डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
पर्वतीय क्षेत्र में विकास के लिए किया जाता है तो इससे आने वाली चुनौतियों से पहले ही निपटा जा सकेगा.हिमालयी ग्लेशियर कई मील सिकुड़ चुके हैं. यदि यही सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र भूस्खलन की मार झेलने को विवश होगा.” सरकारों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती होती है पहाड़ों में रहने वाले लोगों के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना. उत्तराखंड एक सीमावर्ती राज्य है. इसलिए स्वाभाविक है कि सुरक्षा जरूरतों को ध्यान में रख कर सड़कों का निर्माण किया जाए. भारत-चीन सीमा पर निर्माण कार्य में लगे हुए मजदूरों के हितों की रक्षा सरकार की जिम्मेदारी है. हिमस्खलन के बाद मजदूरों को बचाने के लिए जो कोशिशें हुईं उसकी सराहना की जानी चाहिए. लेकिन ग्लेशियर वाले इलाकों में किसी भी संरचना के निर्माण के पहले सावधानी बरतने की जिम्मेदारी भी सरकार की ही है.यह सच है कि भूस्खलन की भविष्यवाणी संभव नहीं है. लेकिन भौगोलिक परिस्थितियों का नियमित अध्ययन कर खतरे का अनुमान लगाया जा सकता है. वनों और पहाड़ों के संरक्षण हेतु स्थानीय लोगों के अनुभवों को सुनना जरूरी है. पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट का मानना है कि, “आज पूर्व सूचना तंत्र स्थानीय, हिमालयी, एशियाई और वैश्विक स्तर पर होना चाहिए, ताकि मानव जीवन को आपदाओं से बचाया जा सके. इसके लिए भारत, चीन, नेपाल और भूटान का एक संयुक्त तंत्र बनना चाहिए. हिमस्खलन और भूस्खलन से लेकर बाढ़ सुरक्षा तक के लिए यह जरूरी है. साथ ही, बारिश की मारक क्षमता को कम करने के कार्य भी बड़े पैमाने पर होने चाहिए. हिमनदों, हिमतालाबों, बुग्यालों और जंगलों की संवेदनशीलता की भी व्यापक जानकारी होनी चाहिए.” समूचा हिमालय क्षेत्र आज अवैज्ञानिक और अनियोजित विकास के तहत भारी मात्रा में इस्तेमाल किए जाने वाले विस्फोटों से भीतर तक हिल गया है. इसके परिणामस्वरूप यहां हर दो किलोमीटर बाद एक भूस्खलन तथा दस किलोमीटर पर विशाल भूस्खलन सक्रिय हैं.हिमालय की पीड़ा को कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं, “पहाड़ के पहाड़ खिसकने-टूटने की घटनाएं अब सामान्य हो गयी हैं. बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं की बारंबारता बढ़ गयी है. सड़कों, नहरों के जाल ने यहां के पर्यावरण के संतुलन को ही डगमगा दिया है. अनेक प्रकार के वन्य जीव अब दिखाई नहीं देते. कई किस्म की जड़ी-बूटियां अब उग नहीं रहीं. जंगल अब बचे ही कहां हैं. हालात यहां तक बन आए हैं कि मध्य, उत्तर हिमालय तथा वृहत्तर हिमालय में ‘बर्फ रेखा’ (स्नो लाइन) तेजी से ऊपर की ओर बढ़ रही है. यानी पहले जिस ऊंचाई पर हिमपात होता था, अब और भी ऊंचाई में होने लगा है. हमारे देश की तुलना में यूरोप में यह ‘बर्फ-रेखा’ काफी नीची है. हिमालय में स्थित विभिन्न तालों, झीलों का जलस्तर तेजी के साथ घट रहा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं; कुछ तो समाप्त भी हो गये हैं.”हिमालय के समाज तथा वहां की प्रकृति के कष्टों को केवल स्थानीय समस्या मान कर ही नहीं देखा जाना चाहिए. साथ ही हिमालय की ओर देखने की वह दृष्टि भी बदलनी पड़ेगी जो वहां की नदियों और वन संपदा को आर्थिक लाभ के लिए दुहना चाहती है. कोहिमा से कश्मीर तक विस्तृत पर्वतीय क्षेत्र की जानकारी रखने वाले के अनुसार, “पिछले कुछ दशकों में विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने स्थानीय लोगों को उनके प्रकृति प्रदत्त अधिकारों से भी वंचित कर दिया है.” तय करना होगा कि हमें हिमालय की नदियों को दांव पर लगा कर कुछ वर्षों के लिए बिजली चाहिए या हमेशा के लिए अच्छी हवा, साफ पानी और सुरक्षित पर्यावरण. वैज्ञानिक मानते हैं कि हिमस्खलन की 90 प्रतिशत घटनाएं मानव जनित होती हैं और अक्सर वे मानव भी हादसे का शिकार हो जाते हैं. हिमस्खलन 320 किलोमीटर प्रति घंटे से भी अधिक तेज गति से गिर सकता है.
केदारनाथ हादसे के बाद आपदा प्रबंधन के स्तर पर काफी सुधार हुआ है. लेकिन हिमालय क्षेत्र में प्रकृति के साथ संतुलन बनाने के लिए बहुत कुछ किया जाना अभी बाकी है. पवित्र चार धाम – बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री हिमनदों के अंचल में ही स्थित है. इन तीर्थ स्थलों में लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं. हजारों वाहन आते हैं. तेज आवाज वाले हेलीकॉप्टरों का काफिला शांत प्रकृति को हिला देता है. शहरीकरण के लिए आधारभूत संरचना का निर्माण हो रहा है. परिणाम यह है कि ग्लेशियर साल-दर-साल घटते जा रहे हैं. पर्यावरण वैज्ञानिक ग्लेशियर को बचाने के लिए चिंतित हैं. वह इसके लिए सुझाव भी देते हैं. का मानना है कि “जिन चट्टानों पर ग्लेशियर टिके हों, वहां किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए. तापक्रम बढ़ने से ग्लेशियर का पिघलना सामान्य बात है, लेकिन उन पर गिरने वाली बर्फ से भरपाई होती रहे, तो उनका संतुलन बना रहता है.” पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश में भारी हिमपात और बारिश के कारण भूस्खलन हुआ. राज्य की प्रमुख सड़कें एवं राष्ट्रीय राजमार्ग बाधित रहे. कुल्लू, लाहौल-स्पीति, किन्नौर, चंबा और शिमला में जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया. अधिकारियों के अनुसार 2,300 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले जनजातीय क्षेत्रों और अन्य ऊंचाई वाले इलाकों में हिमस्खलन का खतरा है. स्पष्ट है कि अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप के कारण हिमालय के वातावरण में कई बदलाव आ रहे हैं. हिमालय के असीम व अलौकिक सौंदर्य और बेशकीमती प्राकृतिक संपदा की रक्षा हेतु गंभीर प्रयास जरूरी है. उत्तराखंड एवं अन्य हिमालयी राज्यों का विकास पर्यावरण के अनुकूल होना चाहिए।हिमालयी ग्लेशियर कई मील सिकुड़ चुके हैं. यदि यही सिलसिला जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब संपूर्ण पर्वतीय क्षेत्र भूस्खलन की मार झेलने को विवश होगा.” सरकारों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती होती है पहाड़ों में रहने वाले लोगों के लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराना. उत्तराखंड एक सीमावर्ती राज्य है. इसलिए स्वाभाविक है कि सुरक्षा जरूरतों को ध्यान में रख कर सड़कों का निर्माण किया जाए. भारत-चीन सीमा पर निर्माण कार्य में लगे हुए मजदूरों के हितों की रक्षा सरकार की जिम्मेदारी है. हिमस्खलन के बाद मजदूरों को बचाने के लिए जो कोशिशें हुईं उसकी सराहना की जानी चाहिए. लेकिन ग्लेशियर वाले इलाकों में किसी भी संरचना के निर्माण के पहले सावधानी बरतने की जिम्मेदारी भी सरकार की ही है.यह सच है कि भूस्खलन की भविष्यवाणी संभव नहीं है. लेकिन भौगोलिक परिस्थितियों का नियमित अध्ययन कर खतरे का अनुमान लगाया जा सकता है. वनों और पहाड़ों के संरक्षण हेतु स्थानीय लोगों के अनुभवों को सुनना जरूरी है. पर्यावरणविद चंडी प्रसाद भट्ट का मानना है कि, “आज पूर्व सूचना तंत्र स्थानीय, हिमालयी, एशियाई और वैश्विक स्तर पर होना चाहिए, ताकि मानव जीवन को आपदाओं से बचाया जा सके. इसके लिए भारत, चीन, नेपाल और भूटान का एक संयुक्त तंत्र बनना चाहिए. हिमस्खलन और भूस्खलन से लेकर बाढ़ सुरक्षा तक के लिए यह जरूरी है. साथ ही, बारिश की मारक क्षमता को कम करने के कार्य भी बड़े पैमाने पर होने चाहिए. हिमनदों, हिमतालाबों, बुग्यालों और जंगलों की संवेदनशीलता की भी व्यापक जानकारी होनी चाहिए.” समूचा हिमालय क्षेत्र आज अवैज्ञानिक और अनियोजित विकास के तहत भारी मात्रा में इस्तेमाल किए जाने वाले विस्फोटों से भीतर तक हिल गया है. इसके परिणामस्वरूप यहां हर दो किलोमीटर बाद एक भूस्खलन तथा दस किलोमीटर पर विशाल भूस्खलन सक्रिय हैं.हिमालय की पीड़ा को इस तरह व्यक्त करते हैं, “पहाड़ के पहाड़ खिसकने-टूटने की घटनाएं अब सामान्य हो गयी हैं. बाढ़ और भूकंप जैसी प्राकृतिक घटनाओं की बारंबारता बढ़ गयी है. सड़कों, नहरों के जाल ने यहां के पर्यावरण के संतुलन को ही डगमगा दिया है. अनेक प्रकार के वन्य जीव अब दिखाई नहीं देते. कई किस्म की जड़ी-बूटियां अब उग नहीं रहीं. जंगल अब बचे ही कहां हैं. हालात यहां तक बन आए हैं कि मध्य, उत्तर हिमालय तथा वृहत्तर हिमालय में ‘बर्फ रेखा’ (स्नो लाइन) तेजी से ऊपर की ओर बढ़ रही है. यानी पहले जिस ऊंचाई पर हिमपात होता था, अब और भी ऊंचाई में होने लगा है. हमारे देश की तुलना में यूरोप में यह ‘बर्फ-रेखा’ काफी नीची है. हिमालय में स्थित विभिन्न तालों, झीलों का जलस्तर तेजी के साथ घट रहा है. ग्लेशियर पिघल रहे हैं; कुछ तो समाप्त भी हो गये हैं.”हिमालय के समाज तथा वहां की प्रकृति के कष्टों को केवल स्थानीय समस्या मान कर ही नहीं देखा जाना चाहिए. साथ ही हिमालय की ओर देखने की वह दृष्टि भी बदलनी पड़ेगी जो वहां की नदियों और वन संपदा को आर्थिक लाभ के लिए दुहना चाहती है. कोहिमा से कश्मीर तक विस्तृत पर्वतीय क्षेत्र की जानकारी रखने वाले के अनुसार, “पिछले कुछ दशकों में विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन ने स्थानीय लोगों को उनके प्रकृति प्रदत्त अधिकारों से भी वंचित कर दिया है.” तय करना होगा कि हमें हिमालय की नदियों को दांव पर लगा कर कुछ वर्षों के लिए बिजली चाहिए या हमेशा के लिए अच्छी हवा, साफ पानी और सुरक्षित पर्यावरण. वैज्ञानिक मानते हैं कि हिमस्खलन की 90 प्रतिशत घटनाएं मानव जनित होती हैं और अक्सर वे मानव भी हादसे का शिकार हो जाते हैं. हिमस्खलन 320 किलोमीटर प्रति घंटे से भी अधिक तेज गति से गिर सकता है.केदारनाथ हादसे के बाद आपदा प्रबंधन के स्तर पर काफी सुधार हुआ है. लेकिन हिमालय क्षेत्र में प्रकृति के साथ संतुलन बनाने के लिए बहुत कुछ किया जाना अभी बाकी है. पवित्र चार धाम – बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री हिमनदों के अंचल में ही स्थित है. इन तीर्थ स्थलों में लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं. हजारों वाहन आते हैं. तेज आवाज वाले हेलीकॉप्टरों का काफिला शांत प्रकृति को हिला देता है. शहरीकरण के लिए आधारभूत संरचना का निर्माण हो रहा है. परिणाम यह है कि ग्लेशियर साल-दर-साल घटते जा रहे हैं. पर्यावरण वैज्ञानिक ग्लेशियर को बचाने के लिए चिंतित हैं. वह इसके लिए सुझाव भी देते हैं. वैज्ञानिक का मानना है कि “जिन चट्टानों पर ग्लेशियर टिके हों, वहां किसी भी तरह की छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए. तापक्रम बढ़ने से ग्लेशियर का पिघलना सामान्य बात है, लेकिन उन पर गिरने वाली बर्फ से भरपाई होती रहे, तो उनका संतुलन बना रहता है.” पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश में भारी हिमपात और बारिश के कारण भूस्खलन हुआ. राज्य की प्रमुख सड़कें एवं राष्ट्रीय राजमार्ग बाधित रहे. कुल्लू, लाहौल-स्पीति, किन्नौर, चंबा और शिमला में जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया. अधिकारियों के अनुसार 2,300 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले जनजातीय क्षेत्रों और अन्य ऊंचाई वाले इलाकों में हिमस्खलन का खतरा है. स्पष्ट है कि अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप के कारण हिमालय के वातावरण में कई बदलाव आ रहे हैं. हिमालय के असीम व अलौकिक सौंदर्य और बेशकीमती प्राकृतिक संपदा की रक्षा हेतु गंभीर प्रयास जरूरी है. उत्तराखंड एवं अन्य हिमालयी राज्यों का विकास पर्यावरण के अनुकूल होना चाहिए। हिमालय प्राण वायु के साथ ही पर्यावरण को संरक्षित और जैव विविधता को भी बनाकर रखता है. लेकिन मौजूदा स्थिति यह है कि हिमालय में हो रहे अनियंत्रित विकास पर वैज्ञानिक चिंता जाहिर कर रहे हैं. लेकिन उत्तराखंड की मौजूदा स्थिति यह है कि अनियंत्रित विकास विनाश को न्यौता दे रहा है. दरअसल, उत्तराखंड राज्य की विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते आपदा जैसे हालात बनते रहे हैं. खासकर मानसून सीजन के दौरान प्रदेश की स्थिति काफी दयनीय हो जाती है.विकास के लिए वैज्ञानिकों की बातों पर ध्यान देने की जरूरतयही वजह है कि वैज्ञानिक हिमालय की संवेदनशीलता को देखते हुए इस बात पर जोर दे रहे हैं कि प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्रों में अत्यधिक विकास ठीक नहीं है. क्योंकि लगभग पूरा हिमालय ही काफी संवेदनशील है, ऐसे में यहां पर बहुत ही सोच समझकर विकास कार्य होने चाहिए. साथ ही विकास के लिए वैज्ञानिकों की बातों पर भी ध्यान देने की जरूरत है. क्योंकि अगर अगले एक दशक तक ध्यान नहीं दिया गया तो बड़ी आपदा आने के अंदेशे से इनकार नहीं किया जा सकता.लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। *लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*