर हार्वेस्टिंग की दिशा में भी कारगर कदम उठाने होंगे। दरअसल, इस बार कमजोर मानसून के कारण भी यह हालत बने हैं। नदियों में जलस्तर घटा है तो प्राकृतिक नाले व पंदेरे भी अपेक्षाकृत कम पानी दे रहे हैं। इसके अलावा योजनाओं की समय से मरम्मत न होने के कारण इनसे भी पानी मिलने में खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। स्थिति यह भी है कि आपदा के दौरान क्षतिग्रस्त हुई कई पेयजल योजनाएं अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हो पाई हैं। इससे भी पेयजल की समस्या बढ़ रही है। यही कारण है कि पर्वतीय जिलों में अभी भी लोगों को पानी के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। प्रदेश में पारा लगातार उछाल मार रहा है, जंगल सुलग रहे हैं, इससे पर्वतीय क्षेत्रों में पेयजल संकट की आशंका लगातार गहरा रही है।.लेखकके व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।