डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल.फूलों में भी। खासकर जंगली फलों की तो यहां समृद्ध दुनियाहै। यह फल कभी मुसाफिरों व चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे, लेकिन धीरे.धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक ज़िंदगी का भाग बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है। जंगली फल न केवल स्वाद, बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहद अहमियत रखते हैं। बेडू, तिमला, मेलू या मेहल, काफल, अमेस, दाड़िम, करौंदा, बेर, जंगली आंवला, खुबानी, हिंसर, किनगोड़, खैणु, तूंग, खड़ीक, भीमल, आमड़ा, कीमू, गूलर, भमोरा, भिनु समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जो पहाड़ को प्राकृतिक रूप में संपन्नता प्रदान करती हैं। इन जंगली फलों में विटामिन्स व एंटी ऑक्सीडेंट भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं।
उत्तराखण्ड हिमालय तथा संपूर्ण हिमालय क्षेत्र अपनी नैसर्गिक जैव विविधता के लिए विश्व भर में प्रसिद्ध है। इस हिमालय क्षेत्र में असंख्य औषधीय तथा आर्थिक क्षमता वाले असंख्य पौधे पाये जाते है। हिमालय क्षेत्रों में पाये जाने वाले 8000 पुष्पीय पौधों की प्रजातियों में से लगभग 4000 प्रजातियां केवल गढवाल हिमालय क्षेत्रों में आंकी गयी है। जिनमें से एक महत्वपूर्ण पौधा भमोरा है जिसका वैज्ञानिक नाम ब्वतदने ब्ंचपजंजं है। वैसे तो भमोरे का फल कम ही खाने को मिलता है, परंतु चारावाहो द्वारा आज भी जंगलों में इसके फल को खाया जाता है। यह हिमालयी क्षेत्रों में पाये जाने वाला अत्यन्त महत्वपूर्ण पौधा है। इसी वजह से इसे हिमालयन स्ट्राबेरी का नाम दिया गया है। वैसे तो भमोरा संपूर्ण हिमालय क्षेत्रों यथा.भारत, चीन, नेपाल, आस्ट्रेलिया आदि में पाया जाता है परंतु इसका उद्भव भारत के उत्तरी हिमालय तथा चीन में ही माना जाता है।
सामान्यतः यह 1000 से 3000 मी0 ऊॅचाई तक पाया जाता है। हिमालय क्षेत्रों में भमोरा सितम्बर से नवम्बर के मध्य पकता है तथा पकने के बाद इसका फल स्ट्रॉबेरी की तरह लाल हो जाता है जो पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ.साथ स्वादिष्ट भी होता है। इसे मार्किट में अच्छे भाव में बेचा और ख़रीदा जा सकता है लेकिन यदि आप उत्तराखंड में हैं तो आप इसे जंगलों से प्राप्त कर सकते हैं। यह ब्वतदंबमंम कुल से संबंध रखता है। हिमालय क्षेत्रों में भमोरा सितम्बर से नवम्बर के मध्य पकता है तथा पकने के बाद इसका फल स्ट्रॉबेरी की तरह लाल हो जाता है जो पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ.साथ स्वादिष्ट भी होता है। भमोरा का सबसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक पहलू यह है कि इसकी छाल तथा पत्तियॉ टेनिन निष्कर्षण के लिए प्रयुक्त होती है, जिसका फार्मास्यूटिकल उद्योग में औषधीय निर्माण हेतु अत्यधिक महत्व होता है। कारनस जीनस ही अपने आप में पॉली फिनॉलिक तत्वों जैसे टेनिन की मौजूदगी के लिए प्रसिद्ध है जिसमें मुख्यतः भ्लकतवसल्रंइसम टेनिन पाया जाता है।
कई वैज्ञानिक अध्ययनों में भमोरा की जडों से पॉली फिनॉल का निष्कर्षण किया गया है। सिद्ध एवं ठाकुर वर्ष 2015 ष्अन्तर्राष्ट्रीय जनरल ऑफ फार्मटेक रिसर्च में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार भमोरा में मधुनाशी गुण भी पाये जाते है। इसके फल में एक महत्वपूर्ण अव्यव एन्थोसाइनिन भी पाया जाता है। जो अन्य फलों की तुलना में 10 से 15 गुणा ज्यादा पाया जाता है। इसमें मौजूद टेनिन जो एक एस्ट्रीजेन्ट के रूप में दर्द तथा बुखार के निवारण हेतु प्रयुक्त होता है भी पाया जाता है। कई वैज्ञानिक अध्ययनों में यह भी बताया गया कि भमोरा में मौजूद टेनिन कुनैन के विकल्प के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। पारम्परिक रूप से भी भमोरा की कुछ प्रजातियां पारम्परिक चाईनीज तथा कोरियन औषधीयों में जैसे. खांसी, फ्लू, मुत्र रोग, अतिसार रोगों के निवारण के साथ.साथ लीवर तथा किडनी के बेहतर कार्यप्रणाली के लिए भी प्रयुक्त होता है। जहॉ तक भमोरे के फल का पोष्टिक गुणवता की बात की जाय तो इसमें प्रोटीन.2.58 प्रतिशत, फाइबर.10.43 प्रतिशत, वसा.2.50 प्रतिशत, पोटेशियम 0.46 मि0ग्रा0 तथा फासफोरस.0.07 मि0ग्रा0 प्रति 100 ग्राम तक पाये जाते है।
उत्तराखण्ड में पाये जाने वाले भमोरा तथा कई अन्य पोष्टिक एवं औषधीय रूप से महत्वपूर्ण जंगली उत्पादों का यदि विस्तृत वैज्ञानिक अध्ययन कर इनकी आर्थिक क्षमता का आंकलन किया जाय तो यह प्रदेश के जंगली उत्पादों को विश्वभर में एक नई पहचान दिलाने में सक्षम है। सिर्फ मेहनत लगेगी पैसे की जरूरत नहीं होगी। उत्तराखंड में सेकड़ों फल ऐसे ही जंगलों में उगते हैं, लेकिन पर्याप्त जानकारी और मार्किट के ना होने की वजह से वो जंगल में ही बर्बाद हो जाते हैं, ऐसी वनस्पतियों को यदि रोजगार से जोड़े तो शायद इसमें मेहनत भी कम हो सकती है क्योंकि यह स्वतः ही पैदा हो जाने वाली जंगली वनस्पति है। वही लोगों तथा सरकार द्वारा इनके आर्थिक महत्व पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। यदि इन वहुउद्ेशीय पादपों के आर्थिक महत्व पर गहनता से कार्य किया जाता है तो पहाड़ो से पलायन जैसी समस्या से काफी हद तक निजात पाया जा सकता है