थराली से हरेंद्र बिष्ट।
उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में सदियों से कायम, किंतु अब आधुनिकता की चकाचौंध में लुप्त होती जा रही परंपराओं को संजोए रखने के लिए एक सामाजिक आंदोलन की आवश्यक आन पड़ी है। इसका एक प्रयास वृक्षमित्र के रूप में ख्याती प्राप्त डॉ त्रिलोक चंद सोनी ने शुरू कर दी है।
दरअसल देव भूमि कहलाने वाली उत्तराखंड का सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक ताना.बाना देश के अन्य भागों से काफी भिन्न है। यही कारण है कि यहा की परंपराओं, संस्कृति को देश के अंदर ही नही विदेशी तक के लोग इसे गृहण करने के प्रायासों में जुटे हुए हैं। किंतु दर्भाग्यवश यहां की आधुनिक पढ़ी पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध में इस तरह से खोते जा रही है कि वह अपनी सामाजिक एकता को कायम रखने वाली संस्कृति को धीरे.धीरे भूलते जा रही हैं।
सदियों से यहां पर शुभकार्यों के दौरान आयोजित होने वाली चाचरी, झोड़ो, चौफूला के मनमोहन स्वरों के साथ ही नृत्य गुजारते समय का हिस्सा बनते जा रहे हैं। वही श्रमदान के जरिए खेतों धान, मडूवा सहित अन्य फसलों के निराई, गुणाई एवं रोपाई के दौरान आयोजित होने वाला हुड़कीबौल भी बीते समय का हिस्सा बनता जा रहा हैं जोकि उत्तराखंड के हिसाब से एक बड़ी क्षति हैं। क्योंकि हुड़कीबौल जहां लोक गीतों के गायन के साथ शुरू होता हैं, वही श्रमदान की भावना के जरिए आपस में ग्रामीण विशेष तौर पर महिलाएं समूह में खेती का कार्य संपादित करते हैं। हुड़कीबौल महिलाओं का एक तरह से श्रम बैंक भी हैं। जब भी किसी महिला को अपने गृह कार्यों को संपादित करने की आवश्यकता होती हैं। वें दूसरी महिलाओं से सहयोग ले कर कार्य पूरा कर लेती हैं।
गत दिनों हुड़कीबौल की परंपरा को कायम रखने के लिए प्रसिद्ध पर्यावरणविद् वृक्षमित्र डॉ त्रिलोक चंद सोनी के नेतृत्व में सेवानिवृत्त तहसीलदार जयबीर राम बधाणी, हुडका वादक त्रिलोक राम, इंद्र सिंह, गंगा राम आदि के साथ देवाल ब्लाक के सैन्य बाहुल्य गांव सवाड़ में पूर्व प्रधान बसंती देवी, हरूली देवी, राजुला देवी, देवकी देवी, दीपा देवी, महेशी देवी, बिरमा देवी, पूनम देवी कलावती देवी, दीपा देवी, जसुली देवीए महेशी देवी आदि महिलाओं के साथ हुड़कीबौल का आयोजन कर इस पंरपरागत को जीवित रखते हुए इसके प्रचार का संदेश देने का प्रयास किया है।
डॉ सोनी का कहना है कि हुड़कीया बौल के दौरान हुड़का वादक के द्वारा राजुला मालूशाही, राजा हालराही, गोपीचंद सहित अन्य जोशवद्वक गीतों को गाया जाता है। जिससे भीषण गर्मी के बावजूद भी महिलाएं काफी जोश के साथ अपने काम को मुकाम तक पहुंचाते हैं। उन्होंने कहा कि इस परम्परा को बचाना बेहद जरूरी हैं। इससे लोक संस्कृति, सामाजिक सहभागिता के साथ कठिन कार्य को संपादित करने आदि का जो संदेश मिलता है।वह किसी अन्य परम्पराओं में नही मिलता हैं।