डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
नौले हमारे गावों के अभिन्न अंग रहे हैं। नौलों का निर्माण भूमिगत पानी के रास्ते पर गड्डा बनाकर चारों ओर से सुन्दर चिनाई करके किया जाता था। ज्यादातर नौलों का निर्माण कत्यूर व चंद राजाओं के समय में किया गया। इन नौलों का आकार वर्गाकार होता है और इनमें छत होती है तथा कई नौलों में दरवाजे भी बने होते हैं। जिन्हें बेहद कलात्मकता के साथ बनाया जाता था। इनमें देवी.देवताओं के सुंदर चित्र बने रहते हैं। यह नौले आज भी शिल्प का एक बेजोड़ नमूना हैं। चंपावत के बालेश्वर मंदिर का नौला इसका प्रमुख उदाहरण है। इसके अलावा अल्मोड़ा के रानीधारा तथा द्वाराहाट का जोशी नौला तथा गंगोलीहाट में जान्हवी नौला व डीडीहाट का छनपाटी नौला प्रमुख है। गढ़वाल में टिहरी नरेशों द्वारा नौलों का निर्माण किया गया था। यह नौले भी कलाकारी का अदभुत नमूना हैं। ज्यादातर नौले उन स्थानों पर मिलते हैं जहां पानी की कमी होती है। इन स्थानों में पानी को एकत्रित कर लिया जाता था और फिर उन्हें अभाव के समय में इस्तेमाल किया जाता था।
पहाड़ में हैंडपंप लगाने से पेयजल स्त्रोत लगातार खत्म हो रहे हैं। पेयजल की कमी वाले क्षेत्रों में तेजी से हैंडपंप लगाए जा रहे हैंं। पिछले कुछ वर्षो में जलसंस्थान ने हैंडपंप लगा दिए हैं। जबकि 50 अभी और प्रस्तावित हैं। सरकार व इनके महकमे पानी की समस्या का स्थाई समाधान न करने के बजाए पेयजल संकट बढ़ा रहे हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पहाड़ में तेजी से खोदे जा रहे हैंडपंप हैं। जिन जगहों पर भी यह हैंडपंप लगाए गए, उन क्षेत्रों के आस.पास के प्राकृतिक स्त्रोत सूखते गए। हैंडपंप में लाखों खर्च करने के बाद भी पेयजल समस्या जस की तस है। विभागीय कर्मी भले ही हैंडपंप सूखने के आंकड़े कम बताए लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही है। एक हैंडपंप पर चार लाख का खर्च आता है। बागेश्वर जिले में हैंडपंप लगाने का काम साल 2005 से किया जा रहा है। आवश्यकता के अनुसार हर साल हैंडपंप लगाए जा रहे हैं। जिसके बाद आस.पास के लोग पेयजल प्राप्त करते हैं। पहाड़ी परिवेश में उपयुक्त न होने के कारण जल संकट को बढ़ा रहा है।
इसका सबसे बड़ा कारण है पहाड़ में वाटर लेबल का न होना। वाटर लेबल नहीं होने से पहाड़ी के भीतर पानी की बारीक नालियां होती हैं। जिससे पानी एकत्र होकर बाहर निकलता है। जब हैंडपंप से यह पानी निकाला जाता है तो आस.पास के नौले व धारे प्रभावित होते हैं। जिससे उनका पानी काफी कम हो जाता है या फिर वह सूख जाते हैं। इस तरह हैंडपंप पहाड़ के पानी को हर तरह से प्रभावित कर रहे हैं। पुरातन जल संस्कृति के विज्ञान को नए दौर में भी समझने की जरूरत है। नौले.धारे वास्तव में हमारी संस्कृति के प्रतीक है। इन्हें जल.संस्कृति का वाहक बनाकर जनचेतना के लिये उपयोग में लाना होगा। सामूहिक कार्यों का शुभारम्भ या तो नौले.धारों से होता था या देवस्थानों से। इस परम्परा को फिर से स्थापित करना होगा। हमारी नदियां हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। यहाँ तक कि हमने उन्हें माँ और जीवनदायिनी जैसा भी माना है। इसका कारण यही है कि हमारी सभ्यता नदी किनारे ही जन्मी और पोषित की गई है। परन्तु जनसंख्या की अतिवृद्धि और विकास के दबाव ने हमारी नदियों और भू.जल की दुर्दशा कर दी है।
अब हमें गलत योजनाओं और उपेक्षा से जन्मी नदी, प्रकृति एवं मानव.जीवन के बीच की विषमता को खत्म करना ही होगा। विश्व की प्रसिद्ध पर्वत श्रृंखलाओं में से एक हिमालय अपने आप में पारिस्थितिकी की विविधता को समेटे हुए है। इसकी सुंदरता इसकी जटिलता में निहित है। यह विश्व के जैव विविधता वाले 36 प्रमुख क्षेत्रों में से एक है। इंटरनेशलन सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की एक रिपोर्ट के अनुसार, हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र में लगभग 24 करोड़ लोग रहते है। पहाड़ का जीवन कठोर होता है। इनके निवासियों को आजीविका के लिए कम ही विकल्प मिलते हैं। उत्तराखण्ड बनने के साल भर पहले तक यहां के गांवों के घरों के आगे नल पोस्ट लग चुके थे। ये नल के पोस्ट वर्ल्ड बैंक की सहायता से शुरु स्वजल योजना के तहत 1996 से लगने शुरु हुये थे। मैंने 2010 तक कभी ऐसा नहीं देखा था कि इन नलों में हमेशा पानी आता हो, हां गावों में अब पानी को लेकर झगड़े ज्यादा बड़ चुके थे। इन सबके अलावा आज के दिन अगर उत्तराखण्ड के पहाड़ी हिस्सों में बने गावों में एक समरुपता खोजी जाये तो हर गांव में बनी सीमेंट की टूटी.फूटी टंकियां होंगी। आज भी जब कभी गांव के नल में पानी नहीं आता है तो लोग नौले के तरफ ही भागते हैं। एक आंकड़े के अनुसार उत्तराखंड राज्य बनते समय 90 फीसदी आबादी पेय जल के लिये नौले पर निर्भर थी। इस समय राज्य में लगभग दो लाख नौले हुआ करते थे। आज इन सभी की हालत दयनीय है। जल जीवन मिशन 2024 तक 100ः घरों में प्रति दिन 55 लीटर तक पानी की आपूर्ति बढ़ाने के लिए कार्यात्मक रूप से कनेक्शन परिकल्पना की बात करता है।