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उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान है पारंपरिक व्यंजन

23/08/25
in उत्तराखंड, देहरादून
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डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड जिसे हम देवभूमि के नाम से भी जानते हैं यह एक अत्यंत विविधता भरे समाज एवं संस्कृति का क्षेत्र है। यहां प्रकृति ने अपना अनुपम सौंदर्य प्रदान किया है। इसके साथ ही साथ यहां पर औषधीय गुणों से भरपूर फसलों से बनने वाले व्यंजनों है। पर्वतीय क्षेत्र के सीढ़ीदार खेतों में खासा पोटेंशियल था। परिवार इन्हीं सीढ़ीदार खेतों में पैदा होने वाली कृषि उपज से चलता था। मोटा अनाज कहे जाने वाले कोदा, झंगोरा, उखड़े चावल आदि तमाम पौष्टिक अनाज का सेवल समाज करता था।तब एक बात प्रचलित थी कि पहाड़ में जरूर नगदी का अभाव था। मगर, भूखमरी जैसे हालात कभी पैदा नहीं हुए। इसके पीछे उद्यमिता की प्रवृत्ति थी। सात के दशक के बाद मोटे अनाज को न जाने क्यों हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। इसका सेवन गरीबी का प्रतीक बन गया। इसके साथ ही पहाड़ की थाली से कोदा, झंगोरा गायब होने लगा। भोजन हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। भारत जैसा विशाल देश स्थानीय व्यंजनों के मामले में क्षेत्रीय विविधताओं से भरा हुआ है। पर्यावरणीय परिस्थितियों के अनुसार क्षेत्र विशेष के लोगों में इसकी आदत पड़ी हुई है। उदाहरण के लिए तटीय क्षेत्रों के लोगों के खाने में मछली और नारियल प्रमुखता से शामिल है। लेकिन वैश्विक प्रभाव से खाने-पीने की आदतों में बदलाव दिख रहा है। नगरों और महानगरों में रहने वाले लोग पारंपरिक स्थानीय व्यंजनों की जगह वैश्विक तौर तरीकों को अपनाने लगे है। दरअसल बहुत समय से सांस्कृतिक आदान-प्रदान ने विभिन्न खाद्य परंपराओं को इतना आगे बढ़ाया है कि हम लगभग भूल गए हैं कि आलू, समोसा, बिरयानी जैसी कई चीजें हमारी नहीं थी, बल्कि विदेशी मूल की थी। मुसलमानों ने भारत को कई एक सूखे मेवे, खट्टी रोटी, कबाब आदि से परिचित कराया। इसी तरह ब्रिटिश शासन में भी भारतीय खाने पर आक्रमण हुआ और नए खाद्य पदार्थ एक तरह से थोपे गए, जो अब स्थाई हो गए। आज की विकसित दुनिया में रोज हो रही यात्राओं और खासकर इंटरनेट के प्रयोग में आने के बाद हम दुनिया के हर कोने में प्रचलित व्यंजनों से परिचित हो रहे हैं। ऐसे में हमें सुनिश्चित करना है कि हमारी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा भोजन की विविधता को कैसे कायम रखा जाए, इसे परिभाषित करने, व्यक्त करने और संरक्षित करने की आवश्यकता है। क्योंकि यह हमारे अस्तित्व के लिए अपरिहार्य है।हम अपनी बोली, भाषा, संचार, साहित्य, वास्तुकला, किताबें, वस्त्र, फिल्म, प्रिंटिंग आदि की तरह ही भोजन के रूप में भी खुद को व्यक्त करते हैं। यह सब संस्कृति में शामिल है। हम किसी दूसरे को किस रूप में इशारा करते हैं, दूसरे का किस तरह से अभिवादन करते हैं, नमस्ते कहते हैं, आदाब कहते हैं, इससे हमारी संस्कृति झलकती है। यहां तक कि हमारी प्रार्थना से भी संस्कृति की छटा निकलती है। आजकल अपनी धार्मिकता को व्यक्त करने के लिए प्रार्थनाओं के तरीके भी बदल रहे हैं, जो एक संस्कृति को दूसरे संस्कृति से अलग करते हैं। हिंदू बनाम मुस्लिम, शाकाहारी बनाम मांसाहारी, भारतीय बनाम पश्चिमी या इसी तरह कुछ और। ऐसे में समस्या तब उत्पन्न होती है जब एक को दूसरे के विरुद्ध रैंक करने का प्रयास किया जाता है। जब एक सांस्कृतिक अभिव्यक्ति को बांटने की कोशिश की जाती है।संस्कृति सदियों से चली आ रही व्यक्तियों और समूहों के साझा अनुभवों के एक साथ आने का परिणाम है, लेकिन जहां यह सांस्कृतिक प्रथाएं, परंपराओं के रूप में विरासत में मिली हैं वहीं एक निरंतर विकास भी है, इससे संस्कृति का मंथन होता है। हाल के वर्षों में मोमोज, पास्ता, ओट्स जैसे कई व्यंजनों ने जमीन हासिल की है। इसी तरह कोरियाई पाप और नाटकों का चलन बढ़ा है तो दूसरी तरफ पाकिस्तानी धारावाहिकों ने अपनी लोकप्रियता लगभग खो दी है। दुनिया के अधिकांश हिस्सों में चीनी सामानों का आज बहिष्कार हो रहा है। संस्कृति का अपना अतीत, वर्तमान और आने वाले समय में उद्भव होता है। ध्यान रहे कि विविधता से भरे भारत की तरह अधिकांश समाज अपनी संरचना में विषम और विविध है।बहुसांस्कृतिक समाजों में विभिन्न समूह होते हैं जिनमें विभिन्न विश्वास, अनुभव और ऐतिहासिक यादें होती है। यहां की सभी संस्कृतियों समान है। विभिन्न मुद्दों पर असहमति के बावजूद दूसरों पर हावी होने का कोई प्रयास नहीं है। आदर्श रूप से लोकतंत्र में हमारे पास एक बहु सांस्कृतिक समाज होना चाहिए, जहां अलग-अलग संस्कृतियों सह-अस्तित्व में हो, और खुद को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करें और बिना किसी कटुता के एक दूसरे के साथ बहस में शामिल भी हों। यहां की प्रत्येक संस्कृति मूल्यवान है, न तो कोई श्रेष्ठ है, न ही किसी से कोई कम है। फिर भी वह अपने अंतर और विशेषता को बरकरार रखती है, यह एक आदर्श है जिसके लिए समाज प्रयास कर सकता है। किंतु अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि मांसाहारी भोजनों की आदतों के प्रति असहिष्णुता के साथ भारत इस आदर्श से दूर जा रहा है।बहुल समाज वह है, जहां कई संस्कृतियां सह-अस्तित्व में है, लेकिन उनमें कुछ प्रमुख हैं या कम से कम दूसरे पर हावी होना चाहते हैं। यहां समानता नहीं, बहुलता पर जोर दिया जा रहा है। प्रायः देखा गया है कि प्रारंभ में संस्कृतियों को भागीदारी के साथ अनुमति दी जाती है। उनके साथ सामान्य शिष्टाचार के साथ बातचीत भी होती है, लेकिन धीरे-धीरे इस पर अंकुश लगाया जाने लगता है और बहुसंख्यकवाद को थोपने का प्रयास किया जाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय समाज भी इसकी चपेट में आ रहा है। समय आ गया है कि हम सुधारात्मक कदम उठाएं। हमें एक मिश्रित संस्कृति की ओर प्रस्थान करना चाहिए। हमारे पास एक ऐसी विकसित संस्कृति होनी चाहिए, जिसमें विविध सांस्कृतिक अनुभवों को लेकर जुड़ाव हो, आपस में विचार-विमर्श हो, किसी भी रूप में हिंसक टकराव की स्थिति न हो। हमें सांस्कृतिक रूप से उन उप समूहों को जगह देनी होगी, जिनकी अपनी संस्कृति की परिभाषा और सीमाएं हैं। संस्कृति आमतौर पर एकीकृत है, लेकिन वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास होते रहते हैं। परिभाषा के अनुसार समाज के सभी वर्गों के लिए संसाधनों तक आसान पहुंच है, पर व्यवहार में ऐसा नहीं है, क्योंकि वर्ग, जाति, धार्मिक समूह में बंटे होने के कारण बहुलवाद पर फोकस है। हम सभी समूह के साथ निरंतर संवाद के जरिए सांस्कृतिक विविधता के लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो फिर किसी ब्लैक लाइव मैटर जैसे आंदोलन की जरूरत नहीं होगी या सार्वजनिक स्थानों पर नमाज को प्रतिबंधित करने का आह्वान नहीं किया जाएगा। समस्या तब उत्पन्न होती है जब भी स्थिति हाथ से निकल जाती है। जैसे दूसरों को यह निर्देश देना कि उन्हें क्या खाना चाहिए? क्या पहनना चाहिए?हमारी खानपान की आदतों पर लगातार सांस्कृतिक हमले किए जा रहे हैं। वाणिज्यिक कृषि और जलवायु परिवर्तन से जीवन और आजीविका के खतरों के कारण पारंपरिक भोजन की आदतों से समझौता किया जा रहा है। यही कारण है कि आज देश भर में पारंपरिक खाद्य पदार्थों को बढ़ावा देने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं। ज्ञात हो कि भारत में चावल की लगभग 90 हजार किस्में हैं, जिनमें से कई एक किस्में भोजन प्रेमियों के लिए उपयुक्त है। लेकिन अत्यधिक जोर पालिश किए हुए बासमती चावल पर है, क्योंकि पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में यह पदानुक्रम के मामले में कुलीन या उच्च श्रेणी का मान लिया गया है। यह एक तरह से पश्चिमी प्रभाव का नतीजा है। हमें इस तरह के सांस्कृतिक भेद पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता है, क्योंकि यह सिर्फ लेबल है। हमारी शास्त्रीय परंपराएं बदल रही हैं, यह जानकर आपको आश्चर्य हो सकता है। जब सम्राट हुमायूं व दक्षिण की यात्रा कर रहा था तो उसने घोषणा की थी कि गौ मांस भक्तों के लिए अनुपयुक्त है और इससे उसने परहेज भी किया था। बाद में अकबर ने भी उसका अनुसरण किया। लेकिन वहीं दूसरी तरफ संगम काल के तमिलों ने इसे खाया। आयुर्वेद के मुताबिक 6 स्वाद होते हैं- खट्टा, मीठा, नमकीन, कड़वा, तीखा और कसैला। प्रत्येक भोजन में इनमें से पांच रंगों के उपयोग की राय दी गई है। बुद्धिमानी के साथ इन्हें मिलाकर तैयार किए गए भोजन से पोषण सुनिश्चित होता है। तृष्णा कम होती है और शरीर संतुलित रहता है।भारत के प्रत्येक राज्य ने असंख्य कारकों के आधार पर पारंपरिक रूप से इसके लिए अनुकूलित किया तथा समय के साथ वे सांस्कृतिक प्रथाओं का हिस्सा बन गए। लेकिन बाद में विरोधी ताकतों ने हमारे सांस्कृतिक ज्ञान के खिलाफ जाने का नेतृत्व किया है। विविधता से भरे भारत देश के खानपान की अपनी एक परंपरा है। देश का उत्तरी हिस्सा मजबूत कृषि भोजन के लिए जाना जाता है, वहीं पश्चिम तेजी से खाना पकाने के लिए मशहूर है। दक्षिण स्नैक्स के लिए और पूरब मिठाई के लिए जाना जाता है। दही, बटर, मिल्क, फ्रूट, ड्रिंक हर जगह पसंद किए जाते हैं, लेकिन परंपराओं के नुकसान के कारण आज पारंपरिक व्यंजनों को पुनर्जीवित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। पारंपरिक बेसन के लड्डू को डार्क बेल्जियम चॉकलेट रैपर में लपेटा जा रहा है। मोतीचूर के लड्डू को लेवेंडर के अर्क से भरा जा रहा है ताकि इसी बहाने हम अपने पारंपरिक खाद्य पदार्थों की ओर लौटें।समग्रतः हम कह सकते हैं कि हमारी सांस्कृतिक परंपराएं समय के साथ विकसित हुई हैं और समाज की आवश्यकता के कारण उप संस्कृति में अपने विशिष्ट स्वाद को बरकरार रखी है। ऐसे में समकालीन दुनिया में किसी भी खान-पान की संस्कृति को उखाड़ फेंकने या पलक झपकते बदलने का प्रयास नहीं होना चाहिए, क्योंकि भोजन में विविधता भी जीवन का तथ्य है। हमारी सांस्कृतिक परंपराएं समय के साथ विकसित हुई हैं और समाज की आवश्यकता के कारण उप संस्कृति में अपने विशिष्ट स्वाद को बरकरार रखी है। ऐसे में समकालीन दुनिया में किसी भी खान-पान की संस्कृति को उखाड़ फेंकने या पलक झपकते बदलने का प्रयास नहीं होना चाहिए, क्योंकि भोजन में विविधता भी जीवन का तथ्य है। मंडवा, झंगरो और पाहड़ी दालें अभिजात्य वर्ग की रसोई तक पहुंच गए हैं। दावे के साथ कहा जा सकता है कि इसकी मांग बढ़ने लगी है। इसके साथ ही पर्वतीय किसनों की जिम्मेदारी भी बढ़ गई है। इसकी उपलब्धता की चुनौती को स्वीकारना होगा। इसके लिए जरूरी है सीढ़ीदार खेतों का भूपरिष्करण करना होगा। युवा पीढ़ी को आगे आना होगा। खेती/किसानी स्टेटस सिंबल बनाना होगा।इन सारी एक्सरसाइज के अलावा हर उत्तराखंडी सीढ़ीदार खेतों में पैदा होने वाले अनाज को अपनी रसोई में जरूर उपयोग करें। इसे अपने हिसाब से प्रमोट करे तो सीढ़ीदार खेतों का पुराना रसूख लौटते देर नहीं लगेगी। *लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।*

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