डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में पांच जनजातियां मूल रूप से निवास करती हैं. अन्य सभी को छोड़कर सिर्फ वनराजी जनजाति ही ऐसी है जो सबसे पिछड़ी और सबसे कम जनसंख्या वाली है, यह जनजाति उत्तराखंड के अंतरराष्ट्रीय सीमा पर स्थित पिथौरागढ़ और चम्पावत जिले के दूरस्थ जंगलों के बीच बसे गांवों में रहते हैं. इसके अतिरिक्त नेपाल के पश्चिम अंचल में भी इनके कुछ छोटे गांव बसे हैं.हालांकि इनकी सर्वाधिक आबादी पिथौरागढ़ जिले में ही है. जहां पर डीडीहाट, धारचूला और कनालीछीना विकासखंडों में इनके करीब आठ-दस गांव हैं.वनराजी जनजाति जंगलों में रहने वाली जनजाति है जिन्होंने अपनी पीढ़ी गुफाओं में बिताई है. अब धीरे-धीरे इनका रहन सहन तो अन्य लोगों जैसा होने लगा है लेकिन अभी भी यह जनजाति विकास की मुख्यधारा से कोसों दूर है. वनराजी जनजाति की महिला पदमा देवी ने अपनी समस्याओं से अवगत कराते हुए बताया कि वह लोग स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार से काफी दूर है.सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए भी उनके पास कोई सरकारी कागज भी नहीं है. खेती करने लायक जमीन भी उनके पास नहीं है. पांच जनजातियों में से सबसे कम जनसंख्या वाली इस जनजाति के संरक्षण के लिए तमाम संगठन प्रयास कर रहे हैं. इन पर हुए शोध के अनुसार इस जनजाति के लोगों की औसत आयु 50 से 55 साल है, पिथौरागढ़ जिले में करीब 1500 लोग ही इस जनजाति में हैं. साक्षरता दर भी इस जनजाति के लोगों में काफी कम है, जिस वजह से सरकार ने इन्हें सरकारी नौकरी में विशेष आरक्षण तो दे रखा है लेकिन उसका फायदा भी इन्हें नहीं मिल पाता है, और सरकार की तमाम जनकल्याणकारी योजनाएं भी यहां धरातल पर कम ही दिखाई देती हैं. वनराजी जनजाति के तमाम परिवारों को अभी तक आरक्षित जनजाति का सर्टिफिकेट भी नहीं मिल पाया है जिस कारण सरकार की जितनी भी योजनाएं इस जनजाति के लोगों के लिए चली हुई है. उनका लाभ इन्हें नहीं मिल पाता है. आधुनिक युग मे भी इस जनजाति के लोग आदम युग में ही जी रहे हैं. वनरावत आदिवासी उत्तराखंड के तीन जिले पिथौरागढ़, चम्पावत और उधम सिंह नगर में रहते हैं. साथ ही इनका मुख्यधारा से कोई भी संपर्क नहीं है.इन आदिवासियों की जनसंख्या 850 है. इसका मतलब की यह आदिवासी समुदाय लुप्त होने की कगार पर है. इसके अलावा यह किसी भी मूलभूत सुविधाएं जैसे शिक्षा, चिकित्सा, बिजली और सड़क का लाभ नहीं उठाते हैं.साथ ही इन्हें सरकार की कोई भी हेल्थ केयर योजनाओं के साथ अन्य किसी भी योजना का लाभ नहीं मिलता. इसलिए इनकी औसत आयु 55 वर्ष ही रह गई है वहीं पूरे देश की औसत आयु 70.19 वर्ष है.रिपोर्ट के मुताबिक इन आदिवासियों के लिए शिक्षा तो बहुत दूर की बात है इन्हें सही तरीके से चिकित्सा सुविधा तक नहीं मिल पा रही है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र भी यहां से 20 से 25 किलोमीटर की दूरी पर है. अगर सरकार ने जल्द ही कोई एक्शन नहीं लिया तो हो सकता है की उत्तराखंड की यह जनजाति लुप्त न हो जाए. उत्तराखंड का कमजोर होता आदिवासी समुदाय ‘वनरावत’, जो हमेशा बाकी दुनिया से कटा रहता था, को अपनी आवाज नैनीताल हाई कोर्ट में मिली है. कोर्ट ने राज्य सरकार और केंद्र से सवाल किया कि समुदाय को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं और कार्यक्रमों से क्यों वंचित रखा गया है. उत्तराखंड स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी की ओर से इस मामले में जनहित याचिका दायर की गई है। जनहित याचिका में कहा गया कि उत्तराखंड में वन रावत व वन राजि जनजाति का अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर है। इस जनजाति की जनसंख्या लगातार घटती जा रही है। जिसकी वर्तमान जनसंख्या सिमट कर अब लगभग 900 रह गयी है। हालाँकि सरकारी पुनर्वास कार्यक्रमों ने राजी समुदाय की जीवनशैली में महत्वपूर्ण बदलाव लाए हैं, फिर भी उनमें से कई अभी भी गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। दूरदराज के इलाकों में रहने के कारण, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और बुनियादी ढाँचे जैसी बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहुँच अभी भी दुर्लभ है। इन चुनौतियों और उनकी वंचित सामाजिक स्थिति के कारण, उनके जीवन स्तर में सुधार की प्रक्रिया धीमी रही है।हालाँकि, राजी जनजाति ने उल्लेखनीय लचीलापन दिखाया है। कई परिवार अपनी आजीविका चलाने के लिए कृषि, पशुपालन और छोटे पैमाने के व्यापार में लगे हुए हैं। चुनौतियों के बावजूद, उनकी सांस्कृतिक प्रथाएँ, भाषा और पारंपरिक ज्ञान उनके जीवन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहते हैं। अपनी विरासत को संजोते हुए आधुनिक समाज की माँगों के अनुकूल ढलने की राजी जनजाति की क्षमता उनकी स्थायी शक्ति और अपनी पैतृक जड़ों से जुड़ाव को रेखांकित करती है। राजी जनजाति के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए, उनके समुदायों में शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और बुनियादी ढाँचे तक पहुँच में सुधार पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है। उनकी आजीविका को बेहतर बनाने, उनकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और सतत विकास के विकल्प प्रदान करने के उद्देश्य से सरकारी कार्यक्रम उनके भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, उनके अधिकारों, पर्यावरणीय स्थिरता और पारंपरिक संसाधन प्रबंधन प्रथाओं के बारे में जागरूकता और चेतना को बढ़ावा देने से राजी जनजाति को तेज़ी से बदलती दुनिया में फलने-फूलने में मदद मिल सकती है। समृद्ध विरासत के प्रमाण हैं, जहाँ पुरानी परंपराएँ और रीति-रिवाज उनके आसपास की बदलती दुनिया के बीच भी फलते-फूलते रहतेहैं।हालाँकि पुनर्वास पहलों के कारण कई परिवार अब निर्वाह खेती के माध्यम से अपनी आजीविका चलाते हैं, लेकिन चट्टान तोड़ने और लकड़ी के सामान बनाने जैसी पारंपरिक गतिविधियाँ उनके दैनिक जीवन का अभिन्न अंग बनी हुई हैं। इन परिवर्तनों के बावजूद, राजी समुदाय अपने लचीलेपन और शक्ति के लिए जाना जाता है, जो आधुनिक चुनौतियों के साथ तालमेल बिठाते हुए अपनी अनूठी सांस्कृतिक पहचान को गर्व से बनाए रखता है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*