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रिस्पना बिंदाल की अवैध बस्तियां या वोटों की खेती?

19/09/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

प्राकृतिक आपदाओं को रोका नहीं जा सकता है, लेकिन उससे जानमाल के नुकसान को कम जरूर किया जा
सकता है। यह कैसे करना है, इस बात को भी हमारे विज्ञानी और नियोजन के विशेषज्ञ चीख-चीख कर लंबे
समय से कहते आ रहे हैं कि प्रकृति के रास्ते में नहीं आना है। लेकिन, लगता है कि राजधानी दून में ही
आपदा से बचे रहने का सबसे बड़ा सबक हम भूल गए हैं।सोमवार रात को हुई अतिवृष्टि और सहस्त्रधारा
क्षेत्र में दो जगह फटे बाद के जो हालात पैदा हुए, उससे साफ हो गया कि नदियों का गला घोंटने का अंजाम
कितना खतरनाक हो सकता है। दून में नदी क्षेत्रों में धड़ल्ले से किए गए अतिक्रमण की खतरनाक स्थिति
सेटेलाइट चित्रों में भी समाने आई है। जिसमें दिख रहा है कि काठबंगला क्षेत्र में रिस्पना नदी की भूमि वर्ष
2003 से 2018 के बीच में किस कदर जमकर अतिक्रमण किए गए।वरिष्ठ भूविज्ञानी ने राज्य गठन के महज
तीन साल बाद और इसके 15 साल बाद 2018 के चित्रों का अध्ययन किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो
काठबंगला क्षेत्र वर्तमान में अतिक्रमण से पूरी तरह भर चुका है, वहां वर्ष 2003 में रिस्पना नदी के दोनों
किनारे पूरी तरह खाली थे।इसके साथ ही दोनों किनारों पर जंगलनुमा एक पूरा क्षेत्र था। वहीं, महज 15
साल बाद 2018 में सेटेलाइट चित्र में रिस्पना नदी बमुश्किल नजर आ रही है। सेटेलाइट चित्र में दोनों छोर
पर घनी बस्तियां और भवन नजर आ रहे हैं। इसके अलावा 15 साल पहले का जंगलनुमा भाग 95 प्रतिशत
तक गायब हो चुका है।देहरादून में रिस्पना और बिंदाल नदी क्षेत्रों में अतिक्रमण की बाढ़ पर मनमोहन
लखेड़ा बनाम राज्य में नैनीताल हाई कोर्ट ने कड़ा रुख अपनाया था। अतिक्रमण पर कार्रवाई करने के आदेश
के बाद सरकारी मशीनरी हरकत में भी आई थी। तब उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) ने इसरो के
माध्यम से अमेरिकी कंपनी मैक्सर से शहर के सभी 60 वार्डों (अब बढ़कर संख्या 100) के सेटेलाइट चित्र
मंगाए थे।यह चित्र प्रत्येक छह माह के अंतर में अतिक्रमण की स्थिति को बयां करने वाले थे। उस समय कुल
2100 सेटेलाइट चित्र मंगाए गए थे। हालांकि, अतिक्रमण पर न तो कार्रवाई की गई और न ही चित्रों के
आधार पर अतिक्रमण की भयानक स्थिति को बाहर आने दिया गया। यह चित्र वर्तमान में भी यूसैक
कार्यालय में डंप पड़े हैं।हाई कोर्ट के सख्त रुख के बाद यूसैक ने सेटेलाइट चित्रों के आधार पर धरातल पर
स्थिति का जायजा लेने की कवायद शुरू की थी। यूसैक की टीम ने विभिन्न मलिन बस्ती क्षेत्रों का सर्वे भी
शुरू किया था, लेकिन उन्हें वहां घुसने भी नहीं दिया गया। सरकारी मशीनरी भी इस स्थिति पर मूक दर्शक
बनी रही और वोटबैंक की राजनीति करने वाले नेता और विधायक इस बात से खुश थे। विरोध के बाद

अतिक्रमण के सर्वे को वहीं बंद कर दिया गया। गौरतलब है कि दून में रिस्पना और बिंदाल नदियों के
किनारे बड़े पैमाने पर अवैध अतिक्रमण उत्तराखंड की राजधानी में पर्यावरणीय क्षरण, जनसांख्यिकीय
परिवर्तन और प्रशासनिक निष्क्रियता का केंद्र बन गए हैं। हालाँकि उच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित
अधिकरण (एनजीटी) ने राज्य सरकार को बार-बार निर्णायक कार्रवाई करने का निर्देश दिया है, फिर
भी क्रियान्वयन असंगत बना हुआ है, राजनीतिक प्रतिरोध के साथ-साथ व्यवस्थागत जड़ता भी इसमें
बाधा डाल रही है।पिछले दो दशकों में, देहरादून में मौसमी नदियों के किनारे अवैध बस्तियों में लगातार
वृद्धि देखी गई है, जहाँ दूसरे राज्यों से आए प्रवासी सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर रहे हैं, और दावा
किया जाता है कि यह स्थानीय राजनेताओं के मौन समर्थन से किया गया है। इन बस्तियों ने न केवल
शहर के पारिस्थितिक, बल्कि सामाजिक और जनसांख्यिकीय परिदृश्य को भी बुरी तरह बदल दिया है।
विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि इनमें से ज़्यादातर अतिक्रमण निर्धारित बाढ़ क्षेत्रों में आते हैं, जिससे ये
प्राकृतिक आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं।गौरतलब है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने
हाल ही में एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से अतिक्रमण हटाने
में नाकामी पर स्पष्टीकरण मांगा था। देहरादून जिला प्रशासन ने अब चिन्हित अवैध निर्माणों को हटाने
के लिए 30 जून 2025 तक का समय मांगा है।यह कदम पिछले साल एनजीटी की उस कड़ी टिप्पणी
के बाद उठाया गया है, जिसमें उसने नदी तटों पर अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई न करने पर देहरादून
के जिलाधिकारी और अन्य अधिकारियों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। एनजीटी ने
इस निष्क्रियता को "प्रशासनिक लापरवाही" करार दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर अतिक्रमण
तुरंत नहीं हटाए गए तो और भी कड़े जुर्माने लगाए जाएँगे।यह भी याद किया जा सकता है कि मई-जून
2024 में, न्यायिक दबाव में, प्रशासन ने रिस्पना नदी के किनारे एक सीमित अतिक्रमण विरोधी
अभियान शुरू किया था। हालाँकि कुछ संरचनाओं को ध्वस्त कर दिया गया था, लेकिन कुछ ही समय
बाद कई क्षेत्रों में फिर से कब्ज़ा कर लिया गया, जो निरंतर प्रवर्तन और राजनीतिक इच्छाशक्ति की
कमी को दर्शाता है। गढ़वाल पोस्ट में आज प्रकाशित एक समाचार में बताया गया है कि, उच्च न्यायालय
के दबाव में, तत्कालीन राज्य सरकार ने 2018 में देहरादून में एक बड़े सर्वेक्षण और अतिक्रमण विरोधी
अभियान की शुरुआत की थी, लेकिन उसके बाद सर्दियों के मौसम के आने का बहाना बनाकर अभियान
को बीच में ही छोड़ दिया था, यह दावा करते हुए कि हजारों परिवार बेघर हो जाएंगे। बाद में, सरकार
ने नदी के किनारे बसी झुग्गी बस्तियों को संरक्षण प्रदान करने वाले कुछ अध्यादेश भी पेश किए।
हालाँकि, अध्यादेश को बार-बार बढ़ाया जाता रहा है, लेकिन सरकार ने इन कॉलोनियों को नियमित

करने की हिम्मत नहीं की है।गौरतलब है कि राज्य और जिला प्रशासन ने देहरादून नगर निगम और
मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) के साथ मिलकर 2016 के बाद हुए 534 अतिक्रमणों
की पहचान की है और उन पर कब्जा करने वालों को नोटिस जारी किए हैं। हालाँकि, तत्कालीन हरीश
रावत सरकार द्वारा इन मलिन बस्तियों को नियमित करने के विवादास्पद फैसले के कारण 2016 से
पहले हुए अतिक्रमणों को लक्षित नहीं किया जा रहा है।इस बीच, कार्यकर्ताओं और स्थानीय निवासियों
का तर्क है कि वोट बैंक की राजनीति ने इस मुद्दे को और जटिल बना दिया है। राजनीतिक समर्थन,
खासकर प्रवासी आबादी के बीच, मज़बूत करने के लिए अतिक्रमणों को कथित तौर पर बढ़ावा दिया
गया है या उनकी अनदेखी की गई है। स्थानीय विधायकों, नगर निगम पार्षदों और विभिन्न राजनीतिक
दलों के नेताओं ने कथित तौर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को
प्रमुख घटक मानते हुए, तोड़फोड़ अभियान में बाधा डाली है। ऐसी स्थिति में, राज्य प्रशासन अब खुद
को मुश्किल में फंसा हुआ पा रहा है, जहाँ एनजीटी उसकी गर्दन पर तलवार लटकाए हुए है, जबकि
राजनीतिक हितधारक यथास्थिति की मांग कर रहे हैं।वास्तव में, अतिक्रमण की समस्या केवल भूमि
उपयोग का मुद्दा नहीं है, इसके गंभीर पर्यावरणीय और जनसांख्यिकीय परिणाम हैं। विशेषज्ञ चेतावनी
देते हैं कि रिस्पना और बिंदाल जैसी नदियाँ, हालांकि अभी शांत दिखाई देती हैं, दशकों में अपने
प्राकृतिक मार्गों पर लौट सकती हैं और अवैध रूप से निर्मित बस्तियों पर कहर बरपा सकती हैं। इतना
ही नहीं, इस राज्य में, विधानसभा परिसर, यूकेएसएसएससी और यहाँ तक कि सहसपुर स्थित
मानसिक आश्रय गृह जैसी कई रणनीतिक सरकारी इमारतें भी नदी के किनारे स्थित हैं। स्थानीय
जलविज्ञानियों के अनुसार, यह स्थिति भविष्य में अवांछित आपदा को आमंत्रित कर सकती है। हाल ही
में किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, बिंदाल और रिस्पना नदियों के 13 किलोमीटर के हिस्से में 129
झुग्गी-झोपड़ियाँ हैं, जिनमें 40,000 से अधिक लोग रहते हैं, जिनमें से अधिकांश बाढ़ के मैदान या
नदी तल और जलग्रहण क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत भूमि पर रहते हैं।यह भी याद रखना ज़रूरी है कि
ऋषिपर्णा (रिस्पना) रिवरफ्रंट परियोजना, जो कभी तत्कालीन मुख्यमंत्री के नदी के पुनरुद्धार और
सौंदर्यीकरण के विजन का हिस्सा थी, सरकार बदलने के साथ ही गुमनामी में खो गई है। इस बीच,
ज़मीन का नियमन अनौपचारिक रूप से जारी रहा है, जिसमें 100 रुपये के स्टांप पेपर के ज़रिए
संपत्तियों का हस्तांतरण होता रहा है, जो एक अवैध प्रथा है जिसके दीर्घकालिक परिणाम होंगे।एनजीटी
ने अब उत्तराखंड प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को निर्देश दिया है कि अगर अतिक्रमण जारी रहा तो स्वतंत्र
कार्रवाई की जाए। उच्च न्यायालय ने भी राज्य को अतिक्रमण हटाने के काम में तेज़ी लाने और जून के अंत

तक स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है।यह देखना अभी बाकी है कि राज्य अंततः निर्णायक
कार्रवाई करेगा या तुष्टीकरण के रास्ते पर चलता रहेगा।गौरतलब है कि दून में रिस्पना और बिंदाल नदियों
के किनारे बड़े पैमाने पर अवैध अतिक्रमण उत्तराखंड की राजधानी में पर्यावरणीय क्षरण, जनसांख्यिकीय
परिवर्तन और प्रशासनिक निष्क्रियता का केंद्र बन गए हैं। हालाँकि उच्च न्यायालय और राष्ट्रीय हरित
अधिकरण (एनजीटी) ने राज्य सरकार को बार-बार निर्णायक कार्रवाई करने का निर्देश दिया है, फिर भी
क्रियान्वयन असंगत बना हुआ है, राजनीतिक प्रतिरोध के साथ-साथ व्यवस्थागत जड़ता भी इसमें बाधा
डाल रही है।पिछले दो दशकों में, देहरादून में मौसमी नदियों के किनारे अवैध बस्तियों में लगातार वृद्धि
देखी गई है, जहाँ दूसरे राज्यों से आए प्रवासी सरकारी ज़मीनों पर कब्ज़ा कर रहे हैं, और दावा किया जाता
है कि यह स्थानीय राजनेताओं के मौन समर्थन से किया गया है। इन बस्तियों ने न केवल शहर के
पारिस्थितिक, बल्कि सामाजिक और जनसांख्यिकीय परिदृश्य को भी बुरी तरह बदल दिया है। विशेषज्ञों ने
चेतावनी दी है कि इनमें से ज़्यादातर अतिक्रमण निर्धारित बाढ़ क्षेत्रों में आते हैं, जिससे ये प्राकृतिक
आपदाओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाते हैं।गौरतलब है कि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने हाल ही में
एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से अतिक्रमण हटाने में नाकामी पर
स्पष्टीकरण मांगा था। देहरादून जिला प्रशासन ने अब चिन्हित अवैध निर्माणों को हटाने के लिए 30 जून
2025 तक का समय मांगा है।यह कदम पिछले साल एनजीटी की उस कड़ी टिप्पणी के बाद उठाया गया है,
जिसमें उसने नदी तटों पर अतिक्रमण के खिलाफ कार्रवाई न करने पर देहरादून के जिलाधिकारी और अन्य
अधिकारियों पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना लगाया था। एनजीटी ने इस निष्क्रियता को "प्रशासनिक
लापरवाही" करार दिया था और चेतावनी दी थी कि अगर अतिक्रमण तुरंत नहीं हटाए गए तो और भी कड़े
जुर्माने लगाए जाएँगे।यह भी याद किया जा सकता है कि मई-जून 2024 में, न्यायिक दबाव में, प्रशासन ने
रिस्पना नदी के किनारे एक सीमित अतिक्रमण विरोधी अभियान शुरू किया था। हालाँकि कुछ संरचनाओं
को ध्वस्त कर दिया गया था, लेकिन कुछ ही समय बाद कई क्षेत्रों में फिर से कब्ज़ा कर लिया गया, जो
निरंतर प्रवर्तन और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को दर्शाता है। गढ़वाल पोस्ट में आज प्रकाशित एक
समाचार में बताया गया है कि, उच्च न्यायालय के दबाव में, तत्कालीन राज्य सरकार ने 2018 में देहरादून
में एक बड़े सर्वेक्षण और अतिक्रमण विरोधी अभियान की शुरुआत की थी, लेकिन उसके बाद सर्दियों के
मौसम के आने का बहाना बनाकर अभियान को बीच में ही छोड़ दिया था, यह दावा करते हुए कि हजारों
परिवार बेघर हो जाएंगे। बाद में, सरकार ने नदी के किनारे बसी झुग्गी बस्तियों को संरक्षण प्रदान करने
वाले कुछ अध्यादेश भी पेश किए। हालाँकि, अध्यादेश को बार-बार बढ़ाया जाता रहा है, लेकिन सरकार ने

इन कॉलोनियों को नियमित करने की हिम्मत नहीं की है।गौरतलब है कि राज्य और जिला प्रशासन ने
देहरादून नगर निगम और मसूरी देहरादून विकास प्राधिकरण (एमडीडीए) के साथ मिलकर 2016 के बाद
हुए 534 अतिक्रमणों की पहचान की है और उन पर कब्जा करने वालों को नोटिस जारी किए हैं। हालाँकि,
तत्कालीन हरीश रावत सरकार द्वारा इन मलिन बस्तियों को नियमित करने के विवादास्पद फैसले के
कारण 2016 से पहले हुए अतिक्रमणों को लक्षित नहीं किया जा रहा है।इस बीच, कार्यकर्ताओं और
स्थानीय निवासियों का तर्क है कि वोट बैंक की राजनीति ने इस मुद्दे को और जटिल बना दिया है।
राजनीतिक समर्थन, खासकर प्रवासी आबादी के बीच, मज़बूत करने के लिए अतिक्रमणों को कथित तौर पर
बढ़ावा दिया गया है या उनकी अनदेखी की गई है। स्थानीय विधायकों, नगर निगम पार्षदों और विभिन्न
राजनीतिक दलों के नेताओं ने कथित तौर पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके झुग्गी-झोपड़ियों में रहने
वालों को प्रमुख घटक मानते हुए, तोड़फोड़ अभियान में बाधा डाली है। ऐसी स्थिति में, राज्य प्रशासन अब
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और जून के अंत तक स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है।यह देखना अभी बाकी है कि राज्य

अंततः निर्णायक कार्रवाई करेगा या तुष्टीकरण के रास्ते पर चलता रहेगा। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों*
*के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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