डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड एक ऐसा राज्य है जो प्राकृतिक सुंदरता के साथ-साथ आपदाओं की दृष्टि से भी बेहद संवेदनशील है. यहां हर साल कहीं न कहीं बादल फटने, भूस्खलन, बाढ़ या भूकंप जैसी घटनाएं लोगों की ज़िंदगी को झकझोरती हैं. इन आपदाओं में सबसे ज्यादा नुकसान उन लोगों को होता है, जो पहले से ही सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर हैं, यह किसी से छिपा नहीं है कि समूचा उत्तराखंड आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। यह राज्य निरंतर प्रातिक आपदाओं से जूझता आ रहा है। ऐसे में आपदा प्रभावित गांवों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है।
इस सबके बावजूद आपदा प्रभावितों का पुनर्वास ऊंट के मुंह में जीरा साबित हो रहा है। इसकी असली वजह है पुनर्वास के दृष्टिगत राज्य में लैंड बैंक का न होना।परिणामस्वरूप पुनर्वास की प्रक्रिया लंबी होती चली जाती है। यद्यपि, अब जोशीमठ में भूधंसाव की घटना के बाद उच्च स्तर पर पुनर्वास के लिए लैंड बैंक बनाने को लेकर मंथन शुरू हो गया है। शासन के एक उच्चाधिकारी के अनुसार जल्द ही इस संबंध में जिलों से रिपोर्ट मांगी जाएगी।
विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड और प्रातिक आपदाओं का चोली-दामन का साथ है। भूकंपीय दृष्टि से यह राज्य संवेदनशील जोन-पांच व चार के अंतर्गत है। साथ ही प्रतिवर्ष अतिवृष्टि, भूस्खलन, भूधंसाव, बादल फटने जैसी घटनाओं में बड़े पैमाने पर जान-माल को क्षति पहुंच रही है।
इसके चलते साल-दर-साल आपदा प्रभावित गांवों व परिवारों की संख्या बढ़ रही है। अभी तक आपदा प्रभावित गांवों की संख्या चार सौ का आंकड़ा पार कर चुकी है। उस पर पुनर्वास की तस्वीर देखें तो राज्य गठन से लेकर अब तक 88 गांवों के 1496 परिवारों का ही जैसे-तैसे पुनर्वास हो पाया है।
प्रभावितों के पुनर्वास की राह में सीमित संसाधनों वाले इस राज्य में बजट जुटाना तो चुनौती है, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती है भूमि की व्यवस्था करना। अभी तक राज्य में ऐसी भूमि किसी भी जिले में लैंड बैंक के रूप में चिह्नित नहीं की गई है, जिसमें आपदा प्रभावितों का पुनर्वास किया जा सके।
यद्यपि, औद्योगीकरण के दृष्टिकोण से पूर्व में राज्य में लैंड बैंक बनाने की बात हुई और इसके लिए देहरादून, हरिद्वार व ऊधमसिंह नगर में कसरत भी हुई, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई। आपदा प्रभावितों के पुनर्वास के दृष्टिकोण से कभी इस बारे में सोचा ही नहीं गया।
यही कारण है कि जोशीमठ में भूधंसाव की घटना के बाद आपदा प्रभावितों के पुनर्वास के लिए भूमि तलाशने को मशक्कत करनी पड़ रही है। इस घटना के आलोक में अब सरकार और शासन ने भी महसूस किया है कि यदि पुनर्वास की दृष्टि से लैंड बैंक होता तो दिक्कत नहीं आती।
इसे देखते हुए अब सभी जिलों में पुनर्वास के लिए लैंड बैंक को लेकर गंभीरता से मंथन शुरू हो गया है। इस बारे में जिलों से ऐसी भूमि का ब्योरा मांगा जाएगा, जिसे आपदा प्रभावितों के पुनर्वास के लिए सुरक्षित रखा जा सके। उत्तराखंड में मानसूनी बारिश का कहर जारी है. अभी उत्तरकाशी के धराली और स्यानाचट्टी में भारी बारिश से हालात सुधरे भी नहीं थे कि अब चमोली जिले के थराली विकासखंड के अलग अलग हिस्सों में बीती देर शाम से हो रही मूसलाधार बारिश से काफी नुकसान देखने को मिला है. थराली के कोटड़ीप, राड़ीबगड़, अपर बजार, कुलसारी, चेपडो, सगवाड़ा समेत अन्य हिस्सों में अतिवृष्टि से काफी नुकसान हुआ है. प्रदेश में वर्षा से नुकसान का सिलसिला जारी है। शुक्रवार को आधी रात के बाद चमोली जिले के थराली कस्बे में बादल फटने से एसडीएम आवास और तहसील परिसर के साथ ही कई घरों में मलबा घुस गया। जिला आपदा कंट्रोल रूम से मिली जानकारी के अनुसार, रात करीब एक बजे थराली कस्बे में भारी वर्षा के बीच बादल फटा। इससे तेज प्रवाह के साथ आया पानी और मलबा कस्बे के कई आवासीय भवनों में घुस गया। सड़कें तालाब बन गईं। एसडीएम थराली के आवास और तहसील परिसर में भी मलबा भर गया। स्थानीय लोगों एवं अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना है कि उत्तराखण्ड में कई ऐसी योजनाएं हैं, जैसे सड़कों का चौड़ीकरण, पुल, भवन, जलाशय, सुरंग, रोपवे आदि का निर्माण होने से धरातल में दरारों का आना, भूस्खलन होना आदि की घटनाओं से बाढ़ आती रहती है।विकास के नाम पर हम जिस प्रकार बहुउद्देश्यीय योजनाएं उन क्षेत्रों में बना रहे हैं। जो अत्यंत कमजोर है इसका अभिप्राय यह भी कतई नहीं है कि क्षेत्र में सड़कें पुल, भवन, जल विद्युत योजनाऐं नहीं बननी चाहिए।अतः विकास की किसी भी योजना का कार्यान्वय करने पहले ही स्थानीय आवश्यकताओं के साथ स्थानीय भूगर्भ/भूगोल का खयाल अवश्य रखना चाहिए। यह क्षेत्र चीन/तिब्बत से लगा है सामाजिक दृष्टि से भी संवेदनशील है। औपचारिकताएं पूरी करने के लिये सरकारों द्वारा मानकों को पूरा किया जाता होगा, क्योंकि चतुर वैज्ञानिकों एवं अवसर वादी स्थानीय नेतृत्व को इस प्रकार की बड़ी योजनाओं के ठेकेदार हमेशा से अपने पक्ष में करते रहे हैं, आर्थिक लाभ एवं पर्यावरणीय नुकसान का आंकलन तटस्थ रूप से होना आवश्यक है।उत्तराखण्ड हिमालय बचेगा, तभी देश के उपजाऊ मैदान बचेंगे, तभी उर्वर मिट्टी बनेगी, जलवायु पर नियंत्रण होगा, शुद्ध जल की आपूर्ति होगी, कार्बन सोखने के जंगल सुरक्षित रहेंगे, तीर्थाटन, साहसिक, पर्यटन हो पायेगा सामाजिक दृष्टि से भी सुरक्षित रहेंगे, यहाँ की संस्कृति एवं परम्परा बच पायेंगी, प्रकृति के सहवासी जीव, जन्तु, औषधीय एवं सुगंध फूल पत्तियां, जड़ी-बूटियां, बुग्याल सुरक्षित रह पायेंगे। अल्प लाभ के कारण स्थानीय पलायन कर संसाधनों की लूट के लिये प्लेटफार्म तैयार कर रहा है। वन्य जीव जंतुओं को जंगलों में भोजन नहीं मिल रहा है तो गॉव/शहरों/वसासतों की ओर आ रहे हैं।पलायन के कारणों को स्थानीय स्तर पर समझना होगा। उनको समाधान के लिए स्थानीय स्तर पर योजनायें भी बनानी होंगी। स्थानीय लोगों को निर्णय में भागीदार बनाना होगा। स्थानीय लोगों को शामिल न करने के कारण उनका उस योजना के रख रखाव में अपनत्व का लगाव ही नहीं होता है। स्थानीय लोगों के साथ बैठकर उन्हीं के लिये योजनाएं बनाई जायेंगी तो शायद हिमालय के जल, जंगल, जमीन के साथ संस्कृति, परम्पराएं, रीति, रिवाज एवं उनको संरक्षित करने वाला हिमालयवावासी सुरक्षित होगा, ऐसे स्वस्थ एवं खुशहाल उत्तराखण्ड के लिये जमीनी स्तर पर कार्य करने की जरूरत है। इस पूरे घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया है कि उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए एक स्थायी और दूरगामी नीति की आवश्यकता है। सरकार के नए निर्देश और कड़े फ़ैसले यह दर्शाते हैं कि वह इस दिशा में गंभीर है। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*