डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला:
उत्तराखंड की भी भूमिका अहम रही थी। यह वह दौर है जब धार्मिक एवं सामाजिक विसंगतियों के कारण जनता बंटी हुई थी। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने लोगों को एकजुट करने के लिए उत्तराखंड से ही राष्ट्रीय चेतना यात्रा की शुरुआत की थी। कालू महरा को उत्तराखंड का पहला स्वतंत्रता सेनानी होने का गौरव हासिल है। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक आंदोलन चलाया था।उत्तराखंड में ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन 1815 में हुआ।
देखा जाए तो यहां अंग्रेजों का आगमन गोरखों के 25-वर्षीय सामंती शासन का अंत भी था। 1856 से 1884 तक उत्तराखंड तत्कालीन कमिश्नर हेनरी रैमजे के अधीन रहा। यह कालखंड ब्रिटिश सत्ता के शक्तिशाली होने का दौर माना जाता है। आजादी के आंदोलन में सालम क्षेत्र के क्रांतिवीरों का योगदान स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। 25 अगस्त 1942 को आज ही के दिन आजादी की लड़ाई के दौरान जैंती के धामद्यो में ब्रिटिश हुकूमत से लोहा लेते हुए चौकुना गांव निवासी नर सिंह धानक और कांडे निवासी टीका सिंह कन्याल शहीद हो गए थे।ब्रिटिशों ने सालम के क्रांतिवीरों का मनोबल गिराने के लिए आजादी के नायक प्रताप सिंह बोरा, मर्चू राम, डिकर सिंह धानक, उत्तम सिंह बिष्ट, राम सिंह आजाद, केशर सिंह आदि क्रांतिकारियों को जेलों में ठूंस दिया था।
क्रांतिकारियों के गांव कांडे, थामथोली, मझाऊं, सैनोली, दाड़िमी, चौकुना, बरम, नौगांव आदि में महिलाओं, बच्चों को अनेक यातनाएं दी गई। इसके बावजूद क्रांतिकारियों में देश प्रेम का जज्बा कमजोर नहीं हुआ। गांव-गांव क्रांतिवीरों की सभाएं होने लगीं और आंदोलन तेज हो गया। 25 अगस्त 1942 को सालम के कई गांवों के क्रांतिकारी जैंती पहुंचे। आंदोलनकारियों और ब्रिटिश सेना के बीच झड़प हुई। इस झड़प के बाद नर सिंह धानक और टीका सिंह कन्याल ब्रिटिश सेना की गोली से शहीद हो गए।
आजादी के आंदोलन में सर्वस्व न्यौछावर करने वाले सालम के स्वतंत्रता सेनानियों के गांव आज भी बुनियादी समस्याओं से जूझ रहे हैं। नर सिंह धानक का गांव चौकुना, शिव दत्त पांडे का गांव दन्योली, प्रताप बोरा, लक्ष्मण सिंह बोरा का गांव दाड़िमी, दुर्गा सिंह कुटौला का गांव तड़ैनी, लीलाधर शर्मा का गांव बक्सवाड़ में कई बार सर्वे होने के बावजूद आज तक सड़क नहीं पहुंची है। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के गांव के लोगों को आज भी सड़क के लिए चार पांच किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। राम सिंह धौनी के गांव तल्ला बिनौला के लिए मोटर मार्ग का निर्माण कछुआ गति से चल रहा है। शहीद दिवस के दिन हर साल धामद्यो में अनेक नेता पहुंचते हैं।
विकास की घोषणाएं होती हैं लेकिन आज तक शहीदों के गांव बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। कुमाऊं के बड़े स्वतंत्रता आंदोलनों में शुमार सालम जनक्रांति की याद में शहीद रणबांकुरों को श्रद्धांजलि दी गई। पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि सालम पट्टी वीरों की भूमि रही है। यहां के क्रांतिकारियों ने महात्मा गांधी के विचारों को न केवल आत्मसात किया बल्कि उनके संदेश को जन-जन तक पहुंचा गोरों के खिलाफ जो जंग छेड़ आजादी दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई। पूर्व सीएम ने कहा, आज देश को स्वतंत्रता दिलाने वालों और उनके योगदान को भुलाने की कोशिश की जा रही है।
मगर जब तक महात्मा गांधी के विचार जिदा हैं, तब तक आजादी दिलाने वालों की याद भी जिदा रहेगी। उत्सव फिर सामने है। आजादी का उत्सव। खुशियां मनाने का उत्सव। योद्धाओं को सलाम करने का उत्सव जिनकी वजह से हम आज गुलामी से मुक्त हैं। जिनके बलिदान से हमें संवैधानिक व्यवस्था में जीने का अधिकार मिला है। उन्होंने अंग्रेजों से मोर्चा लिया। डटकर खड़े रहे और दिखा दिया कि हिंदुस्तानी कमजोर नहीं होते हैं। इस उत्सव में कुमाऊं की धरती का भी बड़ा योगदान है।
स्वतंत्रता के लिए छिड़े युद्ध की साक्षी रही इस जमीन ने उन योद्धाओं को जन्म दिया, जिनकी हिम्मत के आगे फिरंगियों को हार माननी पड़ी। देश छोड़ना पड़ा और तिरंगा शान से लहराया।स्वतंत्रता आंदोलन में कुमाऊं के करीब 1400 योद्धा (स्वतंत्रता सेनानी व आजाद हिंद फौज के सिपाही) ऐसे थे, जिन्होंने सौगंध खाई कि देश जब तक आजाद नहीं होगा, तब तक वे खुद भी चैन से नहीं बैठेंगे। इस सौगंध को उन्होंने पूरा किया। हर आंदोलन में पूरी शिद्दत से उतरे। लाठियां खाई, जेल गए।
जलालत सही, लेकिन फिर भी इरादों को नहीं बदला। कुमाऊं के इन योद्धाओं में से अब कुछ ही जीवित बचे हैं। जो जीवित हैं, उनका जोश आज भी वैसा ही दिखता है, जैसा गुलाम भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाते समय था। सबसे खास बात यह भी है कि कुमाऊं में आंदोलन की धार को देखते हुए, लोगों के भीतर आजादी के लिए उबल रही ज्वाला को देखते हुए खुद गांधी जी यहां आए थे। उन्होंने लोगों की हिम्मत को और बढ़ाया।
समय के साथ परिस्थितियां बेशक बदल गई हैं, लेकिन यादें आज भी जिंदा हैं। इस उत्सव के बहाने एक बार फिर उन योद्धाओं के बलिदान और आंदोलन का स्मरण कर उन्हें सैल्यूट करते हैं, जिन्होंने जान की परवाह न कर देश को आजाद कराया। गुस्साए आजादी के दीवानों ने 25 अगस्त को इन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को छुड़ाने के लिए बिगुल फूंक दिया और धामदेव के टीले पर सैंकड़ों आजादी के दीवाने एकत्र हो गए। लेकिन यहां भी ब्रितानी हुकुमत ने लोगों को तितर बितर करने के लिए गोलियां चलाई।
जिसमें सालम के दो सपूत नर सिंह धानक और टीका सिंह कन्याल मौके पर ही शहीद हो गए थे। सालम को कुमाऊं मे क्रांति का सबसे बड़ा अग्रदूत माना जाता है। आज इतने सालों बाद सालम की क्रांति को लोग याद करते हैं तो देशभक्ति का जज्बा स्वत: स्फूर्त लोगों के दिलों में हिलोरे मारने लगता है। कुमाऊं के इन योद्धाओं में से अब कुछ ही जीवित बचे हैं। जो जीवित हैं, उनका जोश आज भी वैसा ही दिखता है, जैसा गुलाम भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाते समय था। सबसे खास बात यह भी है कि कुमाऊं में आंदोलन की धार को देखते हुए, लोगों के भीतर आजादी के लिए उबल रही ज्वाला को देखते हुए खुद गांधी जी यहां आए थे।
उन्होंने लोगों की हिम्मत को और बढ़ाया। समय के साथ परिस्थितियां बेशक बदल गई हैं, लेकिन यादें आज भी जिंदा हैं। आइए इस उत्सव के बहाने एक बार फिर उन योद्धाओं के बलिदान और आंदोलन का स्मरण कर उन्हें सैल्यूट करते हैं, जिन्होंने जान की परवाह न कर देश को आजाद कराया। आजादी के आंदोलन के ऐसे स्वर्णिम अध्याय हैं, जिन्होंने अंग्रेजों की चूलें हिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।