डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल.फूलों में भी है। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध दुनिया है। यह फल कभी मुसाफिरों व चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे। लेकिन धीरे.धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक ज़िंदगी का भाग बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है। उत्तराखंड में जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं। बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाड़िम, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं।
इन जंगली फलों में विटामिन्स व एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं जड़ी.बूटियों वाले पौधों के मामले में धनी प्रदेश उत्तराखंड तो जड़ी.बूटी की खेती को उद्योग का दर्जा देने की तैयारी कर रहा था। पता नहीं क्या हुआ। उत्तराखंड की आबोहवा की यह खासियत है कि वहां पैदा होने वाला आंवला आकार में छोटा किंतु विश्व के उच्च कोटि के आंवले की तरह है।
यहां औषधीय गुणों वाली कोई 175 जड़ी-बूटियां पहचानी गई हैं। इनमें लगभग 35 जड़ी.बूटियां तो ऐसी हैं। जिनके नष्ट होने का खतरा है। इसी वजह से इन जड़ी-बूटियों के दोहन को प्रतिबंधित कर दिया गया है। प्रतिबंध के बावजूद इन दुर्लभ जड़ी.बूटियों का अंधाधुंध दोहन भी जारी है। उत्तराखंड के रूप में नया प्रदेश बनने के बाद वहां की सरकार वनौषधि संरक्षण पर ज्यादा ध्यान दे रही है। उत्तराखंड के जंगलों में अनेक दुर्लभ जड़ी.बूटियां पाई जाती हैं जिनसे अनेक गंभीर रोगों की दवा भी बनाई जाती है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इस बूटी से बनने वाली दवा लाखों रुपये प्रति किलोग्राम की दर से बिकती है। प्रसिद्द गीत के गीतकार थे श्री ब्रजेन्द्र लाल शाह। इस गीत को राग दुर्गा पर आधारित बनाकर श्री मोहन उप्रेती और श्री ब्रजमोहन शाह जी द्वारा सर्वप्रथम 1952 में राजकीय इण्टर कॉलेज, नैनीताल में गाया गया। मगर जब यह गीत दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में बजाया गया तो कुमाउँनी भाषा का यह गीत अमर हो गया।
बताते है यह हमारे प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरू जी के पसंदीदा गीतों में शुमार था। तीन मूर्ति सभागार में इस गीत की रिकॉर्डिंग सब मेहमानों को स्मारिका के तौर पर भी दी गयी थी। बाद में कुमाउँनी गीतों के प्रसिद्ध गायक श्री गोपाल बाबू गोस्वामी ने जब अपनी खनकती आवाज में इसे गाया और रिकॉर्ड किया तो यह जन-जन का पसदींदा गीत बन गया। बेडु पाको बारामासा, नारैणा काफल पाको चैता। इस उत्तराखंडी लोकगीत पर भले ही लोगों की थिरकन बढ़ जाती हो और वे खुद के पहाड़ की वादियों में होने का अहसास करते हों, पर जिन फलों का इसमें जिक्र हुआ है, क्या वे उनके बारे में भी जानते हैं। अधिकांश का जवाब ना में होगा। असल में महत्व न मिलने से बेडू, तिमला, काफल, मेलू, घिंघोरा, अमेस, हिंसर, किनगोड़ जैसे जंगली फल हाशिये पर चले गए। जबकि स्वादिष्ट एवं सेहत की दृष्टि से महत्वपूर्ण इन फलों को बाजार से जोड़ने पर ये आर्थिकी संवारने का जरिया बन सकते हैं, मगर अभी तक इस दिशा में कोई पहल होती नहीं दीख रही। उत्तराखंड में पाए जाने वाले जंगली फल यहां की लोक संस्कृति में गहरे तक तो रचे बसे हैं, मगर इन्हें वह महत्व आज तक नहीं मिल पाया, जिसकी दरकार है।
अलग राज्य बनने के बाद जड़ीबूटी को लेकर तो खूब हल्ला मचा, मगर इन फलों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी गई। और ये सिर्फ लोकगीतों तक ही सिमटकर रह गए। देखा जाए तो ये जंगली फल न सिर्फ स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से कम अहमियत नहीं रखते। बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाड़िम, करौंदा, जंगली आंवला व खुबानी, हिसर, किनगोड़, तूंग समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जिनमें विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट की भरपूर मात्रा है। विशेषज्ञों के अनुसार इन फलों की इकोलॉजिकल और इकॉनामिकल वेल्यू है। इनके पेड़ स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि फल सेहत व आर्थिक दृष्टि से अहम हैं।
बात सिर्फ इन जंगली फलों को महत्व देने की है। अमेस सीबक थार्म को ही लें तो चीन में इसके दो.चार नहीं पूरे 133 प्रोडक्ट तैयार किए गए हैं और वहां के फलोत्पादकों के लिए यह आय का बड़ा स्रोत है। उत्तराखंड में यह फल काफी मिलता है, पर इस दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। काफल को छोड़ अन्य फलों का यही हाल है। काफल को भी जब लोग स्वयं तोड़कर बाहर लाए तो इसे थोड़ी बहुत पहचान मिली, लेकिन अन्य फल तो अभी भी हाशिये पर ही हैं। पद्मश्री डाण्अनिल जोशी कहते हैं कि उत्तराखंड में पाए जाने वाले जंगली फल पौष्टिकता की खान हैं। लिहाजाए अब वक्त आ गया है कि इन फलों को भी महत्व दिया जाए। जंगली फलों की क्वालिटी विकसित कर इनकी खेती की जाए और इसके लिए मिशन मोड में कार्ययोजना तैयार करने की जरूरत है। वह जंगली फलों को क्रॉप का दर्जा देने की पैरवी भी करते हैं। उपेक्षा का दंश झेल रहे जंगली फलों को महत्व देते हुए पूर्व में उद्यान विभाग ने मेलू मेहल, तिमला, आंवला, जामुन, करौंदा, बेल समेत एक दर्जन जंगली फलों की पौध तैयार कराने का निर्णय लिया। इस कड़ी में कुछ फलों की पौध तैयार कर वितरित भी की जा रही हैए लेकिन इसे विस्तार मिलना अभी बाकी है। 2019 में मुख्यमंत्री श्री त्रिवेंद्र ने मसूरी कार्निवाल में शामिल पर्यटकों व अन्य लोगों का स्वागत करते हुए कहा कि फूड फेस्टिवल के माध्यम से राज्य के व्यंजनों को प्रोत्साहन मिलेगा। उन्होंने होटल व्यवसायियों से अपने मैन्यू में स्थानीय व्यंजनों को शामिल करने की अपेक्षा की। उन्होंने कहा कि हमें अपनी लोक संस्कृतिए परंपरा एवं खानपान पर गर्व होना चाहिए। हमारे उत्पाद देश व दुनिया में अपनी पहचान बनाये इसके भी प्रयास होने चाहिए। हमारे पारंपरिक खाद्यान्न पौष्टिकता से भरपूर हैंए इनका अपना विशिष्ट स्वाद हैए इसकी बेहतर ब्रांडिंग के जरिये हम इनकी पहचान बनाने में सफल हुए तो इससे इनके उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा तथा ग्रामीण आर्थिकी को मजबूती मिलेगी। मुख्यमंत्री श्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने इस अवसर पर श्रेष्ठ व्यंजन बनाने वालों को पुरस्कृत भी किया था। यही वजह है कि धीरे.धीरे इसके फलों से मार्केट भी परिचित होने लगा है।