उत्तराखंड समाचार
देहरादून। एक तरफ ग्रीन जोन में लाॅकडाउन में काफी हद तक ढील दी गई है, दूसरी तरफ देश के दूसरे हिस्सों में फंसे लोगों, छात्रों को घर तक पहुंचाने के प्रयास हो रहे हैं, ये दोनों बातें एक साथ हो रही हैं। विकट परिस्थितियों में देश के विभिन्न क्षेत्रों में फंसे लोगों का अपने-अपने घरों को आना और लाॅकडाउन के कड़े प्रतिबंधों में ढील देकर लोगों की आर्थिक तथा सामाजिक गतिविधियों को पटरी पर लाना एक अच्छी पहल कही जा सकती है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में किसी भी तरह की ढील यदि कोरोनामुक्त पहाड़ में कोरोना का प्रवेश कराती है तो देवभूमि के लिए यह किसी भयावह त्रासदी से कम नहीं होगी।
पहाड़ के सभी क्षेत्र शुरू से ही कोरोना से मुक्त रहे हैं। इसके लिए लाॅकडाउन के कड़े प्रतिबंध और जनजागरूकता भी एक वजह रही है। एक महीने से अधिक की सख्ती के बाद 4 मई से शुरू हो रहे दो सप्ताह के तीसरे लाॅकडाडन में कम से कम ग्रीन जोन में काफी हद तक ढील दी गई है। यह एक अच्छी बात है, क्योंकि ढील ग्रीन जोन तक ही रखी गई है। रेड या फिर आरेंज जोन से आने जाने पर अभी भी प्रतिबंध है। लेकिन इसी बीच देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे लोगों का पहाड़ों की तरह आवागमन शुरू हो गया है।
डर इस बात का है कि कहीं दूसरे हिस्सों से पहाड़ों में आने वाले लोगों में कुछ भी कोरोना कोरियर हुए तो क्या होगा? डर इस बात से लग रहा है कि उत्तराखंड सरकार ने देश के विभिन्न हिस्सों से घर आने वाले लोगों को होम क्वारेंटीन में रखने का प्रावधान किया है। कई चरणों की सुरक्षा जांच के बाद भी यदि कोरोना वायरस के प्रकृति के अनुसार प्रारंभ में न दिखने वाले लक्षण यदि बाद में उभरते हैं तो यह स्थिति कितनी भयावह होगी? जबकि पहाड़ की स्वास्थ्य व्यवस्था के हाल किसी से छिपे नहीं हैं।
कल्पना कीजिए किसी घर का दुलारा पिछले करीब सवा महीने से लाॅकडाउन में फंसा है। घर वाले उसे लेकर काफी चिंतित रहे होंगे। उनका घर आना घर वालों के लाड़ प्यार के बीच उसे वास्तव में होम क्वारेंटीन रहने देंगी। अक्सर पहाड़ी घरों में एक ही टायलेट होता है। होम क्वारेंटीन में रह रहे व्यक्ति का अन्य लोगों के साथ टायलेट शेयर करना कितना खतरनाक होगा? घर वालों का लाड़ प्यार क्या क्वारेंटीन में रखे गए व्यक्ति को स्वास्थ्य कारणों से सभी नियमों का पालन करा पाने में सफल हो पाएंगे?
जब उत्तराखंड की सरकार ने लाॅकडाउन में फंसे उत्तराखंड के लोगों से पंजीकरण के लिए कहा तो पहले ही दिन 87 हजार लोगों ने आवेदन किया था। इस हिसाब से आने वालों की संख्या डेढ़ से दो लाख के बीच होने का अनुमान है। सरकार को संभवतः इसका अनुमान रहा होगा। इसलिए संस्थागत क्वारेंटीन में रखने के बजाय सरकार ने होम क्वारेंटीन का विकल्प चुना, ताकि इतने लोगों की रहने खाने की जिम्मेदारी से बचा जा सके। जबकि वास्तव में अपने कर्तव्य से इस तरह की मुक्ति पाने की चाहत पहाड़ के लिए अभिषाप बन सकता है। दरअसल सरकार को इसकी जिम्मेदारी अपने हाथ में रखनी चाहिए। ब्लाक स्तर पर संस्थागत क्वारेंटीन सेंटर स्थापित किए जाएं। इसके लिए बंद चल रहे स्कूल बेहतर स्थान हो सकते हैं। उनको वहां रहने, खाने और चिकित्सा सुविधा दी जाए। तभी इस समस्या का समाधान संभव है। राज्य सरकार को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। अन्यथा पहाड़ पर आने वालो कोरोना का एक भी मामला पहाड़ पर न केवल धब्बा लगा देगा, बल्कि स्वास्थ्य सुविधा रहित पहाड़ पर किसी बड़े खतरे से कम नहीं होगा। सरकार का एक निर्णय इसके लिए जिम्मेदार माना जाएगा।












