ब्यूरो रिपोर्ट/देहरादून। स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को एक बंगाली परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम नरेंद्रनाथदत्ता था। उनके पिता विश्वनाथ दत्ता कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकील थे और उनकी माँ भुवनेश्वर दत्ता एक गृहिणी थीं। विवेकानंद को बहुत कम उम्र से ही आध्यात्म में रुचि थी और वे हिंदू देवी-देवताओं की छवियों के सामने ध्यान लगाते थे। देवभूमि उत्तराखंड को देवों की धरा कहा जाता है. यहां के पौराणिक मंदिर श्रद्धालुओं को देवत्व से साक्षात्कार कराते रहते हैं. यहां कई साधु संतों ने अपने तप से ज्ञान की प्राप्ति की है. उन्हीं में एक थे स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने अपने ज्ञान से पूरे विश्व को हिन्दू धर्म की महत्ता से रूबरू कराया था. लेकिन उनका भी देवभूमि से खासा नाता रहा है आध्यात्मिक गुरु स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि 4 जुलाई को मनाई जा रही है। 12 जनवरी को कोलकाता में जन्मे नरेंद्रनाथ ने 25 वर्ष की आयु में सांसारिक मोह माया का त्याग कर आध्यात्म और हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार में अपनी जीवन लगा दिया। वह संन्यासी बन जब ईश्वर की खोज में निकले तो पूरे विश्व को उन्होंने हिंदुत्व और आध्यात्म का ज्ञान देते हुए भारत के रंग में रंग दिया।युगपुरुष स्वामी विवेकानंद का उत्तराखंड से गहरा नाता रहा है। प्रकृति की शांत वादियां और हिमालय की आध्यात्मिक शक्ति उन्हें कुमाऊं उन्हें कुमाऊं खींच लाई थी। स्वामी उनका मत था कि हिमालय की ओर बढ़ता मानव मन स्वत: ही आध्यात्म में डूब जाता है। यही वजह रही कि वे चाहते थे हिमालय की शांति व निर्जनता में एक ऐसा मठ स्थापित हो जहां अद्वैत की शिक्षा व साधना दोनों हो सके। वह मानते थे कि देवभूमि होकर भी यहां अद्वैत अर्थात जीवात्मा एवं परमात्मा में कोई फर्क नहीं। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए उनके अनुयाइयों द्वारा एक शताब्दी पूर्व चम्पावत जिले में लोहाघाट के निकट घने जंगलों के बीच मायावती में अद्वैत आश्रम की स्थापना की गई। स्वामी विवेकानंद ने उत्तराखंड की पांच बार यात्रा की है. वह प्रकृति से बेहद लगाव रखते थे. पहाड़ का जीवन उन्हें लुभाता था. यही कारण है कि उन्होंने लोहाघाट जैसी जगह पर आश्रम बनाने का निर्णय लिया था. अद्वैत आश्रम मायावती नाम से आज यह आश्रम देश-दुनिया में प्रसिद्ध है.स्वामी विवेकानंद ने आश्रम में अपना काफी समय बिताया था. आज भी में उनके बिताए दिन बहुत ही याद आते हैं. लोगों के लिए प्रेरणादायी हैं. इतना नहीं, उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति भी उत्तराखंड के ही काकड़ीघाट में पीपल वृक्ष के नीचे प्राप्त हुई थी. आज भी उस जगह को पूरे शिद्दत से पूजा जाता है. हर जिज्ञासु के लिए वह जगह आकर्षण का केंद्र है. लोग वहां पर ध्यान करने पहुंचते हैं .स्वामी विवेकानंद का जन्म वर्ष 1863 में कोलकाता में हुआ था. उनका बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था. पिता का नाम विश्वनाथ दत्त व माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था. उनके आध्यात्मिक गुरु रामकृष्ण परमहंसथे, जिन्होंने उन्हें ज्ञान प्रदान किया था. अपने गुरु के नाम से ही उन्होंने वर्ष 1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी. वह भारत के महान संत व दार्शनिक कहलाए. उनका निधन केवल 39 वर्ष में 1902 में वैल्लूर मठ में हुआ था. जानें उनकी उत्तीराखंड की पांच बार की यात्रा की स्वामी विवेकानंद ने वर्ष 1888 में नरेंद्र के रूप में हिमालयी क्षेत्र की पहली यात्रा शिष्य शरदचंद गुप्त (बाद में सदानंद) के साथ की थी. गुप्त हाथरस (उत्तर प्रदेश) में स्टेशन मास्टर थे. ऋषिकेश में कुछ समय रहने के बाद वापस लौट गए थे.भारत के महान संत स्वामी विवेकानंद ने उत्तराखंड में दूसरी यात्रा जुलाई, 1890 में की थी. तब वह अयोध्या से पैदल नैनीताल पहुंचे थे. प्रसन्न भट्टाचार्य के आवास पर छह दिन रुकने के बाद अल्मोड़ा से कर्णप्रयाग, श्रीनगर, टिहरी, देहरादून व ऋषिकेष पहुंचे. इस दौरान तप, ध्यान व साधना की. अल्मोड़ा के काकड़ीघाट में पीपल वृक्ष के नीचे उन्हें आत्मज्ञान प्राप्त हुआ था. कसार देवी गुफा में कई दिनों तक ध्यान किया और उत्तिष्ठ भारत की प्रेरणा प्राप्त हुई.स्वामी विवेकानंद ने उत्तराखंड में तीसरी यात्रा शिकागो से लौटने के बाद 1897 में की. अल्मोड़ा पहुंचने पर लोधिया से खचांजी मोहल्ले तक पुष्प वर्षा की गई थी. वहां लाला बद्रीलाल साह के वह अतिथि रहे. देवलधार एस्टेट में उन्होंने गुफा में ध्यान लगाया था.स्वामी विवेकालनंद ने हिमालय की चौथी यात्रा मई-जून 1898 में की थी. इस बीच अत्यधिक श्रम के चलते उनका स्वास्थ्य खराब रहा. इस यात्रा के दौरान उन्होंने अल्मोड़ा के थॉमसन हाउस से प्रबुद्ध भारत पत्रिका का फिर से प्रकाशन आरंभ किया. 222 साल पुराने देवदार के वृक्ष के नीचे भगिनी को दीक्षा दी. बताया जाता है कि इस यात्रा में उन्होंने रैमजे इंटर कॉलेज में पहली बार हिंदी में भाषण दिया था. उनके इस भाषण से लोग काफी प्रभावित हुए थे.उत्तराखंड में स्वामी विवेकानंद की अंतिम यात्रा वर्ष 1901 में मायावती के अद्वैत आश्रम में हुई थी. आश्रम को बनाने वाले कैप्टन सेवियर की मृत्यु पर 170 किलोमीटर की दुर्गम यात्रा कर वह तीन जनवरी, 1901 को अद्वैत आश्रम लोहाघाट पहुंचे और 18 जनवरी, 1901 तक रहे. इस दौरान उन्होंने तप किया था. जैविक खेती की बात की, आज भी आश्रम में जैविक खेती हो रही है. पहली बार 1890 में कुमाऊं के दौरे पर आए थे. अल्मोड़ा के काकड़ीघाट में पीपल के पेड़ के नीचे उन्हें ज्ञान की अनुभूति हुई थी. सांस्कृतिक नगरी से स्वामी विवेकानंद का गहरा नाता रहा है. वह तीन बार अल्मोड़ा आए थे. स्वामी जी शहर में जिन जगहों पर ठहरे थे, वहां सालभर लाखों की संख्या में पर्यटक पहुंचते हैं. अल्मोड़ा के ब्राइट एंड कॉर्नर में बनी रामकृष्ण कुटीर भी इनमें से एक जगह है.रामकृष्ण कुटीर की स्थापना 1916 में हुई थी. इसको स्थापित करने के लिए स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु भाई शिवानंद महाराज से कहा था. यह स्थान पवित्र और शांत है. स्वामी जी ने गुरुभाई से कहा था कि इस स्थान पर एक आश्रम होना चाहिए, तब जाकर यहां इस कुटीर की स्थापना की गई. देश-विदेश से लोग यहां ध्यान करने के लिए आते हैं. इसके बाद प्रोफेसर राइट ने धर्म संसद के चेयरमैन को चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने लिखा था कि ये व्यक्ति हमारे सभी प्रोफेसरों के ज्ञान से भी ज्यादा ज्ञानी है। स्वामी विवेकानंद धर्मसंसद में किसी संस्था के नहीं बल्कि भारत के प्रतिनिधि के तौर पर शामिल किए गए। स्वामीजी का ध्यान एक ऐसे व्यक्ति के समग्र विकास पर था, जिसमें मनुष्य निर्माण राष्ट्र निर्माण के बराबर था और इसमें व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक भलाई शामिल थी. उसके लिए शारीरिक शक्ति प्रबल थी. उन्होंने सलाह दी कि ‘मजबूत बनो, मेरे युवा दोस्तों … गीता के अध्ययन से , फुटबॉल के माध्यम से आप स्वर्ग के करीब होंगे. ये साहसिक शब्द हैं, लेकिन मुझे तुमसे कहना है, क्योंकि मैं तुमसे प्यार करता हूं. इस प्रकार हमें अपनी आवश्यकताओं के लिए इन्हें लागू करना होगा.19वीं शताब्दी के अंत में, 1857 में असफल भारतीय विद्रोह के बाद, भारत आपदा में खड़ा था. महान और समृद्ध प्राचीन भारतीय सभ्यता, ब्रिटिश साम्राज्य के एकजुट लालच की गुलाम बन गई थी. क्रूर ब्रिटिश कराधान प्रणाली ने दुनिया के सबसे उपजाऊ और प्रचुर कृषि भूमि में से एक को बेकार कर दिया था. 19 वीं सदी भारत में एक के बाद एक अकालों से घिरी हुई थी. उस समय, भारत अपनी ही भूमि पर मुट्ठी भर ब्रिटिश लोगों द्वारा बंदी बना लिया गया था, जिन्होंने बड़ी चतुराई से अपनी शक्ति बनाए रखी, क्योंकि भारतीय अपनी जड़ों और पहचान को पूरी तरह से भूल चुके थे. ऐसे में उस खोई हुई पहचान को एक ऐसे व्यक्ति ने याद दिलाया जो 1857 के विद्रोह के छह साल बाद पैदा हुआ.महज 39 साल के जीवन में, स्वामी विवेकानंद ने खोए हुए ज्ञान की गूंज को भारतीय प्रवचन की मुख्य धारा में ला खड़ा किया, उनका जीवन और संदेश डेढ़ सदी से अधिक समय के बाद आज भी गूंज उठता है. 4 जुलाई, 1902 को आप एक बीमारी के चलते बेहद अल्पायु में परलोक सिधार गये. आज ज्ञान और हिंदुत्व के उन अमर स्तम्भ स्वामी विवेकानंद जी को उनकी पुण्यतिथि पर बारम्बार नमन और वंदन करता है और उनकी यशगाथा को सदा अमर रखने के लिए संकल्प लेता है भारत के खोए वैभव को पूरी दुनिया में प्रचारित करने के लिए समर्पित रहा।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)