गंगोत्री और यमुनोत्री का प्रवेश द्वार कहा जाने वाला उत्तरकाशी भागीरथी नदी के किनारे वरुणावत पर्वत की तलहटी में बसा है। इससे भूस्खलन का मतलब पूरे रिहायशी इलाके का खतरे की जद में आना है। वरुणावत पर्वत का पूरा क्षेत्र कई मायनों में बेहद संवेदनशील है। भूकंप के लिहाज से सक्रिय क्षेत्र में स्थित है। वर्ष 1991 में यहां रिक्टर स्केल पर 6.1 तीव्रता का भूकंप आ चुका है।उत्तरकाशी निवासी और पर्यावरणविद् कहते हैं “चीड़ का वन होने के चलते गर्मियों में यहां वनाग्नि की घटनाएं होती हैं और मिट्टी की पकड़ ढीली होती है। अब बारिश भी पहले की तरह रिमझिम नहीं होती। इस बार की बारिश में ऐसी-ऐसी सड़कें और पहाड़ टूटे जो बेहद मजबूत हार्ड रॉक माने जाते थे। जिनकी कोई कल्पना नहीं थी। जिनसे कभी पत्थर का एक टुकड़ा नहीं गिरता था”।तत्कालीन आपदा प्रबंधन अधिकारी (एक हफ्ते पहले चंपावत में तबादला) बताते हैं कि टीएचडीसी (टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड), जीएसआई( भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण) और यूएलएमएमसी (उत्तराखंड भूस्खलन शमन एवं प्रबंधन केंद्र) के विशेषज्ञों की समिति ने भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र का निरीक्षण किया है। समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट अभी दाखिल नहीं की है। समिति की सदस्य और यूएलएमएमसी की भू- वैज्ञानिक की बातों की पुष्टि करती हैं। हम वरुणावत पर्वत के शिखर तक भूस्खलन प्रभावित क्षेत्र का सर्वेक्षण किया है। हमने जंगल की आग का असर वहां देखा। कहीं-कहीं जली घास भी दिखाई दी। इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि मृदा क्षरण होने से ऊपरी सतह कमज़ोर हुई हो। 26-27 अगस्त को अच्छी बारिश हुई थी। पहाड़ के जिस हिस्से से भूस्खलन हुआ, वहां ऊपरी हिस्से में 30 डिग्री की ढलान है लेकिन उसके बाद खड़ी ढाल है। बारिश की तेज़ बौछारों से यहां से पत्थर टूटकर गिरे”। लैंड स्लाइड एटलस ऑफ इंडिया के मुताबिक उत्तराखंड के 13 में से 8 जिले भूस्खलन के लिहाज से अति संवेदनशील जिलों की सूची में आते हैं।वरुणावत भूस्खलन के बाद मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने भूस्खलन से संबंधित चेतावनी प्रणाली को विकसित करने के निर्देश दिए। भू- वैज्ञानिक और उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कार्यकारी निदेशक पद से इस वर्ष ही इस्तीफा देने वाले कहते हैं “जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया भूस्खलन से संबंधित चेतावनी जारी करता है। आमतौर पर बारिश के साथ जोड़कर भूस्खलन की चेतावनी जारी की जाती है। लेकिन भूस्खलन ठीक-ठीक कब और कहां होगा ये कहना बहुत मुश्किल है”। पहाड़ पर बसा शहर होने के चलते नैनीताल में वर्ष 1997 तक भूस्खलन की मॉनिटरिंग की जा रही थी। “जिन पहाड़ियों पर भूस्खलन से आबादी को खतरे की आशंका ज्यादा है वहां भूस्खलन की मॉनिटरिंग कर चेतावनी प्रणाली विकसित की जा सकती है। इसके लिए आज हमारे पास ज्यादा
बेहतर तकनीक भी है”। पहाड़ों में एक ही जगह होने वाली तेज़ बारिश नुकसान को बढ़ा रही है। डॉ टंडन कहती
हैं कि सेटेलाइट तस्वीरों में इस जगह पहले से ही हलकी टूट फूट दिखाई दे रही थी। “पर्वत के शिखर पर हमें
दरारें नहीं मिलीं। मौजूदा स्थितियों में हम यह मान रहे हैं कि फिलहाल यहां किसी बड़े भूस्खलन का खतरा नहीं
है। लेकिन बीच-बीच में मलबा फंसा हुआ दिखा है। इसके थोड़ा-थोड़ा कर नीचे आने की आशंका बनी हुई है”।
वरुणावत भूस्खलन के बाद मुख्यमंत्री ने भूस्खलन से संबंधित चेतावनी प्रणाली को विकसित करने के निर्देश
दिए। भू-वैज्ञानिक और उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के कार्यकारी निदेशक पद से इस वर्ष ही
इस्तीफा देने वाले कहते हैं “जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया भूस्खलन से संबंधित चेतावनी जारी करता है।
आमतौर पर बारिश के साथ जोड़कर भूस्खलन की चेतावनी जारी की जाती है। लेकिन भूस्खलन ठीक-ठीक कब
और कहां होगा ये कहना बहुत मुश्किल है”। पहाड़ पर बसा शहर होने के चलते नैनीताल में वर्ष 1997 तक
भूस्खलन की मॉनिटरिंग की जा रही थी। जिन पहाड़ियों पर भूस्खलन से आबादी को खतरे की आशंका ज्यादा है
वहां भूस्खलन की मॉनिटरिंग कर चेतावनी प्रणाली विकसित की जा सकती है। इसके लिए आज हमारे पास
ज्यादा बेहतर तकनीक भी हैभूस्खलन के लिहाज से संवेदनशील वरुणावत पर्वत के आसपास लगातार अवैध
अतिक्रमण हो रहा है और लोग मकान बनाकर रह रहे हैं।उत्तरकाशी जिला आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के
सलाहकार बताते हैं कि विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर वरुणावत के उपचार का कार्य शुरू किया
जाएगा। “फिलहाल प्रभावित क्षेत्र में रह रहे करीब 27 परिवारों को राहत शिविरों या अन्य सुरक्षित स्थानों पर
रहने के लिए कहा गया है। वे दिन में अपने कार्यों से घर आते हैं लेकिन रात में नहीं ठहरते”। लैंड स्लाइड एटलस
ऑफ इंडिया के मुताबिक उत्तराखंड के 13 में से 8 जिले भूस्खलन के लिहाज से अति संवेदनशील जिलों की सूची
में आते हैं। शोधकर्ता इस बात पर ध्यान देते हैं कि मॉडल का उपयोग क्षेत्रीय ईडब्ल्यूएस की सटीकता में सुधार
के लिए किया जा सकता है। अब वे पूरे राज्य में विस्तार करने से पहले मॉडल को उत्तराखंड के कुछ कैचमेंट में
इस्तेमाल करने की योजना बना रहे हैं। वे कहते हैं, “अगर हमें मौका मिला तो हम इसे पश्चिमी घाट और भारत
के अन्य भूस्खलन-संभावी क्षेत्रों तक बढ़ा सकते हैं।”चाहे क्षेत्रीय हो या साइट-विशिष्ट आंकड़े, वैज्ञानिक मानते हैं
कि ऐतिहासिक डेटा की कमी और अनियमित मौसम पैटर्न के कारण सटीक पूर्वानुमान करना एक चुनौती है।
मालामुद कहते हैं, “एक भूस्खलन ईडब्ल्यूएस केवल उतना ही अच्छा रहेगा जितना अच्छा डेटा रहेगा।”
उदाहरण के लिए, वैज्ञानिकों को चार मुख्य सवालों के जवाब चाहिए। जैसे भूस्खलन कहां और कब होते हैं,
उनका आकार और प्रकार क्या है। इसके लिए पिछले और छोटे भूस्खलन या कम आबादी वाले क्षेत्रों में होने
वाले भूस्खलन से संबंधित डेटा की जरूरत होती है। देश में ऐसी जानकारी कम है।अन्य शोधकर्ता क्षेत्रीय
पूर्वानुमान मॉडल की सटीकता में सुधार के लिए मशीन लर्निंग यानी एक प्रकार की कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई)
का इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नोलॉजी, सिडनी के प्रतिष्ठित शोधकर्ता जो बताता है
कि एआई सिस्टम कैसे फैसला लेते हैं को पूर्वानुमान मॉडल के साथ जोड़ने में संभावना देखते हैं। उन्होंने भूटान
में एक अध्ययन के लिए पहले ही इस तरह के मॉडल का उपयोग किया है। यह संयोजन पारंपरिक मॉडल की
तुलना में अधिक सटीक है। परिणाम जल्द ही प्रकाशित होने की उम्मीद है। अन्य शोधकर्ता साइट-विशिष्ट
भूस्खलन पूर्वानुमान का सुझाव देते हैं। इसके लिए जमीन पर लगे सेंसर का इस्तेमाल करके अलग-अलग पहाड़ी
ढलानों से डेटा जुटाने की जरूरत होगी। ये गैजेट मिट्टी की नमी, आर्द्रता और बारिश के साथ-साथ मिट्टी की गति
का पता लगा सकते हैं।हालांकि, घोष का कहना है कि सबसे बड़ी चुनौती शुरुआत से ही नागरिकों को शामिल
करना है। इसका उद्देश्य अधिकतम परिणाम प्राप्त करने के लिए एक वास्तविक जन-केंद्रित भूस्खलन ईडब्ल्यूएस
विकसित करना होना चाहिए। हर भूस्खलन अलग होता है, क्योंकि ये अलग-अलग ढलानों पर होते हैं।
भूस्खलन की भविष्यवाणी करने की चुनौती यह है कि इसे समय पर किसी विशिष्ट स्थान पर पकड़ा जाए। एक
शुरुआती चेतावनी प्रणाली हमें उस स्थान पर भूस्खलन के बारे में जानकारी देगी जहां इसे स्थापित किया गया
है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम घटना की भविष्यवाणी कर पाएंगे। भारत में पहले से स्थापित शुरुआती
चेतावनी प्रणालियां (ईडब्लूएस) आम तौर पर केवल बारिश के आधार पर भूस्खलन का अनुमान लगाती हैं। हम
उस ढलान का पता नहीं लगा सकते जहां ये होंगे। इनमें से कुछ सिस्टम सेंसर पर आधारित होते हैं जो काफी
सटीक होते हैं। लेकिन, इनमें से अधिकांश को उन क्षेत्रों में स्थापित किया गया है जो पहले से ही भूस्खलन के
लिए जाने जाते हैं। हम जलवायु परिवर्तन के कारण बारिश के पैटर्न में तेज बदलाव देख रहे हैं। इस बदलाव पर
अधिक ध्यान देने की जरूरत है। वायनाड के मामले में हमें न केवल सटीक बारिश के पूर्वानुमान की आवश्यकता
थी, बल्कि भूस्खलन और बाढ़ जैसे परिणामों के रियल टाइम विश्लेषण की भी जरूरत थी। इस प्रकार, हमें खतरे
की चेतावनी देने वाली सेवाओं से परे ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है और एक बहु-खतरे वाली शुरुआती
चेतावनी प्रणाली उपलब्ध कराने की जरूरत है। इसके अलावा, इस तरह के विश्लेषण को जमीनी स्तर के क्षेत्रीय
डेटा द्वारा पुष्ट किया जाना चाहिए और स्थानीय प्रशासन और सामुदायिक स्वयंसेवकों की मदद से कार्रवाई की
जानी चाहिए। पारंपरिक तीव्रता सीमा-आधारित दृष्टिकोण से ऐसी प्रणाली मूल्य श्रृंखला में अधिक ऊंची है,
क्योंकि यह कमजोर आबादी के हित को डिजाइन की गई शुरुआती चेतावनी प्रणाली के केंद्र में रखती है।
आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में इस वर्षाकाल में भी जगह-जगह भूस्खलन ने नींद उड़ाए
रखी। इनमें सक्रिय रहे 52 बड़े भूस्खलन क्षेत्रों का सरकार अध्ययन कराने जा रही है। इन स्थानों पर बीती 31
मई से 16 सितंबर के मध्य भूस्खलन हुआ।यूएलएमएमसी (उत्तराखंड लैंडस्लाइड मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट
सेंटर) के विशेषज्ञ आने वाले दिनों में इनका अध्ययन करेंगे। उनकी रिपोर्ट के आधार पर इन क्षेत्रों में भूस्खलन
की रोकथाम को उपचारात्मक कार्य प्रारंभ किए जाएंगे। उत्तराखंड में हर वर्षाकाल किसी बड़ी मुसीबत से कम
नहीं टूटता। इस बार ही अतिवृष्टि के चलते हुए भूस्खलन से जानमाल की बड़े पैमाने पर क्षति हुई। जगह-जगह
सड़कें बाधित रहीं तो बादल फटने से कहीं खेत बह गए तो दूसरी परिसंपत्तियों को भी क्षति पहुंची।
सरकारी आंकड़ों को ही देखें तो आपदा में इस बार 77 व्यक्तियों की जान चली गई, जबकि 37 घायल
हुए और 23 लापता हैं। 469 छोटे-बड़े पशु काल कवलित हुए, जबकि 2800 घरों को नुकसान पहुंचा।
राज्य में इस बार छोटे-बड़े 500 से अधिक स्थानों पर भूस्खलन हुआ। इनमें 52 स्थान ऐसे रहे, जहां
बड़े भूस्खलन हुए, जिनमें चार स्थानों पर एक से ज्यादा बार भूस्खलन हुआ। यद्यपि, तात्कालिक तौर
पर वहां कदम उठाए गए, लेकिन अब इनके दीर्घकालिक उपचार पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।