रिपोर्ट-जसपाल राणा
देहरादून। सरकार न्यायलय के आदेश का बहाना न बनाये, क़ानूनी कदम उठाये ताकि लोगों को बेघर न किया जाये।
आज उत्तराँचल प्रेस क्लब में एक प्रेस वार्ता में पांच विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों के साथ राज्य के प्रमुख जन संगठनों ने आवाज़ उठाई कि राज्य सरकार की जन विरोधी कदमों की वजह से हज़ारों परिवारों पर बेघर होने का खतरा बन आया है। उत्तराखंड राज्य में लगातार आवाज़ उठ रही है कि लोगों को बेघर किया जा रहा है। यह प्रक्रिया ग्रामीण और शहरी इलाके, दोनों में दिख रही है। किसी भी परिवार को बेघर करने से बच्चों, बुज़ुर्गों, महिलाओं और अन्य लोगों पर घातक नुक्सान हो सकता है। लेकिन इस मुद्दा को नज़र अंदाज़ कर सरकार ने आज तक कोई कदम नहीं उठाया है।
अभी हाल में नैनीताल उच्च न्यायलय में एक जारी जनहित याचिका मे 31 अगस्त को कोर्ट का आदेश आया है कि सरकार देहरादून में बेदखली का अभियान चलाये। सरकार कानून, लोगों की बुनियादी हक़ों और खुद के वादों को कोर्ट के सामने ठीक से नहीं रख पाई। यहाँ तक कि 2018 के अधिनियम, जिसके बारे में 2021 में शहर भर में बड़े बड़े बैनर लग गए थे, उस अधिनियम के बारे में कोर्ट का आदेश में ज़िक्र ही नहीं है। प्रेस वार्ता में विपक्षी नेताओं एवं आंदोलनकारियों ने आशंका जताई कि ऐसे तो नहीं है कि इस आदेश का बहाना बना कर सरकार अभी सैकड़ों या हज़ारों परिवारों को बेघर करने वाली है?
चाहे लोहारी गांव में या शहरों की मलिन बस्तियों में, अगर किसी कारण से सरकार को लग रहा है कि लोगों को हटाना है, उनको बेघर करने के बजाय उनको पुनर्वास किया जाये, यह सरकार की ज़िम्मेदारी है। वक्ताओं ने कहा कि वे सरकार को इन बिंदुओं की याद दिलाना चाह रहे हैं।
प्रधानमंत्री का आश्वासन था कि 2022 तक सबको घर मिल जायेगा। लेकिन आठ साल में, प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत देहरादून के सारे क्षेत्रों में कुल मिला करए मात्र 3,880 घरों को बनाने के लिए सीमित सहयोग दिया गया है। सरकार खुद मानती है कि देहरादून की मलिन बस्तियों में पांच लाख से ज्यादा लोग रहते हैं। वे कहाँ पर जाये?
2018 में जन आंदोलन होने के बाद सरकार अध्यादेश लाई कि तीन साल तक किसी बस्ती को नहीं तोडा जायेगा। जिसको 2021 में फिर तीन साल के लिए एक्सटेंड किया गया था। उस समय सरकार ने दावा किया कि इन सालों में घरों की व्यवस्था हो जायेगी। लेकिन कोई काम नहीं हुआ है। यूपी पब्लिक परमिसेस इविक्शन आफ अनअथाराइज्ड ओक्यूपेशन एक्ट के अनुसार न्यूनतम दस दिन का नोटिस दे कर, कब्जेदार के जवाबों को सुनने के बाद ही बेदखली की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। यह इन क्षेत्रों में नहीं हुआ है। इस बात को कोर्ट के सामने क्यों नहीं रखा गया?
2016 में पिछली सरकार ने मलिन बस्तियों के नियमितीकरण के लिए अधिनियम बनाया था। जिसकी नियमावली आज तक घोषित नहीं की गई है।
घरों की समस्या का हल निकालना सरकार की ज़िम्मेदारी है। 2018 से लगातार इस मुद्दे पर आवाज़ उठ रही है कि कुछ ज़रूरी कदमों से इसका समाधान हो सकता है। लोगों को बेघर न किया जाये, जहाँ पुनर्वास की ज़रूरत है, सरकार वैकल्पिक व्यवस्था बना कर लोगों की सहमति के साथ तय करे, मज़दूरों के कोआपरेटिव से सस्ता हॉस्टल और किराया के लिए घरों को बस्तियों के निकट ही उपलब्ध कराया जाए।
प्रेस वार्ता में वक्ताओं ने कहा कि सरकार उच्च न्यायालय के आदेश का बहाना न बनाये। वक्ताओं ने मांग की कि जैसे 2018 में कदम उठाये गए, वैसे ही अध्यादेश या अन्य क़ानूनी तरीके से सरकार कदम उठाये ताकि किसी को बेघर न किया जाये और घरों के लिए स्थायी व्यवस्था बनाया जाये।
कांग्रेस पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता गरिमा दसौनी, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव डॉ एसएन सचान, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक शर्मा और पीपल्स साइंस मूवमेंट के विजय भट्ट ने प्रेस वार्ता को सम्बोधित किया। चेतना आंदोलन के शंकर गोपाल ने सञ्चालन किया।