डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उतराखंड सौंदर्य का जीवन्त प्रतीक है, सरलता एवं गरिमा का अभिषेक है और सभ्यता एवं संस्कृति इसकी विशिष्ट पहचान है। यहाँ प्रकृति और जीवन के बीच ऐसा सामंजस्य हैं जो सभी पर्यटकों और तीर्थयात्रियों को मंत्रमुग्ध कर देता है। यहाँ की शीतल हवा शान्ति की प्रतीक हैं तो फलदार वृक्ष दान की महिमा का गुणगान करते हैं। उत्तराखंड की शादियों में बान क्यों दिये जाते हैं। यह हमारी परंपरा, हमारी संस्कृति का हिस्सा है जो वर्षों से उत्तराखंड की शादियों का अहम अंग बना हुआ। इसके बिना शादी की रस्म पूरी होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। बान या बाना यानि हल्दी हाथ की रस्म लड़की के साथ लड़के को भी निभानी पड़ती है।
उत्तराखंड में परंपरागत ढोल दमौ और मसकबीन की धुन के बीच बान दिये जाते हैं और स्नान कराया जाता है। बान क्यों दिये जाते हैं, इसका सामाजिक, सांस्कृतिक, पारंपरिक पहलू हो सकता है लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक सत्य भी छिपा हुआ है। इस पर हम आगे बात करेंगे। पहले आपका परिचय बान से करवा देता हूं। बान बारात जाने से पहले की रस्म है जो दूल्हा और दुल्हन दोनों के घरों में लगभग एक समय में निभायी जाती है। इसमें हल्दी, सुमैया, कच्चुर, चंदन आदि को कूटकर मिश्रण बनाया जाता है। इसे फिर सात पुड़ियों में रखा जाता है जिनमें दूब को डुबाकर उसे दूल्हा या दुल्हन के पांव से लेकर सिर तक यानि पांव, घुटना, हाथ, कंधा और सिर को स्पर्श करके अपने सिर पर रखना होता है। ऐसा पांच या सात बार करना होता है। घर के सदस्य, रिश्तेदार आदि बान देते हैं।
उत्तराखंड में जंगली जानवरों से फसल नुकसान के छुटकारा को किसानों ने एक बड़ी पहल शुरू की है। हल्दी की खेती से किसान अपनी फसल बचा सकते हैं। विविध मांगलिक व पूजन कार्यो में भी हल्दी को प्रथम स्थान दिया गया है। इतना ही नहीं इसका मानव जीवन में औषधीय महत्व भी है। राज्य में बढ़ रहे जंगली जानवरों के आतंक से किसानों की फसलों को बचाना एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। जंगली जानवर जिसमें खासकर बंदर, लंगूर व सुअर किसानों की मेहनत से उगाई गई फसल पर ऐन समय पर पानी फेर देते हैं, जिससे उनके समक्ष रोटी का संकट आता है। इसके पौधे का वानस्पतिक नाम करक्यूमा लौंगा है। राज्य के पहाड़ी इलाकों में यह 1500 से लेकर 1800 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में यह आसानी से उगाया जा सकता है। इसकी खूबी यह है कि छायादार स्थानों में जहां अन्य फसलों का उत्पादन नहीं हो पाता है, वहां इसकी खेती आसानी से की जा सकती है कि काश्तकारों को हल्दी की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए शासन की ओर से 50 प्रतिशत सब्सिडी पर इसका बीज उपलब्ध कराया जाता है।
उत्तराखंड के विभिन्न जिलों में पंत पीताभ, सुगंधा, रोमा, सुवर्णा व स्थानीय प्रजाति की हल्दी उगाई जाती है। इसके हरे पत्तों व कंदों से तेल भी निकाला जाता है। साबुन व क्रीम बनाने में भी इसका मिश्रण उपयोग में लाया जाता है। हल्दी में मौजूद करक्यूमिन तत्व के कारण इसकी बाजार में अत्यधिक मांग है। महिलाओं के जीवन को अर्थ दे रही उत्तराखंड की पुष्पा
इसलिए जंगली जानवरों से फसल सुरक्षा के लिए पहाड़ में हल्दी की खेती कारगर है। इसका उत्पादन किसान छायादार स्थानों पर भी कर सकते हैं। खाद्यान्न फसलों की खेती में कम जोत व कम उपज मूल्य को देखते हुए किसानों का रूझान पिछले कई सालों से हल्दी की खेती की ओर बढ़ रहा है। राज्य में साल 2008 में जहां हल्दी की खेती का उत्पादन 6638 टन था, वहीं 2016 में बढ़कर इसका उत्पादन 8804 टन से अधिक हो गया है।
हल्दी की लाभकारी खेती को अपनाकर काश्तकार आर्थिकी को बढ़ाने के साथ.साथ बेरोजगारी को भी दूर कर सकते हैं। हल्दी की खेती की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसकी फसल में अन्य फसलों की तुलना में कीट रोग तथा जंगली जानवरों का प्रकोप बहुत ही कम अथवा नहीं के बराबर होता है। एक खासियत यह भी है कि इस फसल में समसामयिक बारिश नहीं होने से अधिक सिंचाई की भी आवश्यकता नहीं होती है। केदारनाथ मंदिर की है अनोखी कहानी, भूमि में समा गए थे शिव वरिष्ठ विज्ञानी प्रो. जीसी जोशी के अनुसार दैनिक उपयोग में काम आने के साथ ही इसका औषधीय महत्व भी है। आकस्मिक चोट लगने, कफ, बात व पित्त संबंधी विकारों के निवारण में भी यह बेहद लाभकारी है।
इसके पौधे का वानस्पतिक नाम करक्यूमा लौंगा है। राज्य के पहाड़ी इलाकों में यह 1500 से लेकर 1800 मीटर की ऊंचाई वाले क्षेत्रों में यह आसानी से उगाया जा सकता है। इसकी खूबी यह है कि छायादार स्थानों में जहां अन्य फसलों का उत्पादन नहीं हो पाता है, वहां इसकी खेती आसानी से की जा सकती है। काश्तकारों को हल्दी की खेती को प्रोत्साहन देने के लिए शासन की ओर से 50 प्रतिशत सब्सिडी पर इसका बीज उपलब्ध कराया जाता है। उत्तराखंड के विभिन्न जिलों में पंत पीताभ, सुगंधा, रोमा, सुवर्णा व स्थानीय प्रजाति की हल्दी उगाई जाती है। इसके हरे पत्तों व कंदों से तेल भी निकाला जाता है। साबुन व क्रीम बनाने में भी इसका मिश्रण उपयोग में लाया जाता है। हल्दी में मौजूद करक्यूमिन तत्व के कारण इसकी बाजार में अत्यधिक मांग हैण्हल्दी 2540 रुपये प्रति क्विंटल की दरें तय की गई है। इसमें किसानों को 50 फीसदी सब्सिडी दी जाएगी। किसानों को हल्दी 12 रुपये प्रति किलो की दर से उपलब्ध कराया जाएगा।
वैज्ञानिक रूप से हल्दी जिन्जीविरेन्सी परिवार अन्तर्गत आती है जिसमें असंख्य आर्थिक, औषधीय, सजावटी तथा सामाजिक रूप से महप्वपूर्ण अन्य बहुत सारे पौधों का भी अध्ययन किया जाता है। विश्वभर में हल्दी अपने औषधीय एवं औद्योगिक उपयोग के कारण अपनी एक विशिष्ट पहचान व स्थान रखती है। भारत भी विश्वभर में हल्दी निर्यात एवं उत्पादन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है जो लगभग विश्व का 93.7 प्रतिशत उत्पादन एक लाख 50 हजार है0 क्षेत्रफल में करता है। भारत में कुल उत्पादित हल्दी का लगभग 92 प्रतिशत केवल स्वदेश में ही उपयोग किया जाता है तथा लगभग 8 प्रतिशत विश्व के अन्य देशों को निर्यात किया जाता हैए जिसमें आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु तथा केरल मुख्य रूप से व्यवसायिक हल्दी उत्पादक राज्य जाने जाते हैं।
यद्यपि हल्दी दक्षिण तथा दक्षिण पूर्वी एशिया में काफी प्रचलित है परंतु इसकी कुछ प्रजातियॉ चीनए आस्ट्रेलिया तथा दक्षिण पेसफिक में भी प्रचलन मे आ रही है। जबकि विश्व में सर्वाधिक हल्दी की विविधता भारत तथा थाईलैड में देखी जा सकती है जिसमें 40 से ज्यादा प्रजातियों का उत्पादन किया जाता है। वर्तमान में बाजार मॉग औषधीय एवं औद्योगिक गुणवत्ता को दृष्टिगत रखते हुए म्यान्मार, बाग्लादेश, इण्डोनेशिया तथा वियतनाम भी हल्दी उत्पादन में आगे आ रहे है। यदि वैज्ञानिक दृष्टि से तथा उपलब्ध साहित्य को दृष्टिगत किया जाय तो भारत में तथा उत्तराखण्ड में तो हल्दी पुरातन काल से ही विभिन्न बीमारियों के निवारण तथा सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में प्रयोग की जाती रही है। वर्तमान में भी कई समाजिक समारोह आदि में इसका उपयोग किया जाता है। विभिन्न साहित्यों के अनुसार लगभग 600 बी0सी0 पूर्व से ही हल्दी को मसालाए डाईए औषधी तथा सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में प्रयोग किया जाता रहा है। शुद्ध वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार हल्दी में जो पीला सर्वाधिक महत्वपूर्ण सक्रिय घटक करकूमीन है, जिसमें दो अन्य सहायक अव्यव डाईमिथोक्सी करकूमीन तथा बाईडिमिथोक्सी करकूमीन पाये जाते है।
इसी महत्वपूर्ण अवयव करकूमीन की वजह से विश्व भर में विभिन्न रोगों के निवारण के गुण पाये जाते है जैसे इसमें फफूदनाशक, जिवाणुनाशक, मधुनाशक, कैंसर निवारण तथा उदर रोग निवारण के गुण भी पाये जाते है। इसके अतिरिक्त विभिन्न कैंसर जिसमें प्रौस्टेट, ब्रेस्ट, चर्म तथा क्लोन के उपचार में भी प्रयोग किया जाता है। करकूमीन के अलावा हल्दी में एक अन्य महत्वपूर्ण अव्यव टेट्रा हाइड्रो करकूमीनाइड टी0एस0सी0 भी पाया जाता है, जिसमें बेहतर एण्टी ऑक्सीडेंट गुण के साथ.साथ विभिन्न सौन्दर्य प्रसाधनों में औद्योगिक रूप से प्रयोग किया जाता है। पौष्टिक दृष्टि से भी हल्दी अत्यन्त महत्वपूर्ण पायी जाती है, इसमें प्रोटीन.6.30 ग्रा0, खनिज लवण 3.50 ग्रा0, केल्सियम. 150 मि0ग्रा0, फासफोरस. 282 मि0ग्रा0, आइरन. 67.80 मि0ग्रा0, कैरोटिन. 30 माइक्रो ग्रा0, थियामिन 0.03 मि0ग्रा0 फॉलिक अम्ल 18.0 माइक्रो ग्रा0 मैग्नीशियम 278 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते है। वैसे तो हल्दी व्यवसायिक रूप से वृहद मात्रा में भारत के कई राज्यों में उगायी जाती है परंतु उत्तराखण्ड की पहाडी हल्दी अपने विशिष्ट गुणों के कारण विश्वभर में अपनी एक अलग पहचान रखती है। उत्तराखण्ड में सम्पादित एक वैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार फिनोलिक तत्वए एण्टी ऑक्सीडेट तथा एस्कॉरबिक अम्ल उच्च पहाडी क्षेत्रों की हल्दी में मैदानी क्षेत्रों के अपेक्षाकृत ज्यादा पाये जाते है जैसे फिनोलिक तत्व हरिद्वार के अपेक्षाकृत पिथोरागढ की हल्दी में ज्यादा पाये जाते है तथा कुल एण्टी ऑक्सीडेट रूडकी के अपेक्षाकृत मुन्स्यारी के हल्दी में ज्यादा पाये जाते है तथा एस्कॉरबिक अम्ल भरसार की हल्दी में रूडकी के अपेक्षाकृत अधिक पाये जाते है। हल्दी भारतीय खाने का अहम हिस्सा है। चाहे दाल हो या फिर सब्जी इनमें हल्दी का इस्तेमाल जरूर होता है। आमतौर पर खाने में हल्दी पाउडर का ही इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन सर्दियों के सीजन में मार्केट में कच्ची हल्दी भी उपलब्ध हो जाती है।
अदरक सी दिखने वाली इस हल्दी में इतने गुण होते हैं कि ठंड में भी यह आपको फिट बनाए रखने में मदद करेगी। कच्ची में ऐंटी.इन्फ्लेमेटरी और ऐंटीबैक्टीरियल कम्पाउंड होते हैं, जो वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया को शरीर से दूर रखने में मदद करते हैं। इस वजह से ठंड के मौसम में आमतौर पर होने वाली जुकाम और खांसी जैसी बीमारियां शरीर को जकड़ नहीं पाती हैं। अगर कोई इससे पहले से पीड़ित है और अगर वह कच्ची हल्दी रोज खाए तो उसे जल्दी ठीक होने में भी मदद मिलती है। रोज कच्ची हल्दी खाने से शरीर में ऐंटीऑक्सिडेंट एंजाइम्स बूस्ट होते हैं, जो शरीर की इम्युनिटी को भी बूस्ट मिलता है। इससे बॉडी को वायरल इंफेक्शन से लड़ने में मदद मिलती है। कच्ची हल्दी खून की धमनियों में मौजूद एन्डोथीलीअम के फंक्शन को सुधारती है। इससे ब्लड प्रेशरए ब्लड क्लॉटिंग जैसी कई समस्याएं दूर रहती हैं। साथ ही में यह इन्फ्लेमेशन और ऑक्सिडेशन को कम करती है। ये सभी फैक्टर कंट्रोल में रहने पर दिल की बीमारी होने का खतरा भी अपने आप कम हो जाता है। सर्दियों में ऑर्थराइटिस के मरीजों में दर्द व सूजन की समस्या बढ़ जाती है। इस परेशानी को कच्ची हल्दी कम कर सकती है और यह बात कई स्टडीज में भी साबित हो चुकी है। डिप्रेशन के कारणों में से एक ब्रेन डिराइव्ड न्यूरोट्रॉपिक फैक्टर में कमी है। कच्ची हल्दी इस फैक्टर को कम करने में काफी मदद करती है। यह न्यूरोट्रांसमिटर सेरोटॉनिन और डोपामाइन को बूस्ट करता है जो डिप्रेशन को कम करने में मदद करते हैं। ऐसे लोग जो पहले से डिप्रेशन से जूझ रहे हैं, उन्हें रोज कच्ची हल्दी जरूर खाना चाहिए। सर्दियों में पाचन क्रिया आमतौर पर स्लो हो जाती है जिससे अक्सर लोग पेट खराब होने की शिकायत करते हैं। कच्ची हल्दी इस स्थिति में राहत देती है और खाने के बेहतर तरीके से पचाने में मदद करती है। वैज्ञानिक रूप से विशुद्ध पहलू यह है कि क्या उत्तराखण्ड के पहाडी क्षेत्रों मे जहॉ भी हल्दी उत्पादन के अनुकूल जलवायु पायी जाती है केवल उसी प्रजाती की हल्दी का व्यवसायिक हल्दी का उत्पादन किया जाय जिसकी सर्वाधिक बाजार मॉग औषधीय एवं औद्योगिक महत्व हो ताकि स्थानीय काश्तकार बाजार आधारित हल्दी का उत्पादन कर आर्थिक उपार्जन कर सकें तथा पहाडी क्षेत्रों में उत्पादित फसलों को जीविका उपार्जन का साधान बनाया जा सकें। काश्तकारों का रूझान पिछले कई सालों से हल्दी की खेती की ओर बढ़ रहा है।