देहरादून, 17 मई, 2025.दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के सभागार में वृत्तचित्र फिल्मों की एक शाम कार्यक्रम के तहत आज सायं तीन बस्तियों की फ़िल्में प्रदर्शित की गयीं. प्रदर्शित पहली फ़िल्म बिन सवल्यांच्या गावत थी. इसका निर्देशन
निर्देशक गौरी पटवर्धन ने किया है इसकी अवधि 52 मिनट की थी.2017 में बनी यह फ़िल्म मराठी,अंग्रेजी में है. दूसरी प्रदर्शित फ़िल्म दिल की बस्ती में थी इसका निर्देशक अनवर जमाल हैं 52 मिनट अवधि की यह फ़िल्म 2011 में बनी और यह हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी में है. अंत में कोई चाँद भी नहीं, फ़िल्म के
निर्देशक, अजय टीजी थे. इसकी अवधि 26 मिनट थी. हिंदी, अंग्रेजी में यह फ़िल्म 2018 में बनी है.
उल्लेखनीय है कि बिन सवल्यांच्या गावत में दिखाया गया है कि कोई एक शहर किस तरह बनता है? शहर बनते समय क्या याद रखा जाता है? क्या भुला दिया जाता है? कुछ महत्वपूर्ण सवालों को उठाते हुए यह फिल्म बताती है कि पुणे में हेरिटेज वॉक किस तरह शहर के इतिहास को एक संकीर्ण ढांचे में परिभाषित करने की कोशिश करता है, जो मात्र उच्च वर्ग के लिए है, जबकि वे शहर का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं। शहर में ऐतिहासिक धरोहरों और इमारतों का अस्तित्व खत्म करने का दलित बहुजन समुदाय के लिए क्या मायने रखता है, जबकि वे उनमें से कुछ को वापस पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं?
वहीं दिल की बस्ती फ़िल्म में पुरानी दिल्ली का चहारदीवारी वाला शहर अपने आप में एक सांस्कृतिक ब्रह्मांड कि तरह उभरकर आया है। एक फैला हुआ, अव्यवस्थित, लेकिन संक्रामक रूप से जीवंत पड़ोस, जहाँ जीवन अस्तित्व के निरंतर संघर्ष में कई आकर्षक रूपों में प्रकट होता है। अतीत और वर्तमान, नष्ट होते और नवीनीकरण, आशा और निराशा के बीच जकड़ा हुआ एक जीवंत शहर।
कोई चाँद भी नहीं फ़िल्म छत्तीसगढ़ में पर्यावरण और मानवाधिकारों की गहन उपेक्षा को दर्शाती है। इस तरह के विकास से प्रभावित एक आदिवासी परिवार की गवाही के आधार पर, फ़िल्म बताती है कि कैसे उनके घरों को ध्वस्त किया गया और समृद्ध खेती की जमीन को हड़प लिया गया।
प्रारम्भ में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट चंद्रशेखर तिवारी ने उपस्थित लोगों जा स्वागत किया. फ़िल्म प्रदर्शन के दौरान हिमांशु आहूजा,विजय भट्ट, कर्नल वी के दुग्गल, डॉ. योगेंद्र सिंह , बद्रीश छाबड़ा, डी के कांडपाल, इरा चौहान, बिजू नेगी, प्रोफेसर सुनील कुमार सक्सेना, कुलभूषण सहित कई फिल्मेप्रेमी, सामजिक कार्यकर्ता, लेखक, साहित्यकार व युवा
पाठक आदि उपस्थित थे. फ़िल्म का प्रदर्शन निकोलस हॉफलैंड ने किया.