ब्यूरो रिपोर्ट। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में भारत सबसे बड़ी युवा आबादी वाला देश है। दुनिया में सबसे ज्यादा युवा भारत में ही रहते हैं। सबसे ज्यादा आबादी वाले चीन से भी 47 प्रतिशत ज्यादा। हमारे देश में इस वक्त 138 करोड़ लोग हैं। इनमें से 25 करोड़ 15 से 25 साल के बीच हैं। यानी, कुल आबादी का 18 प्रतिशत से ज्यादा। वहीं, चीन में सिर्फ 17 करोड़ लोग ऐसे हैं जो यूएन के नॉर्म के मुताबिक युवा हैं। मतलब चीन की कुल आबादी 144 करोड़ के हिसाब से वहां 12 फीसदी लोग ही युवा हैं। हमारे शहरों-कस्बों में आज यौन अपराधों के अलग-अलग रूप सामने आ रहे हैं। कई क्षेत्रों में ऐसे अपराधों में सामंती पृष्ठभूमि के दबंग लोगों के अलावा राज्य-एजेंसियों, खासकर पुलिस व सुरक्षा बलों के लोग भी शामिल दिखाई देते हैं। शहरों-कस्बों में गरीब परिवारों के खास किस्म के बेरोजगार-बेहाल युवा लंपट इस तरह के अपराधों की तरफ तेजी से मुखातिब होते दिख रहे हैं।समय-समय पर मध्यवर्गीय सहकर्मी, अफसर, प्रॉपर्टी डीलर-नेता या बड़े बाबा-तांत्रिक भी आरोपी बनते रहे हैं। पर संपन्न या रौबदार पृष्ठभूमि के लोगों पर यौन हिंसा के आरोप कम लगते हैं और लगते हैं, तो छानबीन के दौर में उन्हें राहत मिल जाती रही है या फिर वे किसी न किसी तरह बरी हो जाते रहे हैं। प्राथमिकी के बावजूद ‘एक बाबा’ को हिरासत में लेने में दस दिन लग जाते हैं।अपने यहां आरोपों और अदालत में चले मुकदमों के मुकाबले सजा की दर बहुत कम है। विकसित देशों और हमारे देश के बीच यह एक बड़ा फर्क है। ऐसे में कड़ा से कड़ा कानून क्या करेगा? सभाओं-जुलूसों या टीवी चैनलों के पर्दों पर लगने वाली ‘फांसी दो, फांसी दो’ की आवाजें एक खास किस्म के ‘लोकप्रियतावाद’ की अभिव्यक्ति हैं, समस्या का समाधान नहीं।अगर सामाजिक-आर्थिक प्रश्नों, अशिक्षा-अज्ञान, बेरोजगारी, तेजी से बढ़ती असमानता और अपराध-दंड विधान की बुनियादी समस्याओं को हल करने की कोशिश नहीं होगी, तो अपराध चाहे वह आम अपराध हों या स्त्री-विरोधी यौन हिंसा, सिर्फ ‘कठोर कानून या कड़े अदालती फैसलों’ से इन्हें कैसे रोका जा सकता है! अपराध और अपराधियों को खुराक देने वाली परिस्थितियों को भी बदलने की जरूरत है। देशभर में डाक्टरों के स्वतः स्फूर्त आंदोलनों को केंद्र की सत्ताधारी पार्टी से जोड़ा जा रहा है। यहां तक कि डाक्टरों को बीजेपी का सपोर्टर बताया जा रहा है।कितने अफसोस की बात है निर्भया को तो बार-बार इस छड़ी से पीटा गया था कि एक महिला मुख्यमंत्री के राज्य में ऐसा हुआ। उन्हें निर्भया को श्रद्धांजलि देने तक से रोक दिया गया था। लेकिन बंगाल के मामले में लोगों ने चुप्पी साध रखी है। यही नहीं, निर्भया के बारे में जो तर्क दिए गए थे कि वह इतनी रात बाहर निकली ही क्यों थी। जैसे कि लड़कियां रात में बाहर निकलेंगी तो पुरुषों को यह अधिकार मिल जाएगा कि उनके साथ कुछ भी करो। दुष्कर्म करो, उन्हें मार डालो। कोलकाता में भी ऐसे ही तर्क सत्ताधारी दल के द्वारा दिए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि वह लड़की सेमिनार रूम में उस वक्त क्या कर रही थी।कोलकाता के एक अस्पताल में हुए जघन्य कांड की गुत्थी अभी सुलझी नहीं है। पश्चिम बंगाल की पुलिस को अक्षम ठहराकर मामला सीबीआई को सौंप दिया गया है। उच्चतम न्यायालय ने भी मामले की गंभीरता को देखते हुए स्वत: संज्ञान लिया है। उधर देशभर के डॉक्टरों का विरोध-प्रदर्शन जारी है। वे सुरक्षा की गारंटी मांग रहे हैं। इस मांग के औचित्य पर उसे देखते हुए न्याय की मांग करने वालों के इरादे पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है।निस्संदेह मामला बहुत गंभीर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए, लेकिन जिस तरह सारे मामले को राजनीति का हथियार बनाया जा रहा है है और बलात्कार का यह मुद्दा कानून-व्यवस्था के लिए जिम्मेदार एजेंसियों की अक्षमता को भी उजागर करने वाला है। उम्मीद ही की जा सकती है कि अपराधी शीघ्र ही पकड़े जाएंगे और मरीजों को अस्पतालों में समुचित चिकित्सा मिलेगी, डॉक्टर को बिना डरे अपना काम करने का माहौल मिलेगा। मरीजों और डॉक्टरों के प्रति हमारी व्यवस्था को कम से कम इतना तो करना ही चाहिए।इस मामले में न्याय मांगने वाले अपराधी या अपराधियों को कड़े से कड़ा दंड, फांसी, दिये जाने की मांग कर रहे हैं। निश्चित रूप से अपराधी को ऐसा दंड मिलना ही चाहिए जो शेष समाज को यह चेतावनी देने वाला हो कि किसी भी सभ्य समाज में ऐसी नृशंसता को स्वीकार नहीं किया जा सकता। लेकिन यहां इस बात को भी स्वीकार किया जाना चाहिए कि कड़ी से कड़ी सजा का एक परिणाम यह भी निकल रहा है कि अपराधी सबूत को मिटाने के चक्कर में बलात्कार के बाद हत्या का मार्ग अपना रहे हैं।दिल्ली की ‘निर्भया’ से लेकर कोलकाता की ‘निर्भया’ तक की यह शृंखला यही बता रही है कि मनुष्यता के खिलाफ किए जाने वाले इस अपराध– बलात्कार के दोषी सिर्फ कड़े कानूनों से नहीं डर रहे हैं। जिस दिन कोलकाता के एक अस्पताल में यह जघन्य कांड हुआ, उसके बाद उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे देश के अन्य हिस्सों में भी बलात्कार-हत्या की घटनाएं सामने आने लगीं। यह स्थिति निश्चित रूप से भयावह है। देश में इन दिनों या तो आप पक्ष में हो सकते हैं, या विपक्ष में। बीच की वह रेखा मिटा दी गई है जहां जब कोई दल अच्छा काम करे, तो उसकी तारीफ की जाए और बुरा करे तो निंदा।आखिर काम-काज की जगह पर स्त्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने से क्यों बचना चाहिए। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लिया है, तो इस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। क्या महिला और महिला के दुष्कर्म में फर्क होता है। महिलाओं के प्रति अपराध कहीं भी हों, देश में किसी भी सत्ताधारी दल की सरकार हो, वह निंदनीय है। लेकिन उंगली अक्सर दूसरे की तरफ ही उठती है।दफ्तरों में यौन प्रताड़ना की निगरानी करने वाली कमेटियां सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर महिला सुरक्षा के लिए ही बनाई गई थीं। क्या कोलकाता की डाक्टर के साथ हुआ अपराध इस श्रेणी में नहीं आता। दिल्ली में जब एक महिला की घर से कुछ दूर रात में हत्या कर दी गई थी, तब से यह कानून बनाया गया था कि रात में जो कैब महिला को छोड़ने जाएगी, वहां उसके साथ दफ्तर का कोई आदमी होगा, जो उसकी सुरक्षा सुनिश्चित करेगा। यही नहीं, जब तक महिला अपने घर के अंदर नहीं चली जाएगी, तब तक कैब वहां से नहीं जाएगी। डाक्टर जो बहत्तर-बहत्तर घंटे ड्यूटी करते हैं, उन्हें सड़क पर तो छोड़िए, अपने काम-काज के स्थान पर सुरक्षा न मिले तो यह कितनी खतरनाक बात है। बहुत-सी महिला डाक्टरों के बयान इस ने पढ़े और सुने हैं। उनमें यही चिंता झलक रही थी। लेकिन कुछ दल और उनके समर्थकों को इससे क्या। वे इन महिला डाक्टरों के बयानों से आंखें मूंदकर, सरकार बनर्जी का पक्ष लेते रहे। स्पष्ट दिख रहा है कि अपराधियों को कानून-व्यवस्था का डर नहीं रहा, कहीं न कहीं उन्हें लग रहा है कि कानून उनकी मनमानी को रोकने में सक्षम नहीं है। स्थिति की गंभीरता और भयावहता को कुछ आंकड़े उजागर कर सकते हैं।नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) की गणना के अनुसार हमारे देश में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों में बलात्कार चौथा सबसे गंभीर अपराध है। प्राप्त आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2021 में देश में बलात्कार के 31,677 मामले दर्ज हुए थे, अर्थात् रोज 86 मामले यानी हर घंटे चार। ज्ञातव्य है कि इसके पहले के दो वर्षों में यह संख्या कम थी– सन् 2020 में 28,046 मामले और सन 2019 में 32,033 मामले। यह आंकड़े तो उन अपराधों के हैं, जो थानों में दर्ज हुए। हकीकत यह है कि आज हमारे देश में कम से कम इतने ही मामले थानों में दर्ज नहीं होते! यह मानकर कि अपराधियों को सज़ा नहीं मिलेगी, पीड़ित पक्ष ‘पुलिस के चक्कर’ में पड़ते ही नहीं। साथ ही बलात्कार की शिकार महिलाएं और उनके परिवार वाले समाज के ‘डर’ से भी पुलिस के पास जाने में हिचकिचाते हैं। बलात्कार स्त्री पर किया गया जघन्य अपराध है, लेकिन हमारे यहां बलात्कार की शिकार महिलाओं को ही संदेह और नीची दृष्टि से देखा जाता है! आज मुख्य सवाल इस दृष्टि के बदलने का है। और यह काम सिर्फ कड़े कानून से नहीं होगा। बलात्कार करने वाले को कड़ी से कड़ी सज़ा मिले, यह सब चाहते हैं, लेकिन यह बात कोई नहीं समझना चाहता कि आवश्यकता उस दृष्टि को बदलने की है जो महिला को एक वस्तु मात्र समझती है। अपराधी यह दृष्टि भी है। सज़ा इसे भी मिलनी चाहिए– इस दृष्टि को बदलने की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए।आज जीवन के हर क्षेत्र में महिलाएं पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं। कई क्षेत्रों में तो पुरुषों से कहीं आगे हैं वे। इसके बावजूद उन्हें कमजोर समझा-कहा जाता है। यह उसी सोच का परिणाम है जो अबला जीवन को ‘आंचल में दूध और पलकों में पानी’ से आगे नहीं देखना चाहता। इस सोच को बदलने की जरूरत है। नारी को पुरुष के सहारे की नहीं, बराबरी के सहयोग की आवश्यकता है और पुरुष को यह समझना होगा कि वह भी नारी के सहयोग के बिना अधूरा है। जितनी आवश्यकता नारी को पुरुष की है, उतनी ही आवश्यकता पुरुष को भी नारी की है। यह काम कानून को कड़ा बनाने से नहीं, समाज की सोच को बदलने से होगा। हम देख रहे हैं कि इस संदर्भ में कानून को कड़ा बनाना अपराध और अधिक जघन्य बना रहा है, उम्मीद करनी चाहिए कि कानून अपना काम करेगा और समाज की सोच भी बदलेगी। इस दिशा में बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है।लेकिन, आज आवश्यकता उस सोच को भी बदलने की है जो हमारे राजनेताओं को हर स्थिति का राजनीतिक लाभ उठाने का लालच देती है। यह सही है कि बलात्कार का यह वीभत्स कांड कोलकाता का है और पश्चिम बंगाल की सरकार का दायित्व है कि वह इस दिशा में ठोस कार्रवाई करे। लेकिन बलात्कार की समस्या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है। कोलकाता में तो बलात्कार के सबसे कम मामले दर्ज होते हैं। इस संदर्भ में राजस्थान का नाम सबसे पहले आता है। इसके बाद मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश का नंबर आता है। ताज़ा उदाहरण यह भी बताता है कि कोलकाता के इस कांड के दूसरे-तीसरे दिन ही उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में भी कुछ ऐसी ही घटनाएं घटीं। इस बारे में हमारे राजनीतिक दलों ने जिस तरह का रवैया अपनाया है उसे किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। बंगाल में भाजपा का मुकाबला ममता की तृणमूल-कांग्रेस पार्टी से है इसलिए भाजपा वहां सरकार बदलने की मांग कर रही है। यह ग़लत प्रवृत्ति है। हर बात को राजनीतिक नफे-नुकसान की दृष्टि से देखकर हम आने वाले कल का विकसित भारत नहीं बना पायेंगे। यह बात हमारे राजनेताओं को समझनी होगी। तभी समाज का स्वास्थ्य सुधरेगा, तभी हमारा भारत विकसित होगा।बलात्कार के किसी कांड को राजनीति का हथियार बनाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता। बलात्कार और बलात्कारियों को किसी भी दृष्टि से छूट नहीं दी जा सकती, लेकिन इस बात को भी नहीं भुलाया जाना चाहिए कि ऐसा अपराध करने वाला ही नहीं, ऐसे अपराध को सहने वाला समाज भी दोषी होता है।के लिए सरकार और राजनेताओं को मजबूत इच्छाशक्ति दिखानी होगी।