डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
वानस्पतिक नाम : जटामांसी, मासी, बालछड़
व्यापारिक नाम : स्पिकनार्ड, भारतीय नार्ड
कुल : वैलेरियानेसी (मासी कुल)
वर्तमान स्थिति : दुर्लभ/संकटग्रस्त
बाजार मूल्य : 800-1000 रू0 प्रति किलो
प्राचीनकाल से जटामाँसी का उपयोग परम्परागत चिकित्सा प्रणाली के साथ-साथ आर्युर्वेदिक तथा होम्योपैथिक चिकित्साा प्रणाली में होता रहा है। परन्तु अब इसका उपयोग आधुनिक चिकित्साा प्रणाली के साथ-साथ सगंध उद्योग में भी होने लगा है। इसे जटामांसी, माँसी, बालछड़ स्पिकनार्ड, अथवा भारतीय नार्ड के नाम से भी जाना जााता है। वर्तमान में इसकी 300 मीट्रीक टन की प्रतिवर्ष खपत को पूरा करने के लिए इसका बड़ा भाग विदेशों से आयात किया जा रहा है। यदि इसका नियमित उत्पादन देश में ही सम्भव हो सके तो न केवल विदेशी मुद्रा की बचत होगी बल्कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को रोजगार भी मिल सकेगा। वर्तमान में इसके प्रकंदो का मूल्य 800-1000 रू0 प्रति किलो तथा इससे उत्पादित/सुंगधित जटामांसी तेल का मूल्य 80,000.00 रू0 प्रति किलो है। पिछले कुछ वर्षांे से बाजार में जटामासी की औषधीय एवं सुगंधित तेल के रूप में बढ़ती हुई मांग, प्रकृति से अविवेक पूर्ण दोहन, आवासीय क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों, पशुचरान आदि के कारण प्रकृति में इसका स्तर संकटग्रस्त/दुर्लभ हो गया, इसके स्तर को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार द्वारा प्रकृति से इसका दोहन प्रतिबंधित कर दिया गया और इसे दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी श्रेड डाटा बुकश् में सूचीबद्ध कर दिया गया है। इसके अस्तित्व को बढ़ रहे खतरे को देखते हुए ब्प्ज्म्ै के द्वारा इस प्रजाति के अविलम्ब कृषिकरण करने की सलाह दी गई है साथ ही इस प्रजाति का निर्यात तथा खनन वन विभाग द्वारा बन्द कर दिया गया है। परन्तु वर्तमान नीति के दोषों के कारण इसे चोरी-छिपे निर्यात भी किया जा रहा है। प्रजाति के संरक्षण के उद्देश्य से लम्बे अनुसन्धान के पश्चात् इसकी कृषिकरण तकनीक विकसित की जा चुकी है, परन्तु बृहद स्तर पर खेती की जाने की आवश्यकता है।
वानस्पतिक विवरण
जटामाॅंसी वैलेरियानेसी (माँसी) कुल का एक महत्वपूर्ण बहुवर्षीय, छोटा, सीधा, रोमयुक्त, शाकीय, औषधीय एवं सुगन्धित पौधा है, जिसका वानस्पतिक नाम नारडोस्टैकिस जटामाॅंसी है,जिसमें मूसला जड़ तंत्र पाया जाता है। मूसला जड़ पर ऊपर की ओर 6-8 सेमी0 लम्बे 20-30 तक प्रकंद होते हैं। प्रत्येक कंद के ऊपरी सिरे पर एक अथवा दो पौधे उत्पन्न होते हैं। तने के शीर्ष भाग पर 3-7 पुष्पगुच्छों में घण्टी के आकार के गुलाबी, नीले-सफेद रंग के 40-50 पुष्प जुलाई-अगस्त माह में उत्पन्न होते हैं जिनसे सितम्बर-अक्टूबर माह के अन्त तक बीज बनते हैं। जटामांसी के कन्द तीव्र सुगन्ध वाले भौमिक काण्ड होते हैं जो रक्ताभवर्ण के जटा सदृश सघन, रेशेदार लोमष गुच्छों से ढ़के रहते हैं। जड़ें हल्के पीले या खाकी रंग की होती हैं।भौगोलिक वितरण
यह पौधा अफगानिस्तान, भारत, चीन, यूनान, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान, वर्मा आदि देशों में 3000-5000 मी0 की ऊँचाई वाले क्षेत्रांे में पाया जाता है। भारत में यह हिमालयी राज्यों में कश्मीर, अरूणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, मेघालय से लेकर सिक्किम तक के क्षेत्रों में पाया जाता है। उत्तराखण्ड क्षेत्र में यह पौधा सामान्यतः 3300-5000 मी0 तक की ऊँचाई वाले क्षेत्रों में ढालदार, नम, आर्द्र चट्टानों तथा छायादार स्थानों पर पाया जाता है।सक्रिय अवयव एवं उपयोग:- भूमिगत तने (राइजोम) तथा जड़ो के आसवन से 2.0 प्रतिशत पीले रंग का सुगंधित तेल प्राप्त होता ह,ै जिसे स्पिकनार्ड तेल कहा जाता है। इसके मुख्य अवयव पचैली एल्कोहल, पचैलीन, सिचैलिन, जटामेन्सोन तथा जटामानसिक अम्ल हैं। इस पौधे के सुखाए गये राइजोम एवं जड़ों से औषधि प्राप्त होती है। प्राचीन समय से ही इसे औषधि तथा सुगन्ध के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। इसे शक्तिवर्धक, उत्तेजक, मूत्रवर्धक, अपशामक, शूल प्रशामक, बाजीकरण, हृदय सम्बन्धी रोगों, बेचैनी, उच्च रक्तचाप, मानसिक रोगों, वृक्क की पथरी, कुष्ठ, मिरगी, पीलिया, श्वास नली शोथ, अनिन्द्रा, शुक्र्र्र्र्र्रदोष, त्वचा सम्बन्धी, श्वसन, पाचन तथा नाड़ी दोषों, सर्प व बिच्छू डंक आदि रोगों में उपयोग किया जाता है। इसके साथ ही इसे धूप व हवन सामग्री निर्माण तथा बालों के काले रंग तथा चमक बनाये रखने व महंगी खुशबू आदि बनाने में उपयोग किया जाता है। इसके औषधीय गुणों के कारण 26 से अधिक आयुर्वेदिक योगों में इसका उपयोग किया जा रहा है। बीज संग्रहण:- जटामांसी के पौधों में कायिक अवस्था पूर्ण होने पर पुष्प कलिकाएं विकसित होती हैं। सितम्बर-अक्टूबर माह तक बीज बनते हैं। बीजों की बुआई सितम्बर-अक्टूबर माह मे करने पर 80 प्रतिशत तक बीजांकुरण पाया जाता है जबकि फरवरी-मार्च तक बीजांकुरण क्षमता घटकर 75 प्रतिशत तक रह जाती है। कमरे के तापमान पर संग्रहित बीजों में बीजांकुरण क्षमता तेजी से घटती है इसलिए बीजों को अधिक समय (12-18 माह) तक भण्डारण करने हेतु कम तापमान (0-40) पर संग्रहित किया जा सकता है।
प्रर्वधन एंव प्रसारण:- जटामांसी के प्रर्वधन एंव प्रसारण के लिए बीजों, कायिक प्रर्वधन अथवा कांचीय प्रर्वधन (टिशू कल्चर) विधियों का उपयोग किया जा सकता है। अभी तक बीज अथवा कायिक प्रर्वधन द्वारा ही प्रसारण संभव है। टिशू कल्चर द्वारा पौध उत्पादन अभी बहुत मँहगा है।
उपयुक्त जलवायु एवं मिट्टी:- जटामांसी की खेती के लिए 2200-3600 मी0 ऊँचाई वाले शीत, नम, शुष्क, आर्द्रतायुक्त जलवायु, छायादार स्थान तथा उचित जल निकास वाली भूमि, जिसमें कम्पोस्ट खाद प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो, की आवश्यकता होती है।
खेत की तैयारी:- जटामांसी की खेती के लिए चयनित की गई भूमि में फरवरी-मार्च माह में 2-3 बार जुताई कर, खरपतवार आदि की छंटाई कर मिट्टी को पौधारोपण से कुछ समय पूर्व भुरभुरी बना दिया जाना चाहिए। मिट्टी की स्थिति के अनुसार पोषक पदार्थ उपलब्ध करवाने हेतु 250 कुन्तल प्रति हेक्टेअर की दर से अच्छी प्रकार से सड़ी हुई कम्पोस्ट खाद (जैविक खाद) अथवा पत्तियों की सड़ी खाद (पर्णास्तरण) अच्छी प्रकार मिट्टी में मिला देनी चाहिए। अधिक ऊँचाई वाले स्थानों पर मेड़नुमा अथवा ढालदार क्यारियों एवं कम ऊँचाई वाले स्थानों पर समतल क्यारियों में उत्तरजीविता एवं उत्पादन अधिक होता है। उचित जल निकास हेतु नालियों का निर्माण करना भी आवश्यक होता है।
पौध तैयार करना:- पौधशाला में पौध तैयार करने के लिए बीज अथवा कायिक प्रर्वधन का उपयोग किया जा सकता है। एक हेक्टेअर क्षेत्र के लिए लगभग 750 ग्राम अच्छे बीजों की आवश्यकता होती है। बीजों को एकत्र कर एक सप्ताह तक छाया में सुखाकर सितम्बर-अक्टूबर अथवा फरवरी-मार्च माह में कम ऊँचाई पर एवं अपै्रल-मई में अधिक ऊँचाई वाले स्थानों पर बोया जा सकता है। कम ऊँचाई पर बीज बोने के लिए सितम्बर-अक्टूबर का समय उपयुक्त है क्योंकि इस अवधि में 80ः तक बीजांकुरण होता है। जबकि फरवरी-मार्च में बीज बोने पर बीजों के संग्रहण की अवधि में जीवीष्णुता कम हो जाती है और लगभग 75ः बीजों में ही अंकुरण होता है। सितम्बर-अक्टूबर में तैयार की गई पौध में प्रतिरोपण के समय तक पर्याप्त वृद्धि हो जाती है। इस दृष्टि से इस अवधि में पौध तैयार करना उपयुक्त है।
बीज बोने के लिए स्टायरोफोम ट्रे में पालीहाउस अथवा ग्लासहाउस (हरितगृह) में भी बीज बोए जा सकते हैं। बीज बहुत हल्के होते हैं इसलिए बीज बोने से पूर्व खेत की मिट्टी, रेत तथा कम्पोस्ट खाद को 1ः1ः1 के अनुपात मे मिलाकर स्टायरोफोम बीजांकुर तश्तरियों में भर दिया जाता है। तत्पश्चात् मिट्टी की ऊपरी सतह (0.5 सेमी0 गहराई ) पर बीज बोकर (अधिक गहराई पर बोने से बीजांकुरण कम होता है) ऊपर से मास (बारीक घास-फूस आदि) की पतली परत से ढ़क दिया जाता है। मास की परत से ढ़कने पर बीजांकुरण अच्छा पाया जाता है, क्योंकि मास अंकुरित होने वाले बीजों के लिए नमी बनाये रखता है तथा तेज हवा अथवा पानी के अतिप्रवाह से बीजों को सुरक्षित रखता है। इस प्रकार बोए गए बीजों में एक सप्ताह बाद बीजांकुरण शुरू हो जाता है। जो लगभग एक माह के अन्दर पूर्ण हो जाता है। बीजांकुरण के समय मिट्टी में पर्याप्त नमी होना आवश्यक है इसलिए प्रत्येक 24 घण्टे में एक बार सिंचाई करना आवश्यक होगा। बीजांकुरण के बाद यदि आवश्यक लगे तो एक माह बाद पौधों की छंटाई कर ली जाती है परन्तु इस समय तैयार की जाने वाली मिट्टी में जैविक खाद की मात्रा बढ़ा दी जाती हैए जिससे पौध में बृद्वि तेजी से हो सके। इस प्रकार तैयार की गयी पौध लगभग 3 माह बाद खेतों मंे प्रतिरोपण के लिए तैयार हो जाती है।
कायिक प्रर्वधन द्वारा पौध तैयार करने के लिए शीर्षस्थ तनों का उपयोग अधिक लाभकारी पाया गया है। राइजोम को गुच्छे से अलग-अलग कर 8-10 सेमी0 के टुकड़ों में लम्बवत् काटकर (इस भाग में शीर्षस्थ कलिका अवश्य होनी चाहिए) रोपित किया जा सकता है। कलमों में शीघ्र जड़ें विकसित करने के लिए रोपण से पहले कलमों को एन.ए.ए., आई.बी.ए. अथवा जी.ए.3 हार्मोन के 50-100 पी0पी0एम0 घोल में 24 घंटे तक उपचारित कराया जा सकता है।
पौध रोपण एवं देखभाल:- उपर्युक्त प्रकार से (बीज अथवा कायिक रोपण) द्वारा तैयार पौध को पहले से तैयार खेतों मंे कम ऊँचाई वाले स्थानों पर मार्च-अपै्रल अथवा सितम्बर-अक्टूबर तथा अधिक ऊँचाई वाले स्थानों पर मई माह में प्रतिरोपित किया जाना चाहिए। फरवरी माह में बोये गये बीजों द्वारा प्राप्त पौध में मृत्युदर नवम्बर माह में बोये गये बीजों से उत्पन्न पौध की अपेक्षा अधिक होती है। शीतकाल में रोपित पौधों में देखभाल की अधिक आवश्यकता होती है। पौधे से पौधे की दूरी 20 सेमी0 रखते हुए प्रति हेक्टेअर 2,50,000 पौधों की आवश्यकता होती है। पौध रोपण के दौरान मिट्टी में अच्छी नमी रहना आवश्यक होता है। इसलिए एक सप्ताह तक नियमित सिंचाई की आवश्कता होती है।
पौधों के खेतों में स्थापित होने के बाद अधिक सिंचाई की आवश्कता नहीं होती है। सामान्यतः शरद ऋतु में माह में एक बार तथा ग्रीष्म ऋतु में सप्ताह में एक बार की गई सिंचाई पर्याप्त होती है। निराई-गुड़ाई की आवश्यकता खरपतवारों के उगने पर निर्भर करती है। सामान्यतः प्रथम वर्ष में 15 दिन में एक बार तथा दूसरे व तीसरे वर्षों में माह में एक बार निराई-गुड़ाई की आवश्यकता पड़ती है। दूसरे तथा तीसरे वर्षों मे भी कम्पोस्ट अथवा जैविक खाद 50 कुन्तल/हेक्टेअर की दर से (वर्षा ऋतु प्रारंभ होने से पहले)े मिलाई जानी चाहिए। शीतकाल में पाले से बचाने के लिए क्यारियों को सूखी पत्तियों अथवा घास-फूस से ढ़कना लाभदायक पाया जाता है।
प्रौढ़ता एवं कटाई करने का समय:- कायिक वृद्धि अवस्था पूरी कर लेने के बाद पौधे प्रौढ़ बन जाते हैं और उनमें सक्रिय तत्वों का प्रतिशत अधिकतम हो जाता है। प्रौढ़ता की अवधि उगाये गये क्षेत्रों की ऊँचाई एवं जलवायु पर निर्भर करती है। प्रथम बार रोपित खेतों से 3 वर्ष बाद (जब पौधे बीज उत्पन्न कर दें) अक्टूबर-नवम्बर माह में (अधिक ऊंचाई वाले स्थानों पर) एवं दिसम्बर माह में (कम ऊंचाई वाले स्थानों पर) पौधों की शुषुप्तावस्था के दौरान खुरपी अथवा कुदाल से फसल एकत्र की जाती है तथा पौधों के शीर्षस्थ भागांें की कलमें काटकर पुनः पौध तैयार की जाती है। जबकि इसके बाद प्रतिवर्ष फसल निकालते समय पुराने कन्दों को निकालकर नये कन्दांे को अगली फसल के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए।
प्रति हेक्टेअर व्यय (तीन वर्षों के लिए)
जटामाँसी की खेती पर 3वर्षों के लिए औसत व्यय (भूमि की तैयारी, खाद बीज/पौध, सिंचाइर्, निराई-गुड़ाइर्, फसल एकत्रीकरण, आदि पर) लगभग रू 4,00,000 प्रति हेक्टेयर आता है। प्रति हेक्टेयर व्यय नर्सरी की स्थिति, सड़क से दूरी, खाद, सिंचाई, निराई-गुड़ाई, उपचार, आदि की आवश्यकता के अनुसार भिन्न-2 पाया जाता है।इसी प्रकार उत्पादन किए जाने वाले क्षेत्र की ऊंचाई, जलवायु, पौध रोपण का प्रकार आदि के अनुसार औसत उत्पादन भिन्न- भिन्न पाया जाता है। 2200 मी0 की ऊंचाई पर औसत उत्पादन 400-600 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर तथा 3600 मी0 की ऊंचाई पर 400-650 किग्रा0 प्रति हेक्टेयर पाया गया है। 3600 मी0 की ऊंचाई पर पालीहाउस के अन्दर खेती करने पर उत्पादन 1.5-2.0 गुना अधिक प्राप्त हुआ है। प्रयोगों से निष्कर्ष निकला हैै कि 2200मी0 ऊँचाई वाले स्थान पर पौध रोपण विधि तथा 3600 मी0 की ऊचाई वाले स्थानों पर कायिक प्रर्वधन विधि द्वारा खेती करने पर अधिकतम लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
उपज एकत्र करने के बाद की तकनीकः- एकत्र किये गए प्रकन्दों तथा जड़ों को मिट्टीमुक्त करने के पश्चात् उन्हें छोटे-2 टुकड़ों मंे काटकर कमरे के तापमान (15-200ब्) पर सुखाकर बोरियों में बन्द कर दिया जाता है। खुली धूप अथवा ओवन मे सुखाने पर सक्रिय तत्व तथा सुगंधित तेल कम हो जाता है। बोरियों में बंद कर उन्हें विपणन हेतु बाजार भेजा जा सकता है अथवा कुछ महीनों तक शीत भण्डार गृह में संग्रह किया जा सकता है।वर्तमान समय में की खेती को प्रोत्साहित करने के लिए औशधीय पादप बोर्ड द्वारा कुल पंूॅजीनिवेष पर 75 प्रतिषत अनुदान दिया जा रहा है।