डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
आज भी उत्तरकाशी के लोग भूल नहीं पाते हैं। ये वो दिन था जब तिलाड़ी में कई लोगों की नृशंस हत्या कर दी गई थी। इसके अलावा कई लोग ऐसे थे जो अपनी जान बचाने के लिए यमुना में कूद गये थे। टिहरी राजशाही द्वारा अंजाम दिये गए इस नृशंस हत्याकांड को याद कर आज भी लोग सिहर उठते हैं। यह वह समय था जब टिहरी रियासत ने उत्तरकाशी, टिहरी सहित देहरादून के पछवादून चकराता आदि के इलाकों में वन सम्बन्धी हक हकूकों पर कर लगा दिया था। इसके अलावा राजशाही ने ग्रामीणों से खेतों और जंगलों पर से भी अधिकार छीन लिया था।
टिहरी रियासत ने साल 1929-30 में वनों से राजस्व प्राप्त करने के लिए टिहरी राजशाही के अंतर्गत आने वाले उत्तरकाशी, रवांई परगना, टिहरी, चकराता, जौनसार बावर के ग्रामीणों के खेतों के मुनारों तक सीमांकन कर उनके वन संबंधी हक.हकूकों पर रोक लगा दी थी। साथ ही आग जलाने के प्रयोग में लाई जाने वाली लकड़ी पर भी टिहरी रियासत ने कर लगा दिया था। जिसके बाद ग्रामीणों ने इन पाबंदियों का विरोध शुरू किया। जौनसार.बावर में ग्रामीणों की महापंचायत होने के बाद 30 मई 1930 को यमुना नदी के किनारे तिलाड़ी नामें तोक पर बैठक का आयोजन किया जा रहा था। जिसमें रवांई परगना और उत्तरकाशी के दसगी पट्टी के ग्रामीण शामिल थे। इस बैठक में राजशाही के नियमों के खिलाफ आंदोलन की रणनीति बनाई जा रही थी। ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी हुकूमत ने वन संपदा के दोहन के अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे। इसी क्रम में टिहरी रियासत ने वर्ष 1885 में वन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की थी। वर्ष 1927 में रवाईं घाटी में भी वन बंदोबस्त लागू किया गया। इसमें ग्रामीणों के जंगलों से जुड़े हकहकूक समाप्त कर दिए गए। वन संपदा के प्रयोग पर टैक्स लगाया और पारंपरिक त्योहारों पर रोक लगा दी गई। एक गाय, एक भैंस और एक जोड़ी बैल से अधिक मवेशी रखने पर प्रति पशु एक रुपये वार्षिक टैक्स लगाया गया, जिससे स्थानीय लोगों में रोष बढ़ने लगा।
1930 में टिहरी के तत्कालीन राजा नरेंद्र शाह स्वास्थ्य लाभ के लिए यूरोप गए तो रियासत के अधिकारी निरंकुश हो गए थे। जनाक्रोश को दबाने के लिए 20 मई 1930 को डिप्टी कलक्टर सुरेंद्र दत्त नौटियाल एवं डीएफओ पदमदत्त रतूड़ी ने चार ग्रामीण नेताओं को गिरफ्तार कर टिहरी जेल भेज दिया। ग्रामीणों ने इन अधिकारियों का राड़ी टॉप के निकट घेराव किया। जहां डीएफओ की ओर से गोली चलाने से दो ग्रामीण शहीद हो गए। घटना के विरोध में ग्रामीण 30 मई को तिलाड़ी सेरा में शांतिपूर्वक पंचायत कर रहे थे। तभी टिहरी रियासत के दीवान चक्रधर जुयाल के नेतृत्व में सेना ने ग्रामीणों को चारों ओर से घेर कर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं। जिसमें सौ से अधिक ग्रामीण शहीद हो गए। 194 घायलों को गिरफ्तार कर इनमें से 70 लोगों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। टिहरी जेल में इनमें से 16 लोग शहीद हुए थे। इस घटना की जानकारी मिलने पर राजा नरेंद्र शाह ने यूरोप से लौटकर रवाईं क्षेत्र का दौरा किया। कुछ समय बाद राजा ने वन बंदोबस्त के तहत लगे कई टैक्स हटा दिए थे।टिहरी राजशाही के काले अध्याय के तौर पर याद किए जाने वाले तिलाड़ी कांड को शुक्रवार को 92 साल पूरे हो गए हैं। इस दिन वनाधिकारों को लेकर शांतिपूर्ण बैठक कर रहे निहत्थे मासूम ग्रामीणों पर राजा के सैनिकों ने अंधाधुध फाय¨रग कर सौ से भी ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतारा था। यमुना नदी के किनारे तिलाड़ी का मैदान। रवांई परगने के ग्रामीण बड़ी संख्या में राजशाही की ओर से वन सीमा में ग्रामीणों की उपेक्षा के विरोध में एकत्र हुए थे। अपने हक हकूक सुनिश्चित करने की योजना पर विचार ही हो रहा था कि टिहरी राजा के वजीर चक्रधर जुयाल के निर्देश पर बंदूकों से लैस सैनिकों ने तिलाड़ी मैदान में जुटे ग्रामीणों पर फायरिग शुरू कर दी। कुछ गोलियों के शिकार बने तो कई अपनी जान बचाने के लिए यमुना के तेज प्रवाह में कूद गए लेकिन बच ना सके। इससे 21 वर्ष 47 दिन पहले बैशाखी के दिन पंजाब में जालियांवाला बाग में भी अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग को लेकर एकत्र हुए लोगों पर अंग्रेजी सैनिकों ने गोलियां बरसाई थी, जिसमें 1800 से भी ज्यादा लोग मारे गए बताये जाते हैं, हालांकि आधिकारिक संख्या 379 थी। दोनों घटनाओं में अपने हक की आवाज बुलंद करने वाले मासूम लोग क्रूरता का शिकार बने।
इस घटना को आज पूरे 85 साल बीत चुके हैंए लेकिन तिलाड़ी का गोली कांड आज भी यमुना घाटी के लोगों में सिहरन भर देता है। वन कानूनों को सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीणों की शहादत ने आने वाले पीढि़यों में भी जोश भरा। रवांई परगना ही नहीं संपूर्ण रियासत में लोगों को वन अधिकार देने की मांग तेज हुई और जिसे आखिरकार राजा को भी मानना पड़ा। वन अधिकारों और करों के विरोध को लेकर हुई बैठक को जिस तरह से दबाने की कोशिश की गई उससे यह दबा तो नहीं लेकिन प्रेरणा स्रोत बन गया। तिलाड़ी का यह आन्दोलन उत्तराखंड का ही नहीं वरन पूरे भारत का पहला आंदोलन है, जिसमें लोगों ने जंगल पर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ी थीं। तिलाड़ी गोलीकाण्ड के समय महाराजा नरेंद्रशाह यूरोप यात्रा पर थे और घटना की जानकारी के बाद वह तुरंत वापस लौट गये। जब महाराजा नरेंद्र शाह लौटे तो उन्होंने चक्रधर जुयाल के कार्य की प्रशंसा की और अभियुक्तों पर मुकदमें चलाये। इस काण्ड के बाद चक्रधर जुयाल की छवि को आघात पहुंचा था। राज्य के बाहर के अनेक समाचार पत्रों ने रंवाई काण्ड के विषय में लेख लिखे। गढ़वाली, हिन्दू संसार, अभय, इंडियन स्टेटस रिफौरमर आदि में टिप्पणीयां छपती रही। हिन्दू संसार ने चक्रधर जुयाल और महाराज के विरुद्ध एक लेख छापा जिसके कारण उसके सम्पादक, प्रकाशक और गढ़वाली के संपादक विश्वम्भरदत्त चन्दाेला पर अभियोग चलाया गया। गढ़वाली में एक छपे लेख में एक रंवाई के रहने वाले के व्यक्ति का नाम न बताते हुए रंवाई काण्ड के बारे में एक लेख छपा जिसमें लिखा था। दीवान चक्रधर ने गोली चलाने के आदेश दिये। मृतकों की संख्या 100 से अधिक और घायलों की संख्या का अंदाजा नहीं। टिहरी दरबार ने इस ख़बर के संबंध में जो प्रतिवाद भेजा उसके अनुसार मरने वालों की संख्या 4 और घायलों की संख्या 2 बतायी गयी। इसी में बताया गया कि 194 आंदोलनकारी गिरफ्तार हुए।
दरबार की ओर से संपादक चंदोला से आग्रह किया गया कि वह संवादाता रंवाई निवासी का नाम व पता दें। ताकि गलत ख़बर छापने के लिये उस पर मुक़दमा चलाया जा सके। चंदोला ने नाम पता बताने और मांफी मांगने से इंकार कर दिया। चक्रधर जुयाल में अपनी खोई प्रतिष्ठा को पाने के लिये लार्ड इरविन और उसकी पत्नी के देहरादून आगमन पर भव्य स्वागत समारोह रखा। इरविन ने चक्रधर जुयाल से खुश होकर जनता को एक छोटा सा भाषण भी दिया और चक्रधर जुयाल के साथ तस्वीर भी खिंचाई। वायसराय ने उसे बाजू में लगाने की सोने की जरी वालीई पट्टी का जोड़ा भी दिया। चक्रधर जुयाल ने 1939 में स्वास्थ्य कारणों से अपने पद से इस्तीफा दे दिया। कहते हैं कि चक्रधर जुयाल की नज़र तभी से कमजोर हो गयी थी और कुछ समय बाद उसने अपनी आँखों की रोशनी खो दी। 24 दिसंबर 1948 को 72 साल की उमर में चक्रधर जुयाल की मौत हो गयी। तत्कालीन टिहरी नरेश ने दर्जनों लोगों को गोली से इसलिये भून डाला था कि वे अपने हक.हकूकों की बहाली के लिए लामबंद थे और वे बिना राजाज्ञा के तिलाड़ी में एक महापंचायत कर रहे थे। बर्बरता की यह घटना आज भी यमुना घाटी के लोगों में सिरहन पैदा कर देती है। तिलाड़ी कांड में शहीद हुए लोगों का बलिदान आज भी स्थानीय लोगों में प्रेरणा व नई उम्मीद जग देता है।
तिलाड़ी काण्ड ने यहाँ के लोगों को बेख़ौफ़ होकर अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाना तो सिखाया ही साथ ही क्षेत्र के विकास के लिए मिलकर काम करने की इच्छा शक्ति भी प्रदान की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठा कर लोगों को उनके हक हकूक दिलाने के लिए शहीद हुए शहीदों को याद रखने के लिए आज कोई ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। शहीदों की याद के लिए शहीद स्थल तिलाड़ी को अमृतसर के जलियांवाला बाग की तर्ज पर पर्यटन के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। जंगलए ज़मीनए जल जैसे संसाधन तो आज भी वैसे ही सरकारी चंगुल में हैं और सरकार लोगों का उन पर से अधिकार खत्म करने के लिए देशी.विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेच रही हैं। तिलाड़ी में हमारे बहादुर पुरखों ने जंगलों पर अपने अधिकारों के लिए सैकड़ों की तादाद में शहादत दी। देश आजाद हुआ, राजशाही ख़त्म हुई पर जंगल, जमीन, पानी पर लोगों का अधिकार बहाल नहीं हुआ। हालांकि राजशाही अपने आप ख़त्म नहीं हुई। तभी से क्षेत्र के ग्रामीण हर साल तीस मई को तिलाड़ी शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दिन तिलाड़ी शहीद स्मारक पर एकत्र होकर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।