डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
साल 2000 में जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश से अलग होकर एक राज्य बना, तो यह सिर्फ एक भूगोलिक परिवर्तन नहीं था, बल्कि यह प्रदेश की अनूठी संस्कृति, बोली-भाषा और पहचान को मान्यता देने की दिशा में एक बड़ा कदम था. उत्तराखंड एकमात्र हिमालयी राज्य है, जहां अन्य राज्य के लोग पर्वतीय क्षेत्रों की कृषि भूमि, गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए खरीद सकते हैं. राज्य के बनने के बाद से कई बार विकास के नाम पर भू-कानून में कई बदलाव किए गए. लोगों की मानें तो सशक्त भू-कानून न होने की चलते प्रदेश में बाहरी लोगों और कॉरपोरेट घराने ने बड़े पैमाने में जमीन की खरीद-फरोख्त की है. इस वजह से यहां के मूल निवासी और भूमिधर अब भूमिहीन हो रहे हैं. उत्तराखंड की सांस्कृतिक आत्मा को अपनी गीतों में पिरोने वाले लोकप्रिय गढ़वाली गायक नरेंद्र सिंह नेगी ने 2023-2024 में भू-कानून के समर्थन में अपने गीतों के माध्यम से जनता को सड़कों पर उतरने का आह्वान किया। उनके गीत, जो पहाड़ की पीड़ा, संस्कृति और संघर्ष को व्यक्त करते हैं, उत्तराखंड के युवाओं और स्थानीय लोगों के लिए एक प्रेरणा बन गए। देहरादून, नैनीताल, उत्तरकाशी, टिहरी, पौड़ी, चमोली, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर, कोटद्वार, रामनगर जैसे शहरों में आंदोलनकारियों ने सशक्त भू-कानून की मांग को लेकर प्रदर्शन किए, जो 1994 के उत्तराखंड राज्य आंदोलन की तर्ज पर थे। नेगी के गीतों ने न केवल जनमानस को जागृत किया, बल्कि यह भी रेखांकित किया कि पहाड़ की अस्मिता और संसाधनों की रक्षा के लिए एकजुटता आवश्यक है। उनके गीतों में छिपी पीड़ा यह थी कि बाहरी लोगों द्वारा अंधाधुंध भूमि खरीद ने पहाड़ के मूल स्वरूप को खतरे में डाल दिया है। इसी साल (2025) फरवरी के महीने में जब उत्तराखंड सरकार का बजट सत्र हुआ था तो धामी सरकार ने विधानसभा से भू-कानून में संशोधन कर इसे और अधिक सख्त बनाने का दावा कर नया संशोधित भू-कानून विधेयक पास किया. धामी सरकार के इस नए सख्त भू-कानून को बीती 1 मई को उत्तराखंड राजभवन से भी मंजूरी मिल गई है. राज्यपाल की मंजूरी के बाद उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950 (संशोधन) विधेयक, 2025 कानून बन गया है.प्रदेश में भू कानून लागू होने के बाद मुख्यमंत्री ने इसे बड़ा कदम बताया और कहा कि अब जहां कृषि और उद्यान भूमि की अनियंत्रित बिक्री पर पूरी तरह रोक लगेगी तो वहीं डेमोग्राफी चेंज की कोशिशें भी नहीं हो सकेंगी. उत्तराखंड राज्य के बनने के साथ ही भू कानून की ये एक मांग लगातार पहाड़ के लोगों द्वारा सरकारों से की जा रही थी. समय-समय पर कोशिशें भी हुईं और अब सरकार ने सख्त भू-कानून लागू कर दिया है. उत्तराखंड राज्य की शुरुआत से ही पड़ोसी राज्य हिमाचल की तर्ज पर सख्त भू-कानून की मांग हो रही है. हालांकि, इसके बाद कुछ ऐसे सवाल हैं जो आज भी जस के तस खड़े हैं. नए प्रावधानों के तहत नगर निकायों (नगर निगम, नगर पंचायत, नगर पालिका परिषद व छावनी परिषद क्षेत्र) की सीमा में आने वाले और समय-समय पर सम्मिलित किया जा सकने वाले क्षेत्रों को छोड़कर भू कानून पूरे प्रदेश में लागू होगा. इसके साथ ही बिजनेस, चिकित्सा, होटल जैसे उद्देश्यों के लिए भी प्रदेश में भूमि खरीद की जा सकेगी. इस कार्य के लिए पहले संबंधित विभागों से भूमि अनिवार्यता प्रमाण पत्र लेना होगा. हालांकि, सरकार ने ये प्रावधान भी किया है कि अगर नियम को ताक पर रखकर जमीन खरीदी या बेची जाएगी तो उस जमीन को सरकार अपने कब्जे में लेगी. सरकार द्वारा संशोधित भू कानून का दायरा कम किया गया है. इसे केवल 11 जिलों की कृषि भूमि पर लागू किया गया है. उत्तराखंड के भू कानून के जानकार वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत बताते हैं कि जो प्रबंध पुराने भू कानून में हरिद्वार और उधम सिंह को लेकर थे वो अब हटा दिए गए हैं, तो यह कानून सख्त कैसे हुआ? पहले वाला भू कानून पूरे प्रदेश में एक समान लागू था, लेकिन अब नए कानून में हरिद्वार और उधम सिंह नगर जिलों में कृषि भूमि के लिए प्रतिबंध हटा दिया गया है. मतलब ये कि इन दोनों जिलों में किसानों की जमीन को खरीद-बेचा जा सकता है. इसके अलावा कहा जा रहा है कि 11 जिलों में जमीनों की खरीद फरोख्त पर रोक लगा दी गई है, लेकिन असल में ऐसा नहीं हुआ है. वरिष्ठ पत्रकार विभाग बताते हैं कि, भू कानून की धारा दो स्पष्ट कह रही है कि यह कानून उत्तराखंड के सभी 13 जिलों के निकाय क्षेत्र में प्रभावी नहीं है. नगर निगम, नगर पालिका और नगर निकायों की सीमा में यह कानून लागू नहीं होगा. पूरे प्रदेश में 107 निकाय (नगर निगम, नगर परिषद, नगर पंचायत) मौजूद हैं. इनमें से उत्तराखंड के दो मैदानी जिले हरिद्वार और उधम सिंह नगर में केवल 33 निकाय हैं बाकी 73 निकाय पहाड़ों पर हैं. इसमें श्रीनगर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, उत्तरकाशी जैसे बड़े और महत्वपूर्ण शहर भी शामिल हैं. ऐसे में यहां पर जमीनों की खरीद फरोख्त को लेकर कोई प्रतिबंध नहीं है.वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि भू कानून में तिवारी सरकार से लेकर त्रिवेंद्र सरकार तक में यह प्रावधान था कि कोई भी गैर कृषक निकायों के अलावा अन्य कृषि भूमि को नहीं खरीद पाएगा. मगर सरकार ने सख्त भू कानून में इस शर्त को भी हटा दिया है. इसमें नया प्रावधान किया गया है, जिसके हिसाब से 2003 से पहले उत्तराखंड में किसी भी अचल संपत्ति का मालिक अब भूमि खरीद सकता है. उत्तराखंड के नए भू कानून की तुलना पड़ोसी हिमालयी राज्य हिमाचल से होना लाजिमी है. हिमाचल में टेंडेंसीज एंड लैंड रिफॉर्म यानी हिमाचल प्रदेश किराएदारी और भूमि सुधार अधिनियम एक्ट 1972 लागू है. इस एक्ट की धारा 118 के तहत हिमाचल में बाहरी राज्यों के व्यक्ति को 1 इंच भी कृषि भूमि नहीं बेची जा सकती. यहां तक कि हिमाचल का गैर कृषक (जो व्यक्ति किसान नहीं है या जिसके पास कृषि भूमि नहीं है) भी वहां कृषि भूमि नहीं खरीद सकता.यही नहीं, हिमाचल का कोई भूमि मालिक किसी गैर कृषक को भी अपनी जमीन नहीं दे सकता है. ट्रांसफर, लीज, सेल डीड, गिफ्ट या गिरवी आदि किसी भी रूप में गैर कृषक को भूमि देने की मनाही है. भूमि सुधार अधिनियम एक्ट की धारा 2(2) के तहत भूमि का मालिक वही होगा जो हिमाचल में अपनी जमीन पर खेती किसानी करता होगा. लीज या फिर पावर ऑफ अटॉर्नी की जमीन भी किसी हिमाचली के नाम पर ही होगी. हिमाचल और उत्तराखंड के भू कानूनों में सबसे बड़ा अंतर ये है कि हिमाचल के भूमि सुधार अधिनियम एक्ट की धारा 118 उसके पहाड़ और पहाड़वासियों के हितों की रक्षा करती है, और भूमि का मालिकाना हक राज्य के किसान को ही देती है. यही वजह है कि खेती-बागवानी में हिमाचल की प्रति व्यक्ति आय देश के टॉप राज्यों में है. हिमाचल का भू कानून 1972 में ही अस्तित्व में आ गया था जबकि राज्य को 1971 में ही पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था. ये दर्शाता है कि यहां के नीति-निर्माताओं ने प्रदेश के किसानों और स्थानीय लोगों को ध्यान में रखकर उनके हितों के लिए फैसले लिए. हिमाचल में पहले दिन से ही सख्त भू कानून रहा है लेकिन उत्तराखंड में लगातार हो रहे बदलावों के कारण कानून लचर होता चला गया. हिमालय की गोद में बसा उत्तराखंड, जिसे देवभूमि के नाम से जाना जाता है, अपनी प्राकृतिक सुंदरता, सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक वैभव के लिए विश्व विख्यात है, लेकिन इस पवित्र भूमि की पहचान केवल इसकी प्राकृतिक और सांस्कृतिक संपदा तक सीमित नहीं है, यह एक ऐसी धरती है, जहां की जनता ने अपनी अस्मिता, अधिकारों और संसाधनों की रक्षा के लिए बार-बार आंदोलनों का दामन थामा है। हाल ही में लागू हुआ उत्तराखंड (उत्तर प्रदेश जमींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम, 1950) (संशोधन) विधेयक, 2025, जो राज्यपाल की मुहर के बाद 1 मई, 2025 से प्रभावी हो गया, एक बार फिर इस सतत संघर्ष की गवाही देता है।यह भू-कानून, जो प्रदेश के 11 पर्वतीय जिलों में गैर-नगरीय क्षेत्रों में बाहरी लोगों द्वारा 250 वर्ग मीटर से अधिक कृषि भूमि खरीद पर रोक लगाता है, न केवल एक प्रशासनिक निर्णय है, बल्कि उत्तराखंड की जनता के दशकों लंबे आंदोलन का परिणाम भी है। लेकिन,सवाल यह है कि क्या यह कानून वास्तव में पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की आकांक्षाओं को पूर्ण करता है, अथवा यह एक अधूरी विजय है, जो बार-बार आंदोलन की आवश्यकता को रेखांकित करती है? राज्य गठन के 25 वर्ष बाद भी जनता को अपनी जमीन, संस्कृति और पहचान की रक्षा के लिए आंदोलन करना पड़ रहा है। इसका एक प्रमुख कारण है प्रशासनिक मशीनरी की उदासीनता और कुछ हद तक स्थानीय लोगों की निष्क्रियता।जैसा कि लेख में उल्लेख किया गया है, कई लोगों का मानना है कि यदि स्थानीय प्रशासन बाहरी लोगों के साथ सांठ-गांठ न करता, तो इतने बड़े पैमाने पर जमीनों की खरीद-फरोख्त संभव न होती। पर्वतीय क्षेत्रों में भूमि की कमी और वहां की भौगोलिक परिस्थितियां इसे और जटिल बनाती हैं। केवल 13.92 फीसदी मैदानी और 86 फीसदी पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण कृषि भूमि पहले से ही सीमित है। प्रदेश से बाहर से आए लोगों के होटल, रिसॉर्ट और कमर्शियल प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन खरीदने से न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचा, बल्कि स्थानीय लोगों की आजीविका भी खतरे में पड़ गई। *लेखक विज्ञान व तकनीकी विषयों के जानकार दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*