शंकर सिंह भाटिया
देहरादून। सन् 1994 के उत्तराखंड आंदोलन का वह दौर जब राज्य के लिए लड़े जा रहे एक विशाल जन आंदोलन का नेतृत्व क्षेत्रीय दल उक्रांद ने किया। इस आंदोलन की धार इस कदर पैनी थी कि राज्य का विरोध करने वाले राष्टीय दलों को मजबूरन राज्य का समर्थन करना पड़ा। इससे पहले सन् 1979 में मसूरी में जब उक्रांद का गठन हुआ उसके बाद से ही वन आंदोलन के जरिये उक्रांद ने इस पर्वतीय क्षेत्र की जनता में अपनी पैंठ बनानी शुरू की थी। जिस क्षेत्र में उत्तराखंड राज्य की बात करने वाला भी कोई नहीं था, वहां 1994 के जन आंदोलन की पृष्ठभूमि भी इसी क्षेत्रीय दल ने तैयार की थी। इस पृष्ठभूमि में खड़ा हुए एक विचार आज समूल नष्ट होने की कगार पर खड़ा है, तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या अब उत्तराखंड की जनता ने उक्रांद को पूरी तरह नकार दिया है? यदि हां तो उक्रांद के नेतृत्व को नहीं चाहिए कि वह चुनावी राजनीति का परित्याग कर दे?
दरअसल उक्रांद महान शिक्षाविद डीडी पंत का मानस पुत्र है। गोविंद बल्लभ पंत की छत्रछाया तले दबे इस मध्य हिमालयी क्षेत्र में गोविंद बल्लभ पंत तथा उनके अगली पीढ़ी के कथित बड़े नेताओं पर इस क्षेत्र की जनता ने इस कदर भरोसा किया कि उन्होंने अपने पड़ौसी हिमाचल प्रदेश की तरह कभी भी अपने राज्य की मांग तक नहीं की। उन्हें भरोसा था कि ये बड़े नेता इस क्षेत्र के भविष्य को सही दिशा में ले जाएंगे। यहां की जनता उत्तर प्रदेश के साथ ही अपना भविष्य सुरक्षित मानती रही। डीडी पंत जैसे महान शिक्षाविद् को सत्तर अस्सी के दशक में ही आभाष हो गया था कि उत्तराखंड राज्य की मांग अपरिहार्य है, अन्यथा यह क्षेत्र अपनी जड़ों से कट जाएगा। सन् 1971 में हिमाचल प्रदेश पूर्ण राज्य बन चुका था और डा.वाईएस परमार के नेतृत्व में उससे पहले केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर वह अपनी अर्थव्यवस्था को जरूरतों के मुताबिक ढलने के प्रयास कर रहा था, जिसके परिणाम वहां दिखाई दे रहे थे। इसके विपरीत उत्तराखंड में खेती पर आधारित अर्थव्यवस्था दरकने लगी थी। अर्थव्यवस्था को बागवनी की तरफ शिफ्ट करने के विकल्प पर जो प्रयास हिमाचल में हो रहे थे, उत्तराखंड में इस तरह के प्रयास दूर-दूर तक नहीं हो रहे थे।
उत्तर प्रदेश तथा केंद्र सरकार में भूमिका रखने वाले उत्तराखंड के नेताओं की इस मध्य हिमालयी क्षेत्र की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की तरफ रत्ती भर भी रुचि नहीं थी। भविष्यदृष्टा डीडी पंत ने उत्तराखंड आज जहां तक चला गया है, जिस तरह पहाड़ पूरी तरह से बर्बाद हो गए हैं, उसकी छाया तभी देख ली थी। उत्तराखंड राज्य की मांग के लिए उन्होंने इस क्षेत्रीय दल का गठन किया था। लेकिन 1980 में ही केंद्र सरकार वन अधिनियम लेकर आ गई, जिसकी सबसे बड़ी चोट उत्तराखंड को ही झेलनी पड़ी। हिमाचल प्रदेश इस वन अधिनियम के आने से पहले ही वनों को काटकर सेब के बगीचे लगा चुका था। यही वजह थी कि हिमाचल प्रदेश में वन भूमि 24 प्रतिशत भूभाग में है, जबकि उत्तराखंड में 65 प्रतिशत से अधिक भूभाग में वन हैं।
गोविंद बल्लभ पंत की सोच को आगे बढ़ाने वाले उत्तराखंड मूल के कथित बड़े नेताओं ने दिल्ली लखनऊ में रहकर इस भूभाग के बारे में सोचने के बजाय सिर्फ अपनी राजनीति को और ऊपर ले जाने के बारे में ही सोचा। जब उत्तराखंड के राष्टीय नेता गोविंदबल्लभ पंत देश में राज्यों के भविष्य पर निर्णय ले रहे थे, उन्हें अपनी मातृभूमि के बारे में रत्तीभर भी सोचने की जरूरत महसूस नहीं हुई। लेकिन उस दौर में हिमाचल प्रदेश के लिए चिंतित एक छोटे क्षेत्रीय नेता डा.वाईएस परमार सिर्फ हिमाचल प्रदेश के बारे में सोच रहे थे, यही वजह है कि वे इस हिमालयी क्षेत्र के महान वास्तुकार बन सके। इस भूमि ने गोविंद बल्लभ पंत पैदा करने की कीमत एक बड़े नेता भारत रत्न पैदा करके चुकाई, जिसका परिणाम यह हुआ कि एक बड़ा नेता तो पा लिया, लेकिन उस बड़े नेता की छाया के नीचे यह भूमि आज जर्जर हो गई है। हिमाचल प्रदेश ने एक छोटा क्षेत्रीय नेता पैदा किया, जिसने अपनी भूमि को सरसब्ज कर आबाद कर दिया। डीडी पंत इस सच्चाई को 70-80 के दशक में ही समझने लगे थे। इस क्षेत्र की जनता ने इस विचार को हाथों हाथ लिया भी। 1991 से पहले इस क्षेत्र में कांग्रेस के मुकाबले सिर्फ उक्रांद ही मौजूद था। भाजपा तब अपना वजूद तलाश रही थी। लेकिन उक्रांद नेतृत्व की कमअक्ली, अपरिपक्व राजनीतिक सोच की वजह से एक सोच, एक विचार जो सन् 1979 में उभरा था, संभवतः इस क्षेत्र के लिए सबसे मुफीद राजनीतिक विकल्प बनने की ओर बढ़ रहा था, आज बिखर कर समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। इसके लिए कोई और नहीं उक्रांद का नेतृत्व पूरी तरह जिम्मेदार है।
सन् 2002 में उत्तराखंड विधानसभा के पहले चुनाव में इस क्षेत्रीय दल के चार विधायक जीतकर विधानसभा पहुंचे। उक्रांद की यह परफारमेंस अपेक्षा से बहुत अधिक खराब थी। दल को मजबूती देने, अगले चुनाव में और बेहतर प्रदर्शन करने के लिए रणनीति तैयार करने के बजाय उक्रांद का विधायक दल पूरी तरह से मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के इर्द-गिर्द घूमता रहा। अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए बड़े लक्ष्य से दूर होता चला गया। परिणाम यह हुआ कि 2007 के चुनाव में उक्रांद के सिर्फ तीन विधायक जीत पाए, 2002 में जीते तीन विधायक हार गए। नगर निकायों के चुनाव हों या फिर पंचायतों के चुनाव किसी भी स्थानीय चुनाव में बेहतर करने के प्रयास हुए ही नहीं। सिर्फ बार-बार निजी स्वार्थों के लिए दल तोड़ा जाता रहा। पहले चुनाव में यह क्षेत्रीय दल जिसने उत्तराखंड के लोगों को अपने राज्य के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया था, उसके विधायक कांग्रेस की छाया तले दबे रहे। दूसरे विधानसभा चुनाव में भाजपा की सरकार को मजबूत करने का बहाना लेकर उक्रांद भाजपा की गोद में जा बैठा। इस निर्णय से भाजपा की सरकार चाहे जितनी मजबूत हुई होगी, उक्रांद जरूर कमजोर होता चला गया। परिणाम यह हुआ कि दल टूटा और दो विधायकों को भाजपा अपने पाले में खींचकर ले गई। 2012 के तीसरे चुनाव में सिर्फ एक विधायक विधानसभा पहुंच पाया, वह अपनी पार्टी के बजाय कांग्रेस सरकार का हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि 2017 के चैथे चुनाव में उक्रांद शून्य पर पहुंच गया।
स्थानीय चुनाव में जहां उक्रांद के बेहतर करने की अपेक्षा की जाती थी, बिना रणनीति के चुनाव लड़े गए। अब हालात इस कदर हो गए हैं कि कल का आया आप उक्रांद से आगे निकल गया है। उत्तराखंड विरोधी बसपा तो इस राज्य की तीसरी ताकत तक बन गई थी, जिसके लिए उक्रांद सबसे अधिक जिम्मेदार माना जा सकता है। अब निकाय चुनाव के परिणाम ने उक्रांद को सपा के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है। पूरे राज्य में एक पार्षद सपा का भी जीता है और एक उक्रांद का भी जीता है।
क्षेत्रीय दल की इस दुर्दशा ने उत्तराखंड की सत्ता में बारी-बारी से काबिज होकर इस राज्य के वजूद के खिलाफ निर्णय लेने वाले भाजपा-कांग्रेस को इस कदर मजबूती दी है कि उनका अब कोई विकल्प दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता। वे उत्तराखंड को लतियाते भी, उसी पर गुर्राते भी हैं और खुद ही चुनाव जीतकर आते हैं और सत्ता पर काबिज हो जाते हैं। क्या इस सब के लिए उक्रांद जिम्मेदार नहीं है?
चुनाव दर चुनाव उक्रांद की जो हालत हो गई है, इन हालातों में भी उसे फिर से चुनाव में जाना चाहिए? राज्य की परिकल्पना करने वाला, जनता को इसके लिए प्रेरित करने वाला और इस विचार को पराकाष्ठा तक पहुंचाने वाला एक विचार अब मर रहा है।